Friday, October 22, 2010

रिश्वत देना और लेना एक कला है !

भगवान की पूजा नहाने के बाद ही की जाती है। मंदिर में जाने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारे जाते हैं। रात में सोने से पहले भगवान का नाम लेना चाहिए। या फिर रात को दही नहीं खाना चाहिए। ये कुछ ऐसी बातें हैं जो कि मैं पूरी तरह से निभाती हूँ। भले ही मैं इसे करने की वजहों के बारे में कुछ ना जानती हूँ। दरअसल मैंने कभी ये जानना ही नहीं चाहा कि हम ऐसा क्यों करते हैं। शायद यही हालत दुखुराम की भी होगी या फिर कहा जाए कि मुझसे भी बुरी होगी। क्योंकि अपनी ऐसी सोच और आदतों में ही उसने ये भी जोड़ रखा है कि कोई भी काम बिना रिश्वत दिए बिना नहीं होता हैं। दुखुराम छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले का रहनेवाला है। और, एक ख़बर के मुताबिक़ उसने भरी अदालत में जज को तीन सौ रूपए की रिश्वत देकर केस का फैसला जल्दी करने को कहा। दुखुराम की इस हरकत के चलते अदालत में मौजूद सभी लोग सकते में आ गए और जज ने उसे रिश्वत देने के जुर्म में जेल की सज़ा सुनाई। बाद में ये मालूम चला उस भोले से गांववाले को उसके साथियों ने समझाईश दी थी कि, बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता है। इसी के चलते दुखुराम ने दुखी होते हुए अपने कुल जमा जेब के पैसे जज साहब के सामने रख दिए। छह साल से सम्पत्ति के मामले में उलझे हुए दुखुराम की ये छोटी सी हरकत हमारे देश के भ्रष्ट तंत्र को दर्शाती है। जहां हमने रिश्वत देने और लेने को कुछ इस तरह से अपनी ज़िंदगी में समाहित कर लिया है जैसे कि सांस लेते हैं। दुखुराम ने बढ़े ही अफसोस के साथ ये कहा कि पैसे देने पर भी हमारा काम नहीं हुआ। दरअसल दुखुराम ये तो समझ गया कि पैसे के बिना फैसला नहीं आया है लेकिन, वो ये नहीं समझ पाया कि पैसे दिए कैसे जाते है। रिश्वत देना ही केवल काम को करवाने के लिए काफी नहीं है। असल में रिश्वत देना और लेना दोनों ही एक कला है। एक ऐसी कला जिसे सालों की मेहनत से तराशा जाता हैं। साथ ही ये एक ऐसा गुण भी है जो कि आपके खून में होना ज़रूरी हैं। बहुत आश्चर्य की बात है कि ये कला और इससे जुड़े कलाकार हमारे बीच में मौजूद हैं लेकिन, फिर भी इसे व्यवस्थित रूप से सिखाने के लिए कोई संस्था नहीं हैं। ये एक ऐसी कला है जो कि फिलहाल घराना पंरपंरा के अनुसार चल रही है। बाप से बेटे को और सीनियर से जूनियर को। लेकिन, ऐसे में इसे ना समझनेवाले दुखुराम जैसे लोग पिस जाते हैं। जोकि रिश्वत कला के बारे में अपनी अधकचरी जानकारी के चलते पैसा भी गंवा देते हैं और ऊपर से सज़ा भी भुगतते हैं। अब ज़रूरत है कि रिश्वत की कला की बारीकियों को आम जनता को भी सिखाया जाए...

Wednesday, October 20, 2010

सूरज की रौशनी

सूरज की रौशनी क्या क्या कमाल कर सकती है, ये शायद अब तक हमने पूरी तरह जाना नहीं है। या फिर ये कहे कि हम लोग धीरे धीरे ये जानने की कोशिशों में लगे हुए हैं। बचपन में सोलर कुकर को स्कूल में प्रोजेक्ट के लिए थर्माकॉल से बनाया करती थी। लेकिन, इसका बहुत व्यवहारिक इस्तेमाल कभी नहीं देखा। कई बार सुना कि मल्टीस्टोरी फ्लैटवाली कॉलोनियों में आजकल सोलर पैनल लगने लगे हैं पानी गर्म करने के लिए। व्यवहारिक रूप से इसका भी इस्तेमाल नहीं देखा। कई लोगों के मुंह से ये सुना ज़रूर कि ये बहुत व्यवहारिक और काम को कम करनेवाली ऊर्जा नहीं हैं। शायद हम सूरज की रौशनी से बचने के इतने आदी हो गए हैं कि बस काले शीशों में एसी ऑन करके सूरज को केवल एक विलेन की तरह देखते रहते हैं। लेकिन, ये आग उगलता हमसबों की ज़िंदगी का विलेन कुछ लोगों की ज़िंदगी बढ़ाने के काम में लगा हुआ है। सीएसआईआर (काउन्सिल ऑफ़ साइन्टिफ़िक एण्ड इन्ड्रस्टियल रिसर्च) ने सोलेक्शा ईजाद किया। सोलेक्शा यानी कि सोलर रिक्शा। रिक्शा वही जो हमें अपने घर से बस स्टॉप या फिर पासवाले मार्केट से घर तक लाता हैं। ऊपर नीचे, उबड़-खाबड़ रास्तों के साथ साथ ट्रेफ़िक और लाल हरी बत्तियों के बीच से हमें सही समय पर सही जगह पहुंचाता हैं। रिक्शा वही जिसे चलानेवाले को हम अपने से कमतर समझते हैं और उससे एक एक रुपए के लिए हुज्जत करते हैं। उसी रिक्शे को सीएसआईआर ने सौर ऊर्जा से संचालित करने की पहल की हैं। वो ऐसे रिक्शे बना रहा है जो कि बैट्री से चलते हो और वो बैट्री सूरज से चार्ज होती हो। सीएसआईआर का मक़सद पूरी तरह से रिक्शाचालकों की मेहनत को आधा करना और कमाई को दोगुना करना हैं। इस रिक्शे में पैडल मारने की कोई ज़रूरत नहीं, हालांकि पैडल है ज़रूर। जोकि बैट्री के डिस्चार्ज होने पर काम आते हैं। एक शोध के मुताबिक़ टीबी के मरीज़ों में सबसे ज़्यादा रिक्शाचालक होते हैं। सरकारी अस्पतालों में इसकी दवाई मुफ्त होने पर भी ये उनके लिए फायदेमंद नहीं हैं। क्योंकि इन दवाइयों के साथ जिस तरह के खाने की ज़रूरत हैं वो उन्हें नहीं मिल पाता हैं। ऐसे में अधिकतर ये दवा खोना शुरु तो करते हैं लेकिन, बीच में ही छोड़ देते हैं। पूरे दिन रिक्शा खींचने के लिए उन लोगों का सहारा बनता है तंबाखू। ऐसे में उन्हें बेहतर खाना और माहौल देना संभव नहीं लगता है। तो क्यों न उनकी मेहनत को ही कम कर दिया जाए। यही वजह है कि इन रिक्शों को बनाया गया। ये रिक्शे बिना पैडल मारे चलते हैं। इनमें सवारी के साथ रिक्शा चालक भी धूप और पानी से एक छत के ज़रिए बच जाता हैं। रिक्शे में इन्डीकेटर से लेकर हॉर्न तक सब कुछ हैं। ये है आज के रिक्शे। इसे चलानेवाले एक रिक्शाचालक ने हमें बताया कि वो पहले सामान्य रिक्शों चलाता था। लेकिन, जब से इसे चलाना शुरु कर दिया वो अब उसे नहीं चला पाता है। ये रिक्शा न सिर्फ़ सवारी को शान की सवारी देता हैं बल्कि ये हमारे समाज के उस तबके के बारे में सोचता है जो ज़िंदा भी ये ना नहीं इसकी किसी को फ़िक्र नहीं।

