Monday, August 31, 2009

घिन की हद...


पहले पान को चबाओ और फिर उसकी पीक को थूको और फिर उसे पी जाओ...

अपने साथी प्रतियोगी को गंदी से गंदी गाली दो और फिर उसके पैर पड़ो...

अगर अपने आत्मसम्मान को दांव पर लगाते हुए आप ये सब करते जाएगें तो आप जीत सकते है कुछ लाख़ या करोड़ रुपए। ये है आज के जमाने का छोटा रास्ता पैसे कमाने का। जैसे कि शाहिद कपूर का कमीने में एक संवाद है- कि शार्ट कट या छोटा शार्ट कट। तो मेहनत आज के वक़्त में आऊट डेटेड हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि पुराने वक़्त में इंसान को शार्टकट पसंद नहीं थे। लेकिन, उन छोटे रास्तों के भी अपने नियम थे जोकि आज नहीं रह गए हैं। बदतमीज़ी की हदों को जो जितनी बदतमीज़ी से पार कर लेगा वो पैसा कमा जाएगा। निजी टीवी चैनलों पर इन शार्ट कट्स की भरमार हैं। बिंदास पर आनेवाला शो दादागीरी इतना वाहियात है कि जिसकी कोई हद नहीं। प्रतियोगियों से इतनी बदतमीज़ी की जाती हैं और प्रतियोगी आपस में इतनी गंदगी भरी बातें करते हैं कि कई बार लगता हैं कि इन्हें वयस्क प्रमाण पत्र देना चाहिए। रोडीज़ हो या फिर मुझे इस जंगल से बचाओ हर शो सबसे बड़ा बदतमीज़ खोजता है। जो सबसे बड़ा होता हैं वो जीत जाता हैं। पिछले कुछ सालों में टीवी ने अपनी शक्ल-सूरत बदल ली है या फिर ये कहे कि समाज ने बदल ली। बुनियाद और हम लोग को याद करनेवाले टीवी के साफ-सुथरे स्वरूप को बहुत मिस करते हैं। सच भी है कि समाज का रूप बदला तो है लेकिन, क्योंकि सास भी कभी बहू थी जितना नहीं। आज के धारावाहिकों में कोई भी गरीब कोई नहीं, आम परेशानियों से जूझता हुआ कोई नहीं। परेशानियाँ अगर है भी तो लार्ज़र देन लाइफ़ है। ऐसे में इनसे मन उचटना स्वाभाविक है और इस उचटे मन के लिए ही भारतीय टीवी के पर्दे पर आए ये शो। लेकिन, मन जोकि चंचल है और एक जगह ज़्यादा देर तक ठहरता नहीं है साफ-सुथरे रीयलीटी शो पर भी नहीं ठहरा। ऐसे में शुरु हुए ये घिन पैदा करनेवाले शो जिन्हें देखकर आप आसानी से गालियाँ सीख सकते हैं। ये शो गालियों के इनसाक्लोपीडिया होते हैं। इन्हें देखकर आप अपने दुश्मनों को ज़लील करना और दोस्तों को दुश्मन बनाना सीख सकते हैं।

Friday, August 21, 2009

बच्चों की बड़े होने में मदद करें...

क्या आपके बच्चे या छोटे-भाई बहन ने आपसे कभी किसी तरह के घरेलू शोषण की शिकायत की है? हो सकता है कि कभी की हो लेकिन, क्या आपने आपने बच्चे की इस बात को गंभीरता से लिया? उस इंसान से क्या कभी कोई बात की? असल में हमारा समाज ख़ुद को एकदम साफ सुथरा बनाए रखना चाहता है जोकि अच्छी बात है। लेकिन, इसके लिए समाज उपने अंदर की गंदगी को साफ नहीं करता है, बल्कि उसे चादर के नीचे ढ़क देते है। एक औसत भारतीय घर में ऐसी घटनाएं होती ही रहती है। अगर इन घटनाओं का सही आंकलन हो तो संभव है आंकड़ों और इन घटनाओं के दुष्प्रभावों को देखकर आप चौंक जाए। ये मुद्दा मैं इसलिए उठा रही हूँ क्योंकि कल ही मैंने एक कॉमिक पढ़ी। इसमें कहानी तो बच्चों की थी लेकिन, इसे पढ़ना हरेक इंसान के लिए ज़रूरी है। इसकी कहानी एक स्कूल के कुछ बच्चों की है ख़ासकर लड़कियों की जिनका उनके ही स्कूल का एक शिक्षक यौनशोषण करता है। डर के मारे बच्चियों किसी को कुछ नहीं बता पाती हैं लेकिन, इसका असर उनके व्यवहार और पढ़ाई पर साफ नज़र आता है। क्योंकि ये एक काल्पनिक कहानी है इसलिए किसी तरह से बच्चियों के माता-पिता को बात मालूम चल जाती हैं और उनके माता-पिता उन पर विश्वास करके उस इंसान के ख़िलाफ कार्रवाई भी करते है। जैसा कि हमेशा होता है हैप्पी एण्डिंग। लेकिन, इस अंत से मैं खुश नहीं हूँ। क्योंकि ये असलियत नहीं है। असलितय तो ये है कि सौ में से निन्यान्वे बार बच्चे माता-पिता तक ये बात लेकर ही नहीं जाते हैं। वजह सिर्फ़ इतनी कि हमारे घरों में आज भी अभिभावकों और बच्चों के बीच एक दूरी है। कई ऐसी बातें है जिनके बारे में हम बात नहीं कर सकते, कई बातें हैं जो माता-पिता हमसे नहीं कहते। सबकुछ रहता है पर्दे के पीछे। दूसरी वजह जोकि बच्चों को इन बातों की शिकायत से रोकती है वो है माता-पिता का अविश्वास और किसी तरह की कोई कार्रवाई न करना। कई बार माता-पिता अपने ही बच्चों की बातों को गंभीरता से नहीं लेते हैं और अगर ऐसी कोई बात हो तो उन्हें चुप करके बात को दबा देते है। अगर आप एक अभिभावक है तो ध्यान दे अपने बच्चे के दोस्तों पर, अपने रिश्तेदारों पर, उनके व्यवहार में अचानक आए किसी भी बदलाव पर। बच्चों के मामले में किसी पर भी यक़ीन न करें बले ही आपका रिश्तेदार या दोस्त हो। बच्चे कहाँ जाते हैं, कब आते हैं, किससे मिलते हैं, इन सब पर नज़र रखें। बच्चों से उनके शारीरिक बदलावों और यौन क्रियाओं के बारे में उनके मुताबिक़ बात करें।

