Saturday, December 26, 2009

क्या हैं हमारी असल सोच...

एक लड़का अगर ये कहे कि मैं अपने माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करूंगा तो पूरा समाज उसकी तारीफ करता हैं। अगर, वही ये कह दे कि अपनी मर्ज़ी से करूंगा तो हरेक के मन में एक खटास आ जाती हैं। मैं बहुत समय से इस बात से जूझ रही हूँ कि क्या सही और क्या ग़लत। कुछ दिन पहले ही एक सहकर्मी ने बातों-बातों में कहा कि शादी तो मैं अपनी मर्ज़ी से ही करूंगी। हर काम माँ-बाप की मर्ज़ी से किया इतना तो स्वार्थी हुआ ही जा सकता हैं। दूसरी तरफ आज एक ऐसी पोस्ट पढ़ी जिसमें युवा बच्चों की माँ इस बात से संतुष्ट नज़र आई कि उसके बेटे लड़कियों के साथ नहीं घूमते या फिर वो अरैंज मैरिज करेंगे। इस सबके बीच एक धारावाहिक का आना जिसमें ब्राह्मण के बेटे और कायस्थ की बेटी के प्रेम को ज़ोर शोर से दिखाया जा रहा हैं। मैं उलझन में हूँ कि असल में सही क्या है। खई बार मैंने सुना है कि भई वो तो बच गए। उनके तो सभी बच्चों ने माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी की हैं। माँ-बाप बच्चों की शादी तक दम साधे बैठे रहते हैं कि क्या होगा। क्या अपनी मर्ज़ी से जीवन साथी चुनना इतना ग़लत हैं। क्या अपनी मर्ज़ी से जीवनसाथी चुनना स्वार्थ है। क्या माँ-बाप का अपनी मर्ज़ी थोपना स्वार्थ नहीं है। मेरी दोस्त की बड़ी बहन के लिए कई सालों से लड़का खोजा जा रहा है। वो एक एमएनसी में काम करती हैं और अकेले रहती हैं। लेकिन, न तो उनका कोई अफेयर है और ना ही वो किसी से शादी करना चाहती हैं। ऐसे में उनके माता-पिता लड़का खोज रहे हैं लेकिन, उनके समाज (जाति) में उनके स्तर का लड़का नहीं मिल रहा हैं। अब जाति के बाहर लड़का खोज रहे हैं। हो सकता हैं उनकी शादी जाति के बाहर हो माँ-बाप की मर्ज़ी से। ये बात मेरी मम्मी को भी सही लगी। लेकिन, अगर वो ख़ुद अपनी मर्ज़ी से अगर जाति के बाहर शादी कर लेती तो वो ग़लत हो जाता हैं। आखिर में क्या है सही और क्या है ग़लत। हम क्या करना चाहते हैं हमारी सोच क्या हैं असल में...

Monday, December 21, 2009

फ़ोटो के ज़रिए सिनेमा का नया रूप...