Monday, October 4, 2010

लेडीज़ ओनली...

सुरक्षा की भावना इंसान में एक अलग तरह की ऊर्जा का संचार कर देती है। आज़ादी के सही मायने शायद तब ही समझ में आते है जब हमें उस आज़ादी में इस बात की ग्यारंटी मिल जाए कि हम सुरक्षित हैं। आज सुबह जब रूम से ऑफिस जाने के लिए निकली तो मैट्रो की भीड़ और परेशानी से मन परेशान नहीं था। दो अक्टूबर से दिल्ली मैट्रो में पूरी एक बोगी महिलाओं के आरक्षित की गई हैं। फिलहाल ये ट्रायल है। महिलाओं की बोगी में पुरुष न चढ़ पाए इसके पूरे इंतज़ाम भी है। बोगी में भीड़ इतनी ही थी जिसमें आप आसानी से खड़े हो सकें। अगर भीड़ बढ़ी भी तो इस बात को लेकर मैं निश्चिंत हूं कि इस भीड़ में भी मुझे जो धक्का लग रहा है वो जानबूझकर मारा गया या फिर कोई भीड़ में मजे लेने के लिए मेरे पास नहीं खड़ा हुआ हैं। हालांकि, मैट्रो में ये भीड़ कुछेक समय पहले सी ही बढ़ी हैं। और आज तक मैट्रो में इस तरह की घटना की कोई ख़बर भी नहीं आई हैं। फिर भी मैट्रो की ओर से भीड़ में महिलाओं को सुरक्षित करने के लिए शुरु की गई ये पहल स्वागत योग्य है। इस अलग बोगी के होने से केवल मेरे लिए भीड़ का डर तो खत्म हुआ ही है लेकिन, जो सबसे बड़ी बात है वो है सुरक्षा की भावना। सोचिए कैसी विडम्बना है कि जिस समाज में हम महिला पुरुष मिलकर रहते हैं उसी समाज में हम पुरुषों से अलग होकर सुरक्षित महसूस करती हैं। हमारे घर में, ऑफिस में, स्कूल में, कॉलेज में हर जगह पुरुष मौजूद हैं। हम उनके साथ पढ़ते हैं, काम करते हैं, जीवन के दुख से लेकर खुशी तक के लम्हों को साझा करते हैं। फिर भी हम उन्हीं के बीच कई बार असुरक्षित महसूस करते हैं। उम्मीद है कि हमारी आनेवाली पीढ़ी में महिलाओं के लिए कही से अलग कोई बोगी न हो। आनेवाली पीढ़ी की शिक्षा ही ऐसी हो कि पुरुष महिला को और महिला पुरुष को हौव्वा न समझकर अपना साथी समझे। उम्मीद है, आनेवाले समय में महिलाओं के लिए अलग बोगी न हो, एक ही साझा बोगी में महिलाएं सुरक्षित महसूस करें...

Thursday, September 23, 2010

टीवी डराता है...

टीवी कल तक सिर में दर्द पैदा करता था। लेकिन, अब वो डराने लगा है। यहां डर भूत-प्रेत का नहीं हैं या फिर किसी भयावह परिस्थिति का नहीं है। यहां डर सामाजिक है। कल एक नया सीरियल देखा। एक बौनी लड़की की परेशानियों से जुड़ा हुआ। वैसे तो लड़कियों को कई तरह की परेशानियां होती हैं लेकिन, टीवी की लड़कियों को केवल शादी की। जब तक कुंवारी है शादी होने की और जब हो जाएं तो घर और पति को खुश रखने की। किसी भी मुद्दे पर आप सीरियल को शुरु किजिए उसका अंतहीन कॉन्सेप्ट ले दे के लड़की की शादी और परिवार पर ही आकर रुक जाएगा। खैर, इस सीरियल में तो पहले ही एपिसोड से मुद्दा लड़की के लिए लड़का ढ़ूंढना है। एक सीरियल में लड़की का चेहरा जला हुआ है सो उसकी शादी में समस्या, एक में वो देवी का रूप है सो शादी की समस्या, एक में कही किसी जगह कोई सफेद दाग है सो शादी की समस्या। लड़कियां अलग-अलग, परेशानियां अलग-अलग, पृष्ठभूमि अलग-अलग, लेकिन समस्या एक ही - शादी। लड़कियों की हरेक समस्या का समाधान जैसे कि शादी में ही छिपा हुआ हैं। इनमें से किसी भी सीरियल में ये नहीं दिखाया जाता है कि लड़की करियर बनाना चाहती है या फिर अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक़ जीना चाहती हैं। यहां तो लड़की के बीस या इक्कीस के होते ही माँ बाप की रातों की नींद उड़ जाती हैं। लड़की में कोई कमी हो तो और भी ज़्यादा। मुझे तो कई बार अपने ही मम्मी पापा से पूछने का मन होता है कि- आपकी बेटी तो टीवी के मुताबिक़ बहुत बड़ी हो गई है और आप है कि आराम से सोते हैं। खैर, टीवी पर कुछेक सीरियल बीच में आते हैं जोकि इस डकियानूसी लीग से हटकर होते हैं। लेकिन, वो जल्द ही या तो बंद हो जाते हैं या फिर अपना ट्रैक बदल लेते हैं। सुन्दरता को अभिशाप के रुप में पेश करनेवाले एक सीरियल का यही हाल होते मैं देख रही हूँ। सच कहूँ तो हरेक सीरियल देखकर मैं रोज़ाना किसी न किसी बात पर डर जाती हूँ। कभी अपनी लंबाई नापने लगती हूँ, तो कभी आंखें चैक करती हूँ, तो कभी कुछ और। हालांकि एक सीरियल में लड़के की कमजोरी को भी दिखाया जा रहा है लेकिन, उस कमज़ोरी के चलते न उसको और न ही उसके घरवालों को परेशान या फिर लड़की के माता-पिता की तरह झुकते हुए दिखाया गया हैं। उसके पलट वहाँ भी एक दूसरी कमज़ोरी से जूझ रही लड़की को ही लोगों के तानों और परेशानी का शिकार बताया गया हैं। सच में टीवी के ये सीरियल और उसमें नज़र आनेवाली लड़कियाँ और उनके माता-पिता मुझमें एक डर पैदा करने लगे है...