Wednesday, August 19, 2009

मैट्रो की ट्रैन के बाहर फैली अव्यवस्थाएं...

दिल्ली मैट्रो को लेकर पिछले कुछ समय से कई तरह की बातें चल रही हैं। ख़ासकर सुरक्षा को लेकर हरेक चिंतित दिख रहा हैं। जो चिंता में है, जो इस पर विरोध दर्ज़ करवा रहा हैं वो भी सफ़र करना मैट्रो में ही पसंद करता है। मैं कुछ ज़्यादा चिंतित नहीं हूँ। मेरे पास चिंतित न होने की कोई ख़ास वजह भी नहीं है। अपने ऑफ़िस आने के लिए मैं मैट्रो को प्राथमिकता देती हूँ। लेकिन, ऑफ़िस से जाते वक़्त मैं बस से ही सफ़र करती हूँ। सुबह मुझे मैट्रो स्टेशन तक पहुंचने में बड़ी मुश्किल होती है। मैट्रो फ़ीडर इतनी भरी हुई होती है कि लटकने को जगह न मिले। ऐसी सूरत में मैं सामान्य आरटीवी से यमुना बैंक के बाहर उतरती हूँ और वहाँ से रोज़ाना लगभग एक किलोमीटर पैदल चलकर स्टेशन पहुंचती हूँ। पैदल इसलिए कि, वहाँ खड़े रिक्शा इतनी सी दूरी के दस से पन्द्रह रुपए लेते हैं, जोकि मैं दे नहीं सकती। आते वक़्त मैट्रो स्टेशन तक पहुंचना मेरे लिए आसान है क्योंकि वो मेरे ऑफ़िस के सामने हैं। फिर भी मैं बस से आती हूँ। वजह फिर मैट्रो फ़ीडर। यमुना बैंक पर फ़ीडर के लिए इतनी लंबी लाइन होती हैं कि एक-एक घंटे तक का इंतज़ार करना पड़ जाता हैं। स्टेशन के बाहर खड़े रिक्शा और ऑटोवाले इस तरह से मुंह खोलते हैं कि जिसका कोई पार नहीं। मैट्रो बहुत ही आरामदायक है। मैट्रो ने सफर को आसान बना दिया है। लेकिन, सफर इतना भी आसान नहीं हुआ है कि रूम से निकलते हुए ये विश्वास हो कि मैं आराम से ऑफ़िस पहुंच जाऊंगी। मैट्रो फ़ीडर को लेकर मेरी ये शिकायत हो सकता है कि नाजायज़ हो। लेकिन, मैट्रो स्टेशन पर फैली अव्यवस्था एक गंभीर मुद्दा है। ख़बरनवीसों और मैट्रो के पुरोधाओं को मैट्रो के खंभे में पड़नेवाली दरारों के साथ-साथ इस तरह की अव्यवस्थाओं पर ध्यान देना चाहिए।

Friday, August 7, 2009

सब्र रखे इतना वक़्त कहाँ...