फोटो। दस या ग्यारह साल का एक बच्चा जोकि बाकी बच्चों की ही तरह स्कूल जाता है। घर भी सामान्य घरों-सा ही है उसका। फिर भी वो अलग था। वो कुछ अलग करना चाहता था। उसकी एक सोच थी जोकि ओरों से अलग थी। वो सोचता था कि कैसे बनती हैं फ़िल्में। कैसे दिन से रात और रात से दिन हो जाता हैं। फोटो ने जानना चाहा कि फ़िल्मों की शुरुआत कैसे हुई। उसे इन बातों का जवाब मिला उसकी सोच से और खोज से। उसकी सोच में उसका एक साथी था। वो उसे उकसाता था कि वो पढे़ और खोजे कि कब, कैसे और कहाँ हुई फ़िल्मों की शुरुआत। और, बड़ा होकर फोटो बन जाता है ख़ुद एक निर्देशक। फोटो नाम है एक फिल्म का जोकि मैंने इस शनिवार को देखी। लोकसभा टीवी हर शनिवार को राष्ट्रीय अवॉर्ड से सम्मानित एक फिल्म दिखाता हैं। ये फ़िल्म वो बिना किसी एड ब्रैक के दिखाता हैं। फिलहाल वीक एंड क्लासिक के नाम से दिखाई जानेवाली इस सीरीज़ में बच्चों की फ़िल्में दिखाई जा रही हैं। इसी का हिस्सा थी ये फ़िल्म- फ़ोटो। मुझे लगता है कि ये फ़िल्म ज़्यादा लोगों ने नहीं देखी होगी। लेकिन, इसे आप ज़रूर देखें। ख़ासकर बच्चों को ये फ़िल्म ज़रूर दिखाए। इस फ़िल्म के ज़रिए बच्चे समझ पाएंगे सिनेमा के मायने और अगर आपको लगता हैं कि सिनेमा बेकार हैं तो आपको भी देखना चाहिए ये फ़िल्म। आप भी जानेंगे कि सिनेमा भी कला हैं।

Thursday, December 17, 2009

लड़की हो तो ग़लती तुम्हारी...

आज सुबह-सुबह टीवी ऑन करते ही अरूणा के बारे में ख़बर देखी। अरूणा मुंबई के एक अस्पताल में पिछले 36 साल से पड़ी हुई हैं। वो एक नर्स थी और वो जब चौबीस साल की थी अस्पताल के ही एक वार्ड बॉय ने उसके साथ बलात्कार किया था। तब से ही वो उसी अस्पताल के एक बेड पर पड़ी हुई है। 60 की हो चुकी अरूणा के लिए कुछ स्वयंसेवी सस्थाएं मौत मांग रही हैं। उनका कहना है कि उसे जबरन में खाना खिलाना बंद कर देना चाहिए जिससे कि वो एक शांत मौत मर सकें। बलात्कार के उस आरोपी को सात साल की सज़ा हो चुकी हैं जिसे वो भुगत भी चुका हैं। लेकिन, असल सज़ा तो अरूणा भुगत रही है। जिस पर अत्याचार हुआ वही उस अत्याचार की सज़ा भी भोग रही हैं। अरूणा की कहानी दिल को हिला देनेवाली है। लेकिन, वो अकेली नहीं है। लड़कियों के साथ होनेवाले अपराधों पर अगर एक नज़र डाले तो यही मिलेगा कि आरोपी से ज़्यादा उसकी शिकार हुई महिला भोगती हैं। और, इस सबके बाद सुनने को मिलते हैं कुछ बयान जैसे कि लड़की का बलात्कार जिसने किया वो उसका दोस्त था तो ग़लती उसकी भी हैं या फिर एक लड़की रात के दो बजे दिल्ली की सड़क पर क्यों ड्राइव कर रही थी। अरूणा सुन्दर थी। काम काज में। हरेक से अच्छे से बात करती थी। अब ये उसकी ही ग़लती थी कि उसमें ये गुण थे कि वो आकर्षित करें। लेकिन, वो उतनी भी आकर्षक नहीं थी कि इस घटना के बाद भी उसके घरवाले उसका साथ निभाते या वो लड़का उसके साथ रहता जो उससे शादी करनेवाला था। ग़लती सिर्फ़ लड़कियों की होती हैं। उनके साथ कोई भी गुनाह हो ग़लती उनकी ही होती हैं। वो ग़लती है कि वो लड़की है...

Saturday, December 12, 2009

काली राजकुमारी...