Wednesday, September 22, 2010

कृप्या यहां न थूके...

मैं राजीव चौक मैट्रो स्टेशन पर ट्रेन के इंतज़ार में खड़ी हुई थी। मेरी साथवाली लाइन में एक अंकल खड़े हुए थे। उन्होंने एक बार इधर देखा फिर उधर देखा। जेब से गुटखे का पाऊच निकाला और धीरे से उसे फाड़ा। मुंह में गुटखा डाला और धीरे से खाली पाऊच वही फेंक दिया। इसके बाद नासमझी का कुछ ऐसा अभिनय शुरु किया कि अच्छे-अच्छे अनके सामने पानी भरे। मैं उनके पास गई उस पाऊच को उठाया और उन अंकल से मैंने कहा कि आपकी ओर से मैं इसे कचरे के डिब्बे में फेंक दूंगी। उन्होंने कुछ नहीं कहा। मैंने भी उसे जेब में रख लिया और वापस लाइन में लग गई। मेरा ऐसा करना कोई नई बात नहीं है। लेकिन, बस मुझे खुद पर अफसोस हुआ कि मैं क्यों मैट्रो को सभ्यता से जोड़कर देखने लगी थी। मैं ये सोचती थी कि इस तरह की विश्वस्तरीय सवारी में लोग उसकी और अपनी इज़्ज़त के लिए ही सही इसे साफ रखेंगे। मैट्रो में दिन रात सफाई करते कर्मचारियों को देखकर ही सही लेकिन, कचरा नहीं फैलाएगे। लेकिन मैं ग़लत थी...
मेरी मम्मी से अगर मुझे कुछ विरासत में मिला है तो वो है सफाई करने की आदत। मेरी मम्मी हद से ज़्यादा सफाई पसंद है। हमेशा उन्हें घर की सफाई की चिंता रहती हैं। बिना किसी और बात या सेहत की चिंता किए वो साफ सफाई में जुटी रहती हैं। मैं भी ऐसी हूँ ये बात मुझे तब समझ में आई जब मैं उनसे अलग होकर रहने लगी। दिल्ली में अकेली रहने के बाद मुझे ये समझ में आया कि मैं तो सफाई के बारे में सामान्य से ज़्यादा सोचती हूँ। खैर, मैं मम्मी जैसी होते हुए भी कुछ अलग हूँ। मेरी मम्मी घर की सफाई के लिए चिंतित ज़रूर रहती हैं लेकिन, घर के बाहर खासकर सार्वजनिक स्थलों की सफाई को लेकर उन्हें कोई चिंता नहीं हैं। वो कचरा नहीं फैलाती लेकिन, दूसरों के फैलाने पर उनसे लड़ती भी नहीं हैं। मैं इस मामले में कुछ संवेदनशील हूँ। जब भी किसी को ऐसी जगहों पर कचरा फैलाते देखती हूँ तो कुछ न कुछ बोल ही देती हूँ। अगर बोलने की परिस्थिति न हो तो मन मसोसकर रह जाती हूँ। नहीं तो वही करती हूँ जिसका मैंने शुरुआत में ज़िक्र किया। मेरे कई दोस्त मुझे चलता फिरता कचरे का डिब्बा बोलते है। मैं हमेशा से ही इस्तेमाल के बाद कचरे को डिब्बा न दिखाई देने पर बैग में भर लेती हूँ। दोस्तों को भी फेंकने नहीं देती हूँ, अगर फेंक भी दिया तो उठा लेती हूँ और अपने पास रख लेती हूं। कइयों के लिए मैं मज़ाक का विषय हूँ लेकिन, मुझे इस बात का अफसोस नहीं...

Friday, September 17, 2010

सुगंध के साथ शरीर की बिक्री...

कुछ साल पहले एक विज्ञापन टीवी पर आया करता था। विज्ञापन में एक लड़का बांसुरी बजाकर शहर के सारे चूहों को समुद्र में बहा आता है। इस काम के पैसे ना मिलने पर वो बांसुरी छोड़ एक डियोड्रन्ट लगाता है जिसकी खूशबु के पीछे सारी लड़कियां चल पड़ती है। विज्ञापन विदेशी कंपनी का था और उसमें कलाकार भी सारे विदेशी ही थे। वो उस कंपनी का भारत में ऐसा पहला विज्ञापन था। विज्ञापन पर सभी की नज़रें पड़ी और सभी को बेहद बोल्ड लगा। युवाओं के मन में इस विज्ञापन ने अप्रत्यक्ष रूप से एक कामना भी जगाई। खैर, इसके बाद से लेकर अब तक ऐसे डियोड्रन्ट के कई विज्ञापन टीवी पर आने लगे हैं। शुरुआत जिस अप्रत्यक्ष रूप से हुई थी वो आज प्रत्यक्ष हो चुकी हैं। एक महिला का अपनी ही सुहागरात के दिन किसी ओर पुरुष पर आसक्त हो जाना केवल गंध के पीछे, या फिर एक माँ का बच्चों के साथ खेलते-खेलते एक नौजवान के कमरे में घुसकर कुंडी लगा लेना वो भी केवल उस गंध के चलते और भी कई ऐसे ही विज्ञापन आजकल टीवी पर हरेक ब्रेक में आप देख सकते हैं। ऐसे विज्ञापन उस उत्पाद के लिए किसी तरह की कामना जगाते हैं इस बात से बड़ी बात है, उस विज्ञापन में जागनेवाली कामनाएं। केवल एक गंध के पीछे क्या इंसान का मन और दिमाग इस तरह से घूम सकता है कि वो ये ही भूल जाए कि उसकी इच्छा और सच्चाई क्या है। ऐसे विज्ञापनों में शारीरिक आकर्षण को इस हद तक लेकर जाया जाता है कि उसके आगे पूरी दुनिया सामनेवाले को छोटी लगे। उत्तेजना को बढ़ानेवाले उत्पादों के विज्ञापन हमेशा से ही टीवी पर आते है और आज के वक़्त में बहुत खुलकर भी आते हैं लेकिन, उसके साथ ये बात सर्वविदित है कि वो इसी काम के लिए हैं। लेकिन, एक डियोड्रन्ट को उत्तेजना से जोड़ना और इस हद तक जोड़ना उत्पाद को बेचने के लिए इस्तेमाल की गई एक बेहुदी सोच लगती है। ऐसे उत्पाद विशुद्ध रुप से शरीर की दुर्गन्ध को छुपाने के लिए होते हैं। माना कि शरीर की एक विशेष गंध आकर्षित करती है लेकिन, वो गंध शरीर की होती है नहीं ऐसे उत्पादों की। ऐसे में केवल उत्पाद को बेचने के लिए शरीर की गंध को बेचने और इस तरह से मानवीय संबंधों और भावनाओं को भुनाने की सोच खतरनाक हैं। शायद विज्ञापन को बनानेवाले इस बात से अपना मुंह मोड़ लेना चाहते है कि वो एक समाज में रहते है। उससे भी बड़ी बात एक ऐसे समाज में जहाँ बड़े हो रहे बच्चों को उनके बड़े शरीर में आते बदलावों और सेक्स जैसी बातों के बारे में कोई जानकारी नहीं देते हैं। ऐसे में वो इन विज्ञापनों से क्या सीख लेंगे शायद उन्हें इससे मतलब नहीं।