आज हर कोई भाग रहा हैं। किसी को ऑफ़िस पहुंचने की जल्दी हैं, तो किसी को घर। हर कोई अपने आप में व्यस्त हैं। किसी के पास एक मिनिट शांति से बैठने की फ़ुर्सत नहीं हैं। हमारे जीवन की ये ज़िंदगी हमारे स्वभाव में भी नज़र आती है। किसी भी बात पर चिढ़ जाना, जल्द पहुंचने की हड़बड़ी में दूसरे को पीछे धकेलना आम बात हो गई हैं। हमारे इसी सब्र और सभ्यता का एक नमूना मैंने कल देखा। आईटीओ से लक्ष्मी नगर की तरफ़ जाते हुए ललिता पार्क बस स्टॉप के पास सड़क से नीचे पूरी एक कॉलोनी बसी हुई हैं। ये शायद लक्ष्मी नगर का ही हिस्सा है। इस कॉलोनी के एक मकान की दीवार पर लिखा हुआ है कि - यहाँ कचरा डालना मना है। जो भी यहाँ कचरा डालेगा उसका सर फोड़ दिया जाएगा।
पहली बार जब मैंने ये पढ़ा तो मैं चौंक गई। मैंने सोचा ये कौन सी सभ्यता है। कचरा डाल देने पर सीधे सर फोड़ देने की धमकी। लेकिन, शायद हमारे अंदर आज सब्र और सभ्य इन दोनों शब्दों के लिए कोई जगह नहीं रह गई हैं। यही वजह है कि आए दिन मोहल्लों में पानी की लाइन और एक दूसरे के आंगन में कचरा फेंक देने पर होनेवाली लड़ाइयाँ अख़बारों के साइड कॉलम में पढ़ने को मिल जाती हैं। हालांकि दुकानों के आगे- पता बताने के पाँच रुपए और गाड़ी खड़ी करने पर उसकी हवा निकाल दी जाएगी, जैसी चेतावनियाँ कई बार पढ़ी हैं। लेकिन, सर फोड़ देनेवाली धमकी पहली बार पढ़ने को मिली। मै कल से इस चेतावनी को लिखनेवाले की मनोदशा की कल्पना कर रही हूँ। क्या वो कचरा फेंकनेवालों से इतना परेशान हो चुका होगा कि अब किसी ने ये हरक़त की तो वो सीधे मार पीट पर उतर आएगा। क्या कभी उसने ऐसे लोगों को समझाने की कोशिश की होगी। यही सोचते-सोचते मुझे मुन्नाभाई पार्ट टू का वो दृश्य याद आ गया जहाँ गांधीजी मुन्ना के ज़रिए उस लड़के को शांत रहने की सलाह देते हैं जिसके घर के आगे एक दंबग आदमी रोज़ाना थूकता था। उस धमकी को पढ़ने के बाद एक बात तो तय है कि आज लोगों के पास किसी और को सुधारने का वक़्त और सब्र नहीं...

Thursday, August 6, 2009

अनोखी दोस्ती...

कौवा-कौवा... कौवा-कौवा...
दादा और पोते की ये पुकार सुनते ही सैकड़ों कौवे उनके आसपास इक्ठ्ठे हो जाते हैं। चुपचाप सब आकर बैठ जाते हैं। दादा और पोते मिलकर कौवों को खाना खिलाने लगते हैं। पनीर के छोटे-छोटे टुकड़े हवा में उड़ते हैं और कौवे उसे मुंह में डाल लेते हैं। ये वर्णन किसी पंचतंत्र की कहानी का नहीं बल्कि दिल्ली के विकासपुरी इलाके़ में रहनेवाले खन्नाजी के घर का हैं। खन्नाजी दिल्ली के ही रहनेवाले हैं और पिछले 40 सालों से वो कौवों के दोस्त हैं। उनकी एक आवाज़ पर सैकड़ों कौवे उनके आसपास आ जाते हैं। नवीन खन्ना का नाम तीन बार लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज़ हो चुका हैं उसके इन्हीं दोस्तों की वजह से। खन्नाजी बताते हैं कि जब वो कालकाजी इलाक़े में रहते थे वो रोज़ाना पक्षियों को खाना डालते थे। एक दिन उन्होंने खाना नहीं डाला तो छत पर एक कौवे ने उन्हें अपनी मधुर आवाज़ से पुकारा और फिर जो उनकी दोस्ती हुई वो 20 साल तक बरक़रार रही। खन्नाजी कौवों पर कई शोध कर चुके हैं। कौवों के ज़रिए ही उन्हें दिल्ली में आए भूकंप का पूर्वानुमान लग पाया था। मैंने जब ये पूछा कि कौवों को तो हम अपशगुन मानते हैं तो वो हंस पड़े। उन्होंने कहा कि कौवे उनके ही नहीं उनके परिवार के हर सदस्य के दोस्त हैं और कौवे अपने आप में बेहद शांत जीव हैं। कौवा कभी लड़ता नहीं हैं । लड़ाई हुई भी तो जो उम्र में बड़ा होता है वो चुप हो जाता हैं। खन्नाजी का ये कोवा प्रेम उनके बच्चों से होकर उनके पोते तक पहुंच गया हैं। खन्नाजी का पोता शौर्य सुबह उठते से ही कौवों के पास जाने की ज़िद्द करता हैं। खन्नाजी रोज़ाना इनसे मिलने और उन्हें खिलाने के लिए पार्क में जाते हैं और दादा पोते को देखकर उनसे मिलने दूर-दूर से कौवे आते हैं...