बात कुछ पुरानी है। मेरे मामा की बेटी गर्भवती थी। एक दिन मेरे पापा ने सपना देखा कि वो अस्पताल में हैं और सभी लोग बच्चे के जन्म की खुशी मना रहे हैं। पापा ने ये बात जब मेरी मामी को बताई तो मामी का सवाल था- बच्चा दामादजी जैसा ही लग रहा था ना। ये सवाल इसलिए क्योंकि वो ज़्यादा सुन्दर और गोरे है। ऐसे ही मेरी नानी एक बार हमारे साथ मिस इंडिया प्रतियोगिता देख रही थी। वो उसे देख बहुत मायूस हुई उनका कहना था कि इसमें से एक भी लड़की गोरी नहीं हैं। सभी सांवली या दबे रंगवाली ही हैं। ये है हमारे इस समाज की सोच। पहले तो ये गोरा रंग लड़कियों के लिए सुन्दरता का पैमाना था लेकिन, आज तो लड़के भी टॉल, डार्क और हैन्डसम की जगह फ़ेयर और हैन्डसम होना चाहते हैं। मेरे घर के पास रहनेवाली 5 साल की बच्ची को भी ये बात मालूम है कि सांवली है और उसकी 2 साल की बहन गोरी। वो कई बार ये बोल चुकी हैं कि मैं तो गंदी लगती हूँ। ये है हमारा समाज। खैर, कई सालों तक मैं भी इसी काम्प्लैक्स में जी चुकी हूँ। मेरे घर में मेरा रंग ही दबा हुआ है बाक़ी सब गोरे है खा़सकर पापा। मैं कई बार उनसे इस बात पर लड़ाई भी कर चुकी हूँ कि जब मैं आप सी दिखाई देती हूँ तो आप सी गोरी क्यों नहीं हूँ। लेकिन, आज मैं इस बारे नहीं सोचती हूँ। गोरेपन का पैमाना तय करनेवाली सिनेमा भी अब इससे ऊपर उठ रही हैं और परिवर्तन की इसी बयार में शामिल हुआ है- वॉल्ट डिज़नी। अपनी नई फ़िल्म दि प्रिन्सेस एण्ड दि फ़्राग के ज़रिए पहली बार एक अश्वेत राजकुमारी दर्शकों के सामने होगी। ये फ़िल्म मुझे इसलिए दिलचस्प लग रही है क्योंकि इसे बच्चे देखेंगे। बच्चों का मन सबसे कोमल होता हैं। इस उम्र में जो बात बैठ गई वो हमेशा बनी रहती हैं। उसे दूर करना बहुत मुश्किल होता हैं। ऐसे में अगर आज बच्चा ये देखेगा कि सुन्दरता का पैमाना रंग नहीं तो शायद ये एक अच्छी पहल साबित हो...
इस फ़िल्म का प्रोमो आप यहाँ देख सकते हैं...

Friday, December 11, 2009

इकोनोमी मील या हैप्पी मील...

रॉकेट सिंह देश के युवाओं के उस अस्सी फ़ीसदी हिस्से को दर्शाता है जोकि सपनों में भी किसी कंपनी में किसी ठीक-ठाक पोस्ट पर होने के सपने देखता हैं। वो पैसे जोड़ता भी है तो स्कूटर या बाइक के लिए। ऐसा ही था सिड- जोकि एमटीवीनुमा युवा को दर्शाता है। जोकि सपने देखते ही नहीं है दरअसल वो रातभर मस्ती में जो रहते हैं। दोनों ही एक ही देश में रहते हैं। एक ही हवा में कभी-कभी सांस लेते हैं (कभी-कभी इसलिए क्योंकि एसी की हवा अस्सी फ़ीसदी के हिस्से नहीं आती है)। मैक-डी में बर्गर भी दोनों ही खाते हैं भले ही एक इकोनामी मील खाए और दूसरा हैप्पी मील। खैर, मुद्दा ये है कि फ़िल्म एक ऐसा ज़रिया है जिससे कि हम दोनों ही तरह के युवाओं को देख सकते हैं। ये समझ सकते हैं कि हम कहाँ हैं और हम कैसे हैं। कुछ दिन पहले ही एक ख़बरिया चैनल पर रॉकेट सिंह के प्रमोशन के लिए इकठ्ठा हुए फिल्म से जुड़े लोगों का इंटरव्यू देखा। लेखक का ये दावा था कि ये उन अस्सी फ़ीसदी युवाओं के लिए हैं। ये फ़िल्म उन्हें अपनी सी लगेगी। रणबीर कपूर जोकि ख़ुद ओरिजनल नाइकी पहननेवाले हैं फिलहाल डुप्लीकेट नाइकीवाले बने हुए है। मैं ख़ुद इकोनोमी मील खानेवाली जमात में शामिल हूँ। मैं इस बात से खुश हूँ कि इस तरह की फिल्में बन रही है। नहीं तो हमारी सिनेमा या तो लंदन घूमनेवाले और कार में चलनेवाले यूथ की होती है या फिर धारावी की गंदगी में सने हुए लफंगों की। रॉकेट सिंह को देखकर मैं ये उम्मीद करती हूँ कि चश्मे बद्दूर के ओमी, बोजो और नेहा जैसे हम युवाओं की बदलती कहानी भी फिल्मवालों को भाने लगेगी। उम्मीद है फिल्म को अधिक से अधिक युवा देखेंगे। फिल्म महज मल्टीप्लैक्स के आंकड़ों में हिट होकर नहीं रह जाएगी...