Friday, September 10, 2010

10 मिनिट में 100 खबरें...

रोज़ाना कम से कम तीन से चार बार परिचितों के फोन केवल दिल्ली में बाढ़ की स्थिति पूछने के लिए आते हैं। मैं ये बताते-बताते थक जाती हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं है। दिल्ली में बाढ़ नहीं आई है। हाँ कुछेक यमुना के पास बसे निचले इलाकों में पानी भर गया है। लेकिन, किसी को मेरी बात पर यकीन नहीं होता हैं। हरेक को लगता है कि मैं झूठ ही बोल रही हूँ। आज सुबह ही फोन पर मुझसे ये पूछा गया कि इंडिया गेट तक सुना है पानी आ गया है....
ग़लती इसमें दिल्ली से दूर दूसरे शहरों में रहनेवाले लोगों की नहीं बल्कि खबरिया चैनलों की है। दनादन खबरें दिखाते ये चैनल जोकि हमें खबरें ठूंसाते है आजकल नाव में बैठकर बुलेटिन पढ़ रहे हैं। खबर देखने के लालच में कल जब टीवी ऑन किया तो एक खबरिया चैनल पर एंकर क्रोमा की नाव में बैठी थी तो दूसरे में असल की नाव में। पूर्वी दिल्ली के डूबने की खबरें में पूर्वी दिल्ली के निचले इलाके में बने अपने रूम पर बैठकर ही सुन रही थी। अचानक से कही से रिपोर्टर आ जाता है और चिल्लाने लगता है कि देखिए मेरे पीछे का नज़ारा कैसे सब कुछ डूब चुका हैं। अब बारिश के दिनों में कौन सी ऐसी नदी होती होगी जिसके किनारे पर पानी ना आ जाता हो। लेकिन, हमारे चैनलों पर आजकल खबर दिखाने का चलन कुछ कम हो चला हैं। अब तो डराने का मौसम आ गया है। बारिश से डराओ, तूफान से डराओ, तहखाने की मौत से डराओ, डराओ, डराओ और बस डराओ। डराने के साथ-साथ इन चैनलों पर दूसरी जो चीज़ आपको मिल जाएगी वो है उधार का मनोरंजन। अगर आपको कोई भी कामेडी शो मिस हो गया हो घबराईए मत आपको प्राइम टाइम पर कॉमेडी से लेकर खतरों के खिलाड़ी और यू ट्यूब के विडियो सब कुछ मिल जाएगे। खबरें भी मिलेगी, लेकिन उसके लिए आपको लगातार देखते रहना पड़ेगा पता नहीं कब अचानक 10 मिनिट में 100 खबरें खत्म हो जाए और फिर आपको खबरिया चैनल पर खबरें देखने के लिए दो यै तीन घंटे का लंबा इतंज़ार करना पड़े...

Monday, August 23, 2010

मम्मी के साथ मत देखना

शनिवार को टीवी पर एक नया शो देखा। नाम है - मीठी छुरी... कुछ टीवी की अभिनेत्रियां बैठी थी और दो पुरुष एंकर उनसे बातें कर रहे थे। शो की टैग लाइन है मम्मी के साथ मत देखना। मम्मी साथ रहती नहीं सो सोचा कि इसे भी देख लिया जाए। ये सभी महिलाएं यहां एक दूसरे का मज़ाक उड़ा रही थी। बीच-बीच में अपना भी। थोड़ी-थोड़ी देर में सौ पुरुषों से उनके बारे में राय भी ली जा रही थी। संक्षिप्त में कहा जाए तो एक महिलाओं की किटी पार्टी को दो पुरुष मिलकर होस्ट कर रहे थे और उसका प्रसारण टीवी पर हो रहा था। शो में होनेवाली बातें कुछ नई थी। कम से कम मेरे लिए जोकि एम टीवी रोडी और स्प्लिट्सविला और न जाने क्या-क्या देख चुकी हूँ। खैर, इसमें जो बात मुझे पते की लगी वो थी इन कलाकारों की इमेज। मुझे ये जानकर आश्चर्य हुआ कि उतरन में तपस्या कि माँ का किरदार निभा रही अभिनेत्री कुंवारी है। अगर मुझसे ही पूछा जाता तो मुझे लगता कि ये तो दो बच्चों की माँ होगी। लेकिन, वो तो कुंवारी है और खूब पार्टी करती हैं। ऐसी ही कई बातें कइयों के बारे में मालूम चली। यही वजह है कि सौ पुरुषों की महिलाओं के बारे में राय एकदम ग़लत साबित हो रही थी। दरअसल हम जो टीवी पर देखते हैं उसकी छाप हमारे मन पर इतनी गहरी होती है कि हम असलियत उसी को मान लेते हैं। इस शो को देखने के बाद कुछ नया नहीं लगा। आज के समय में हरेक इंसान ऐसा ही हैं कुछ खुलकर तो कुछ दबकर। लेकिन, एक बात तो है टीवी का हमारे मन पर असर आज भी उतना है जितना कि रामायण के वक़्त था। पहले लोग अरुण गोविल के पैर छूते थे और ये मानते हैं कि सुगना या गहना मिनी नहीं पहन सकती। कुछ को ये शो सामाजिक पतन लगे लेकिन, मुझे तो एक मौक़ा लगा टीवी के कलाकारों को जानने का...

Wednesday, August 18, 2010

आज़ादी की पतंग...

कुछ दिन पहले मुझे आज़ादी की एक नई कहानी पर काम करने का मौक़ा मिला। मुझ से पूछा गया कि आपको आज के वक़्त में आज़ादी से जुड़ी हुई क्या बात या काम अलग लगता है। मुझे याद आई आज़ादी के दिन दिल्ली के आसमान में उड़ती पतंग। मेरी लिए ये एकदम अलग और अनोखी बात थी। मैंने कही भी 15 अगस्त के दिन पतंग उड़ाते किसी को नहीं देखा था। मैंने इसी विषय को अपनी स्टोरी के लिए चुना और पहुंची कुछ ऐसे लोगों के पास जिनके लिए इस दिन पतंग उड़ाने का अर्थ है आज़ादी मनाना। इनका मानना है कि पतंग जिस आज़ादी से हवा में लहराती है वैसे भी हरेक मन हवा में उड़ना और हरेक बंधन से आज़ाद होना चाहता हैं। इसके बाद हम पहुंचे पुरानी दिल्ली के लालकुंआ इलाक़े में। वहां बिकती है ये पतंग। पूरी दिल्ली में यही से पतंग जाती हैं। ये पतंग का थोक बाज़ार हैं। यहां आकर और लोगों से मिलकर मालूम चलाकि कितना बड़ा हैं पतंग का व्यवसाय। इसी विषय पर बनी मेरी रिपोर्ट लोकसभा टीवी के विशेष कार्यक्रम आजादी की नई कहानी में चली हैं। अगर आप इसे देखेंगे तो अच्छा लगेगा।
लिकं है -
http://www.youtube.com/watch?v=9ADJS_RBfuk

Friday, July 30, 2010

चाबी से चलनेवाला गुड्डा

हमारे समाज में प्रतिष्ठा किसी भी दूसरी वस्तु या इंसान से बड़ी है। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है प्रतिष्ठा के नाम पर होनेवाली हत्याएं। हालांकि अब इस पर लगाम लगाने के लिए सरकार क़ानून बनाने के बारे में सोच रही है। इससे इतर समाज का एक तबका इससे निपटने के लिए कमांडो का गठन कर चुका है। नाम है- लव कमांडो। जी हाँ, लव कमांडो के नाम से शुरु हुई इस फोर्स में वकील से लेकर डॉक्टर तक हरेक तबके लोग शामिल है। ये वो लोग है जोकि समाज में हो रही ऐसी हत्याओं को रोकना चाहते हैं। जोकि एक ऐसे समाज कि स्थापना करना चाहते हैं जहाँ कोई जातिगत बंधन ना हो। इस कमांडो ने अब तक कई शादियां करवाई हैं, कइयों की जान बचाई है। इसी मुद्दे पर पिछले हफ्ते मैंने एक रिपोर्ट तैयार की। रिपोर्ट किसी एक कमांडो या फिर केवल ऑनर कीलिंग से कुछ आगे थी। मुद्दा था- एक ऐसा समाज जहाँ एक इंसान आज़ादी से जी सकें। जहां किसी भी बात पर खौफ इतना ना बढ़ जाए कि मरना या मारना ही अंतिम रास्ता रह जाए। दरअसल जब शूटिंग की शुरुआत की थी तो दिमाग में केवल ऑनर कीलिंग के नाम पर हो रही युवाओं की मौत और लव कमांडो जैसी संस्थाएं ही दिमाग में थी। लेकिन, एक दिन शूट के दौरान महिला आयोग के सामने एक ऐसे जोड़े से मुलाक़ात हुई जोकि घरवालों से छुपकर भाग रहा था। उनकी गलती उनका प्यार था। बातों बातों में ही उन्होंने बताया कि वो एक ही जाति के हैं और दोनों के गोत्र भी अलग है। मैं चौंक गई। मुझे लगाकि ये तो समाज के नियमों के एकदम अनूकुल है फिर क्या परेशानी। तो मालूम हुआ कि माँ बाप को बस इस बात पर एतराज़ है कि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से शादी क्यों की। मेरा दिमाग चकरा गया। अब तक समाज के नाम पर होनेवाली गुन्डागर्दी का ये एक नया कोण था। कही ये तो नहीं कि समाज के नाम पर लोग केवल अपनी मर्ज़ी को चलाना चाहते हैं। वो अपने बच्चों को अपनी जमा की गई उस पूंजी के बराबर मानते हैं जोकि निर्जीव होती हैं। जिसके पास खुद का दिमाग या उससे बढ़कर एक दिल नहीं होता है। शायद आज ज़रूरत एक जातिविहीन समाज से बढ़कर कुछ ऐसे माता-पिता और बुज़ुर्गों की हैं जोकि युवाओं को इंसान समझकर उन्हें सही गलत समझाए लेकिन, उन पर अपनी समझ ना थोपे। एक बच्चे को पालनेवाला, उसे सिखानेवाला, उसे समझानेवाला हरेक बात का अर्थ और हिदायत देनेवाला एक बड़ा ही होता है। ऐसे में जब बुज़ुर्ग खुद ही एक बच्चे को परिपक्व और समझदार होने में मदद करते हैं तो फिर क्यों उसकी ही सोच को एक दिन वो नकार देते हैं। शायद वो उस बच्चे को हाड़ मांस का न मानते हुए चाबी से चलनेवाला गुड्डा समझ लेते हैं जोकि उतना ही चलेगा जितनी हम चाबी भरेंगे।

अंत में- आज ही टीवी पर एक नई फिल्म आक्रोश का पहला प्रोमो देखा। मुद्दा यही है। प्रोमो एक बेहतर फिल्म के साथ एक बेहतर सामाजिक शोध की उम्मीद जागानेवाला हैं...