Monday, December 7, 2009

नियमों का पालन करनाः क्यों मज़ाक करते हो...

कभी-कभी सभ्य होना या फिर नियमों का पालन करना एक बोझ-सा लगता है। मैं आजकल मैट्रो से ऑफ़िस आती हूँ। अक्षरधाम मैट्रो स्टेशन तक पहुंचने के लिए एक लंबी चौड़ी व्यस्त सड़क को पार करना होता है। इसके लिए मैट्रो की तरफ से एक लोहे का फ़ुट ओवर ब्रिज बनाया गया है। इस फ़ुट ओवर ब्रिज पर कई बार मुझे लगता है मैं अकेली ही चढ़ती हूँ। ऊपर से जब नीचे देखती हूँ तो कई ऑफ़िस और कॉलेज जानेवाले सड़क को कूद-फांदकर पार करते दिखाई देते हैं। इसके बाद मैट्रो में कई ऐसी बातें होती देखती हूँ जिन्हें देख मन कचवा जाता है। आज सुबह ही लगभग 20 या 21 साल के एक लड़के से मैंने जबरन बात की। ये लड़का देखने में किसी दुकान या फिर ऑफ़िस में चपरासी या ऐसी ही कोई नौकरी करता होगा। लड़का ज़ोर-ज़ोर से मोबाइल पर गाने सुन रहा था। मेट्रो में संगीत बजाना मना है। क्योंकि, गाड़ी में लगातार वो सूचना देते रहते हैं जिसे सुनकर ही यात्रियों को आगे की सही जानकारी मिलती हैं। ऐसे में गाड़ी में जो़र से संगीत बजाना मना है। इसके बावजूद वो लड़का पूरे आराम से गाने सुन रहा था। लड़का बैठा हुआ था और मैं खड़ी। मैं बिल्कुल लड़के के आगे खड़ी हो गई और उसे घूरना शुरु कर दिया। लड़का कुछ परेशान होने लगा। मुझे लगा कि शायद वो अपनी ग़लती मेरे बिना कहे समझ जाएगा। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। वो कुछ असहज तो हुआ लेकिन, उसने अपने मोबाइल पर बज रहा वो गाना बंद नहीं किया। बाराखंबा आते-आते मुझे लगा कि राजीव चौक पर तो मैं उतर जाऊंगी और ये तो यूँ गाने बजाता रहेगा। फिर मैंने उस गर्दन ज़मीन में घुसाए हुए लड़के के कंधे पर हाथ रखा वो घबरा गया। मैंने उससे पूछा कि क्या आप मेट्रो में पहली बार चढ़े हैं। वो कुछ नहीं बोला। मैंने फिर वही सवाल किया। इस बार उसने कहा कि नहीं। तो मैंने कहा- तो क्या आपको ये मालूम नहीं कि यूँ मेट्रो में लाउडस्पीकर पर संगीत चलाना मना हैं। लोग इस गाड़ी में हो रही घोषणाओं को सुन रहे हैं उन्हें परेशानी होगी। आपके पास इतना महंगा और सुन्दर मोबाइल है तो इयरपीस भी होगा। वैसे भी वो तो मुफ़्त में मिलता है। आपको इतनी तो समझ होनी चाहिए। मैं बोलती रही और वो चुपचाप सुनता रहा। मेरा स्टॉप आ गया और मैं उतर गई। मैं परेशान हूँ ऐसे लोगों से जोकि एक समाज का हिस्सा होकर भी अकेले अपनी सोचते हैं। खैर, वो अकेला नहीं हैं उसकी पूरी एक जमात हैं। जोकि हम जैसे नियम माननेवालों से बड़ी है। इस जमात में फ़ुट ओवर की जगह सड़क कूदनेवाले, मेट्रो के फ़्लोर पर बैठनेवाले, संगीत सुननेवाले, उतरनेवालों को रास्ता ना देनेवाले और उन्हें धक्का देनेवाले, स्टेशन पर चुपचाप फ़ोटो खिंचनेवाले शामिल हैं। मेट्रो में चलनेवाले भले ही पढ़े-लिखे और कुछ एलीट लगे लेकिन, अंदर से वो भी बसों में आगे से चढ़नेवाले और स्टॉप के पहले या रेड पर चढ़ने-उतरनेवाले ही हैं...