Tuesday, July 20, 2010

मानसिक तनाव

आज ऑफिस से आते वक़्त मैट्रो से बाहर निकलकर जब मैं फुट ओवर ब्रिज पर चढ़ी तो एक अडीब घटना हुई। दरअसल सभी लोग ब्रिज के एक कोने से चलकर जा रहे थे। बाजू की पूरी जगह खाली थी। सभी एक लाइन से एक पीछे एक चले जा रहे थे। मैं भी उनके पीछे चल दी। थोड़ी देर के बाद मुझे लगाकि मैं इनके पीछे क्यों चल रही हूँ... तब अचानक से मुझे लगाकि आज हम सभी भाग रहे हैं। क्यों भाग रहे हैं ये कोई नहीं जानता है। हम सिर को झुकाए एक दूसरे के पीछे बस एक अंधी दौड़ में चल रहे हैं। इस दौड़ में शामिल होकर कई बार हम एक ऐसे तनाव में घिर जाते हैं कि हम जानते ही नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं। मेरे एक पहचान के या फिर ये कहूँ कि मित्र के साथ भी यही हो रहा है। वो पूरी तरह से इस अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं। कभी उनके माता-पिता उन्हें इसमें झोंक देते हैं तो कभी जाने अंजाने उनके दोस्त उन्हें इसमें डाल देते हैं। वो खुद क्या चाहते हैं वो नहीं जानते हैं। इसी दौड़ में वो अपने आपको बहुत पहले ही खत्म कर चुके हैं। और, आज हालात ऐसे है कि वो इस दौड़ में दौड़ते हुए इसने थक गए है कि अपनी इस थकान को निकालने के लिए आसरा खोजते रहते हैं। पहले तो लोग सहारा दे देते थे लेकिन, अब सब किनारा करने लगे हैं। दरअसल जो भी उन्हें सहारा दे रहे थे वो भी तो भाग ही रहे हैं। वो कब तक और कहाँ तक किसी और को सहारा देंगे। सहारों के साथ जीनेवाले और अकेले कुछ न कर पानेवाले इस सज्जन के हालात अब कुछ ऐसे है कि उनका फ्रस्टेशन का स्तर खतरे के निशान को पार कर चुका है और अब ज़रा सी भी बात या फटकार या समझाइश पर ये कुछ ऐसे बौखलाते कि जैसे पागल कुत्ते की दुम पर किसी ने पैर रख दिया हो। ऐसे में बौखलाए, बड़बड़ाते और बदतमीज़ी करते इंसान को कुछ कहने का मन भी नहीं करता...

Tuesday, July 13, 2010

शहरी गाय

घर में जब भी खाना बनता है एक हिस्सा गाय और एक हिस्सा कुत्ते का ज़रूर निकलता हैं। अगर श्राद्ध का समय है तो कौवे के लिए भी। बचपन से ही घर के सामने टहल रही गाय को आजा-आजा गाय-गाय करके रोका है और डर-डरकर रोटी खिलाई हैं। एक बार ऐसी दौड़ लगाई थी कि पैर का नाखून ही टूट गया था। खैर, ये बातें किसी महानगर की नहीं है बल्कि छोटे शहरों की है। दिल्ली में तो गाय के दर्शन ही दुर्लभ है। और, किसी पालतू के पास तक आप पहुंच भी जाए तो उसका मालिक यूं घूर के देखता हैं जैसे रोटी ना कोई जहर हो आपके हाथ में जो आप गाय को खिला रहे हैं। दिल्ली आने के कुछ ही दिनों बाद मम्मी ने कहा था कि हर सोमवार को मंदिर में दिया लगाना और मंगलवार को गाय को रोटी खिलाना। न तो मैं मंदिर जा पाती थी और न ही मुझे मंगलवार को गाय मिल पाती थी। ऑफिस के आने के बाद गाय को ढ़ूढने में हालत खराब हो जाती थी। मम्मी के कई अजीब और छोटे शहरों की सोचवाले सुझावों के बाद अंततः मैंने ये काम बंद कर दिया। शहर में यूं ही कही कोई गाय किसी कचरे के डब्बे के पास खड़ी मिल जाती है। उसके मुंह में कचरा भरा होता हैं। ऐसे में जहां मेरे जैसे लोग चाहकर भी गाय को रोटी नहीं खिला पाते हैं ऐसे में गाय को कचरा खाते देख दुख होता था। इस सबके बीच मुझे गौ-ग्रास सेवा के बारे में पता चला। ये दिल्ली के कुछ इलाकों में चल रही है। इसमें कुछ साइकलों पर टीन के डब्बे लिए लोग सुबह-सुबह कॉलोनी की गलियों में घूमते हैं। घंटी बजाते हैं और लोग अपनी घर का बासी बचा खाना इन डब्बों में डाल जाते हैं। ये खाना लगभग तीन-चार घंटे तक इकठ्ठा किया जाता हैं इसके बाद इस खाने को दिल्ली की किसी भी गौ शाला में भेज दिया जाता हैं। ऐसा करने के पीछे वजह है गायों का सड़क के किनारे रखे कचरे डब्बों से खाना नहीं खाना। दिल्ली में अधिकतर गौ शाला वाले अपनी गायों को यूं ही सड़क पर छोड़ जाते हैं और कचरा खानेवाली इन्हीं गायों से निकला दूध फिर लोग पीते हैं। ऐसे में इस दूध की पौष्टिकता का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं। ऐसे में इस सेवा के ज़रिए दिल्ली के कुछ मुठ्ठीभर इलाकों में ही सही लेकिन, कुछ जगह तो कम से कम गायों को कुछ ढ़ंग का खाना नसीब हो रहा हैं।

Monday, June 14, 2010

टोटल रीकॉल

छुट्टी के दिन वैसे तो कई काम होते हैं लेकिन, कई बार ऐसा भी लगता है कि कोई काम ही नहीं है। ऐसे में साथ देता हैं टीवी। आज हमारे सामने इतने सारे चैनल के ऑप्शन है कि ये समझ ही नहीं आता हैं कि क्या देखे और क्या न देखे। ऐसे में मेरा हाथ लगातार रिमोट के बटनों में घुमता रहता है। लेकिन, कल मेरा हाथ रुक गया। टाइम्स नॉओ पर टोटल रीकॉल आ रहा था। उत्पल दत्त के बारे में। उनकी की गई फ़िल्में, उनके निभाए किरदार और उनकी ज़िंदगी के कई अनछुए पहलू। एक बार देखना शुरु किया तो उसके खत्म होने तक वही लगा रहा। यहां तक कि ब्रेक में भी चैनल नहीं बदला। ऐसा कई सालों बाद मैंने किया होगा। हालांकि नीचे चल रहे ढ़ेरों स्क्रोल और अजीब सी विंडों में बहुत भरा भरा परेशान कर रहा था फिर भी मैंने उसे पूरा देखा। कारण सिर्फ़ इतना कि कार्यक्रम का कन्टेन्ट बहुत बेहतरीन था। अफसोस की हिन्दी में ऐसे कार्यक्रम मुझे आजकल नज़र नहीं आते। इस कार्यक्रम को मैं पहले भी देखती थी और मुझे ये हमेशा से ही अच्छा लगता हैं। लेख का मक़सद बस इतना कि अगर आपने आजतक नहीं देखा तो एक बार ज़रूर देखे।

Thursday, May 6, 2010

मिस्टर एण्ड मिसेस शर्मा इलाहबादवाले

सब टीवी वैसे तो सबका प्रिय चैनल बन चुका हैं। ख़ासकर मेरी तरह रहनेवाले अकेले रहनेवाले लोगों का। दिनभर की थकान के बाद टीवी पर भी किसी तरह की लड़ाई देखने का मन मेरा तो नहीं होता हैं। ऐसे में लापतागंज से लेकर सजन रे झूठ मत बोलो ये सारे कार्यक्रम मैं देखती हूँ। लेकिन, आजकल इंतज़ार है एक नए धारावाहिक का। मिस्टर एण्ड मिसेस शर्मा इलाहबादवाले। धारावाहिक का नाम और राजेश जैसे हास्य में पारंगत कलाकार को देखने से तो यही लग रहा हैं कि ये एक बेहतरीन धारावाहिक होगा। छोटे से शहर से मुबंई आए इस आत्ममुग्ध जोड़े के किस्सों का इंतज़ार है...

Monday, May 3, 2010

आखिर हम हैं कैसे...

हम रोज़ाना कुछ न कुछ नया सीखते हैं। घर में रहते हुए भी और घर से निकलकर भी। ख़ासकर अगर हम अकेले किसी सफ़र पर हो। ऐसे समय में हम इतने अकेले होते हैं कि चुपचाप दूसरों को देखते रहते हैं और उनकी हरक़तों को पढ़ते रहते हैं। आज भी ऐसा ही हुआ। मैट्रो के सफ़र के दौरान दो बार मुझे ऐसे बुज़ुर्ग दिखे जो टीनएजर बच्चों को बातें सिखाने की कोशिश कर रहे थे। बुज़ुर्ग पूरे मन से बच्चों को नसीहतें दे रहे थे कि पहले उतरनेवालों को जगह दो, मैट्रो में मस्ती मत करो और भी बहुत कुछ। वही दूसरी ओर वो युवा उनकी बातें अनमने ढंग से इधर उधर करके सुन रहे थे। बुज़ुर्ग के जाते ही वो पीछे से बोलते हैं क्या यार बकवास करते रहते हैं। दरअसल में हम जब बड़े हो रहे होते हैं तो हमें बड़ों की नसीहतें बहुत भारी और झिलाऊ लगती हैं। हम पहले तो उन्हें सुनना नहीं चाहते और सुन भी लेते हैं तो उसे मानने से कतराते हैं। वही जब हम बड़े हो जाते हैं तो अपनी ही इस बात को भूलकर सलाहें देना शुरु कर देते हैं। मैं न तो टीनएजर हूँ और नहीं इतनी बड़ी कि मेरे कोई बहुत बड़े अनुभव हो। मैं कही बीच में लटकी हुई हूँ। युवाओं की उस चीढ़ को भी समझती हूँ और बुज़ुर्गों की उस सलाह के मायने को भी। लेकिन, फिर भी मैं तब से यही सोच रही हूँ कि आखिर हम हैं कैसे...

Tuesday, April 27, 2010

रूम पर आए नए मेहमान...


मेरे दिल्ली के तीसरी मंज़िल पर तपते हुए कमरे में आजकल कुछ नए मेहमान आने लगे हैं। साल 2006 में दिल्ली आने के बाद शहर को समझने और कुछ संभलने के बाद उसके अगले ही साल से मैंने अपने रूम के आगे एक मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर रखने लगी थी। कुछ दिनों बाद गर्मियों के दिनों में पानी के साथ ही बाजरा भी डालने लगी। सुबह जब ऑफिस के लिए निकलती तो इस उम्मीद के साथ कि आज शआम को कुछ दाने कम मिलेंगे। लेकिन, हर बार मुझे निराशा हाथ लगती। खैर, पूरे चार साल के बाद कुछ दिन पहले गर्मियों के मौसम को देखते हुए मैंने एक बार फिर उम्मीद के साथ पानी और बाजरा रखना शुरु किया। एक दिन अचानक आवाज़ें सुनाई दी। बाहर आकर देखा तो बाजरे के दानों पर कई अलग-अलग किस्म की चिड़िया झूम रही थी। पानी भी पी रही थी कुछ। सच में इतनी खुशी मुझे शायद ही कभी हुई हो। आजकल तो हालात कुछ ऐसे हैं कि अगर सुबह-सुबह पानी और बाजरा नहीं रखा तो उनका चिल्ला शुरु हो जाता हैं। सच कहूँ तो केवल इन मेहमानों के समय रहते सत्कार करने के चक्कर में मैं समय पर उठ जाती हूँ। खुश भी रहती हूँ कि कोई तो है दोस्त जो मेरे घर नियम बांधकर आते हैं और मुझे अपने मासूम से मतलब के लिए ही सही डांटता भी हैं।

Tuesday, April 13, 2010

उम्मीद की गठरी...

पंकज रामेन्दू

उम्मीद की गठरी को जब से उठाया,
तब से मैंने ये पाया कि मैं कायर हो गया
गठरी को सिर पर उठाये में
जिंदगी की पटरी पर फिसलता हूं संभलता हूं
लेकिन बोझ से झुकी हुई मेरी पीठ
अक्सर मेरा मुंह धरती की ओर मोड़ देती है
मैं आसमानी रंग नहीं देख पाता हूं
इस गठरी में सबकी अपनी-अपनी पोटली है..
जिसके बीच मेरे ख्वाबों की पोटली ऐसी है
जैसे रेहड़ी पर बिकते हुए सस्ते कपड़े
जिनमें अपने पसंद का कपड़ा निकालने में कई बार उम्र गुज़र जाती है.
फिर भी मैं लगा हुआ हूं,
डरते हुए, सहमते ,हुए
शायद मुझे वो कपड़ा मिलेगाजो मेरे पसंद को होगा
मरे नाप का होगा

Monday, March 22, 2010

बेचारे पुरुष...