Saturday, December 5, 2009

चौंचलेबाज़ी...

आज सुबह-सुबह मैं अपनी कैमरा टीम के साथ यमुना किनारे गई। यमुना दिल्ली के अंदर बहनेवाली थी इसलिए अगर कोई बताता नहीं तो लगता कि कोई नाला बह रहा है। आज वर्ल्ड वॉलेन्टियर डे है। माने कि आप किसी अच्छे काम के लिए श्रमदान करें। यही वजह थी कि कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने कुछ स्कूली और कॉलेज के बच्चों को इकठ्ठा किया था। यमुना की सफाई कर रहे ये लोग कुछ-कुछ अंग्रेज़ लग रहे थे। हालांकि वहाँ कुछ अंग्रेज़ भी मौजूद थे जिनसे मैने पूछा था कि इस सब क्या औचित्य। खैर, इन एडिडास और नाइकी पहने बच्चों को हावड़ा, ग्लवज़, रबर के जूते और टी-शर्ट सबकुछ दिया गया था। ये सभी यमुना के किनारों से गंदगी निकाल रहे थे और एक जगह इकठ्ठा कर रहे थे। कुछ भारतीय एनजीओ और ख़बरिया चैनलों के साथ कुछ अंग्रेज़ी एनजीओ की इस मुहिम में सरकारी स्कूल के और आश्रय सेन्टरों में रहनेवाले बच्चे भी आकर मिल गए थे। ऊपरी तौर पर ये पूरी मुहिम एक सार्थक प्रयास लग रही थी लेकिन, अंदर ही अंदर वहाँ मौजूद भारत में रहनेवाले और केवल अंग्रेज़ी बोलनेवाले और पहननेवालों को देखकर खोखलापन महसूस हो रहा था। आधे से ज़्यादा युवा वहाँ फ़ोटो खिंचावाने आए थे। कुछ वहाँ होनेवाले अंग्रेज़ी गानों के कॉन्सर्ट को सुनने के लिए रूके लग रहे थे। ये युवा पीढ़ी की वो जमात दिख रही थी जो घर में शायद ही कभी अपना कमरा साफ करती हो या फिर वो जोकि कार से कोल्ड ड्रिंक का केन यूँ ही सड़क पर फेंक देती है। मैं जानती हूँ कि इस तरह के प्रयासों को सिरे से नकारना ग़लत होगा लेकिन, इस अभियान में इमानदारी मुझे कुछ कम लगी। आते समय देखा कि यमुना के किनारे पर खाने-पीने का सामान और पन्नियों और बोतलों का कचरा पड़ा हुआ था। साथ ही मेरे ड्राइवर को अफसोस था कि बैन्डवाले सरदारजी(रॉक बैन्ड के लीड सिंगर) ने केवल अंग्रेज़ी में गाने गाएं पंजाबी या हिन्दी में एक तो गा देता।

जाते-जाते इतना कि यमुना की सफाई करनेवालों के सामन ही कइयों ने उसमें पन्नियाँ फेंकी। युवाओं ने उन्हें समझाने की कोशिश की। वो उनके सामने हाँ- हाँ करके निकल गए। जाते-जाते इतना बोल कि इनके एक दिन के चौंचले में हम रोज़ का काम छोड़ दे क्या...

Tuesday, December 1, 2009

लिजलिजी कौम

कल मम्मी, मैं और भुवन लक्ष्मी नगर तक गए। यूँ ही थोड़ा बहुत घूमने के लिए। कल मंगलवार तो सो पूरा लक्ष्मी नगर खचाखच भरा हुआ था। घूमने फिरने के बाद जब हम लोग वहाँ से बाहर की सड़के ले लिए बढ़े तो पीछे से किसी ने मेरी कमर पर हाथ मारा। मैं पलटकर देखती तब तक वो आदमी आगे बढ़ गया। मैं उस पर चिल्लाई। देखने में वो आदमी पूरी तरह से नशे में लग रहा था। ऐसे में मम्मी ने कहा उसे क्या कहोगी वो ख़ुद ही होश में नहीं हैं। भुवन हमसे कुछ दूरी पर था। जब उसे ये बात मालूम हुई उसने कहा कि मुझे उसे मारना चाहिए था। मैंने मम्मी की दलील उसके आगे रख दी कि वो नशे में धुत था। हम जब मुख्य सड़क पर पहुंचे तो देखा कि वही आदमी किसी और लड़की के पीछे चल रहा है। लड़की को उसने उसी तरह पीछे से मारा और लड़की अकेली थी सो घबराकर आगे बढ़ गई। इसके बाद नशे में धुत वो आदमी एक दम आराम से चलता हुआ किसी और लड़की की तलाश में निकल पड़ा। ये देखकर मुझे अपनी बेवकूफी पर अफसोस हुआ। खैर, मैं उस लड़की तरह अकेली नहीं थी। हम तीनों उस आदमी की ओर बढ़े और जैसे ही भुवन ने उसे पकड़कर दो थप्पड़ मारे उसका पूरा नशा पेशाब के रास्ते बाहर निकल गया। उस आदमी ने पलटकर किसी तरह की कोई हाथापाई नहीं की चुपचाप मार खाता रहा। मुझे ये देखकर आश्चर्य हुआ कि वो आदमी कितना लिजलिजा है। कोई औकात नहीं है उसकी, कोई दम नहीं है उसमें। ऐसे में मैं अगर अकेली होती तो ज़रूर उससे डर जाती और उसे कुछ ना कहती जैसा कि उस लड़की ने किया। मुझे अफसोस के ही रोज़ाना इस तरह के लिजलिजे और गंदी मानसिकतावाले लोगों से दो-चार होने के बावजूद मैं इन्हें कुछ नहीं कह पाती हूँ। मैं डर जाती हूँ। मुझे अपने आसपास मौजूद भीड़ पर यकीन नहीं है कि वो मेरी मदद को आगे आएगी। मैं ख़ुद शारीरिक रूप से सक्षम भी नहीं हूँ कि उससे अकेले ही निपट लूं। मैंने अपनी आनेवाली ज़िंदगी के लिए इतना तो तय कर ही लिया है कि मेरे जब भी बच्चे होगे मैं उन्हें शारीरिक रूप से इतना तो सक्षम बनाऊंगी ही कि वो ऐसी लिजलिजी कौम से ना डरे...