महिलाओं को समाज में समान दर्जा दिलवाने के लिए कई लोग कई तरह से लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं। और, ये बात सच भी है कि इसके लिए उन्हें बहुत लंबा संघर्ष करना पड़ रहा हैं। दिल्ली को यूँ तो महिलाओं के लिए सुरक्षित कतई नहीं माना जा सकता है फिर भी दिल्ली की मैट्रो में हालात कुछ बेहतर हैं। या फिर ऐसा कहे कि पुरुषों को यहाँ मैंने कभी-कभी डरते भी देखा हैं। दरअसल, हर दूसरे दिन मुझे ये महसूस होता है कि मुझे देखकर सीट पर बैठा पुरुष कुछ अनमना-सा होने लगता हैं। इधर-उधर देखने लगता हैं। असल में मैट्रो में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों से साथ ही कुछ सीटें ऐसी होती हैं जिन पर लिखा होता हैं कि ज़रूरतमंद को सीट दे। ये वाक्य ऐसा है कि पढ़कर लगता हैं हो गई ये भी महिलाओं के लिए। ऐसे में सीट पर बैठे पुरुष के आगे जैसे ही महिला आकर खड़ी हुई वो पहले पीछे मुड़कर सीट की ओर देखने लगता हैं। अगर पीछे वो पीला परचा चिपका हो तो अचानक पुरुष को नींद आने लगती है। वो आंखें बंद कर लेता हैं। उस समय वो बिल्ली-सा लगता है जोकि दूध पीकर आँखें बंद कर लेती हैं कि अब उसे कोई नहीं देख सकता। सीट अगर पूरी तरह से अनारक्षित हो तब भी मैट्रो में लगातार हो रहा अनाउन्समेंट कि महिलाओं, विकलांगों और वरिष्ठ नागरिकों को सीट दे उनके मन में छूरी की तरह घुपता रहता हैं। पुरुष भीड़ में खड़ी सामान संभाल रही महिलाओं को देखते हैं और मुंह फेर लेते हैं। लेकिन, मुंह फेरने से कान में जा रही आवाज़ आना बंद नहीं होती हैं। बेचारे पुरुष...

Sunday, March 14, 2010

जो दबता है, उसे दबाना बनता है...

आम जनता को सेवाएं देनेवाली कंपनियों के विज्ञापनों को देखकर आपको एक पल के लिए लगेगा कि ये लोग मुनाफ़े का धंधा नहीं बल्कि पुण्य का काम कर रहे हैं। ऐसे ही कई सेवा कंपनियों के विज्ञापन तो ऐसे होते हैं कि बस एक फोन किया आपकी दुनिया बदल गई। लेकिन, जब यही कंपनियाँ असलियत के धरातल पर उतरती हैं तो किसी दैत्य से कम नज़र नहीं आती हैं। एक लोन लेने के लिए पलकें बिछाए और फोन पर फोन घुमानेवाली कंपनियाँ लोन के लिए अर्ज़ी देने पर ऐसा व्यवहार करती हैं कि जैसे उधार दे रही हो। मैं फिलहाल ऐसे ही अनुभव से गुजर रहा हूँ। बड़ी मुश्किल और मशक्कत के बाद मैंने कम्प्यूटर खरीदा है। उसे खरीदे हुए तीन महीने होनेवाले है इंटरनेट कनेक्शन नहीं लगवा पाया हूँ। किसी के दाम ज़्यादा, तो किसी की स्पीड कम, तो किसी का कवरेज नहीं, तो कोई मेरे रहने-खाने से लेकर सोने तक का हिसाब साथ मांगता है। ऐसे में दम साधकर एक कनेक्शन आखिरकार मैंने ले ही लिया। कनेक्शन लिए हुए चार दिन हो गए है और आज तक एक्टिवेशन के नाम पर कुछ नहीं। फोन कर-करके और लड़-लड़कर ऐसी हालत हो गई है कि अगर आज वो कनेक्ट हो भी जाए तो शायद मेरा इस्तेमाल करने का मन ना हो। ऐसे में जब भी उस कंपनी का ग्राहक सेवा से जुड़ा विज्ञापन देखता हूँ तो मन और बिगड़ जाता हैं। लेकिन, फिर लगता है कि कमी ख़ुद में ही है। एक ग्राहक के रूप में हम अपने अधिकारों के बारे न तो कुछ जानते हैं और ना ही जानना चाहते हैं। ग्राहकों के क्या हक़ है, हम क्या-क्या कर सकते हैं इसकी जानकारी हमें ना के बरारबर हैं। ऐसे में अगर हमारे साथ कंपनी इस तरह का बर्ताव करते है तो इसमें ग़लत क्या है। जो दबा है उसे तो हरेक दबाता ही हैं...

Thursday, March 4, 2010

क्या करें क्या ना करें...

प्यार करना बच्चों का खेल नहीं और उससे भी मुश्किल है उस प्यार को ज़िंदगीभर शादी के रूप में निभाना। आज के इस समाज में प्रेम विवाह में जो तेज़ी आई बदलाव तो दर्शाती है साथ ही युवाओं की फैसले लेने की क्षमता भी बताती है। ये बात अलग है कि पिछले पाँच से छः सालों में हुए ये फैसले आनेवाले कुछ दस सालों में बताएंगें कि फैसले सही थे या ग़लत। प्रेम विवाह के लिए असहमति रखनेवाले माता-पिता बच्चों से पल्ला झाड़ लेते हैं लेकिन, इसे स्वीकृति देनेवाले भी आनेवाली परिस्थितियों में बच्चों का साथ ना निभाने की धमकी साथ दे देते हैं। सारांक्ष ये कि प्रेम विवाह ढ़ेढ़ी खीर हैं। लेकिन, पिछले कुछ दिनों से आसपास के अनुभवों को सुनकर लगता है कि अरेन्ज शादियाँ इनसे भी मुश्किल हैं। मेरी दोस्त की शादी कुछ महीनों बाद है वो प्रेम विवाह कर रही है। उसकी बड़ी बहन की शादी अभी नहीं हुई है वजह ये कि उसके माता-पिता बहन के मुताबिक़ लड़का नहीं खोज पा रहे हैं। मेरे बड़े भाई के लिए लड़की खोजना भी हमारे लिए मुश्किल का काम बनाता जा रहा है। इतनी सारी बातों का ध्यान रखना, हर कसौटी पर लड़का और लड़की को परखना कोई आसान काम नहीं। कल मेरी दोस्त का फोन आया उसे देखने एक लड़का आनेवाला है। वो लड़के से माता-पिता की इजाज़त से फोन पर बात कर चुकी है। लड़का उसे अच्छा और समझदार लगा। इसी बीच उसके पिता उससे मिलने गए और उन्हें वो कुछ ख़ास नहीं लगा। माँ-बाप हमेशा ही बच्चों के लिए बेस्ट खोजते हैं और उन्हें अपने बच्चे सबसे सुन्दर लगते हैं। मेरी दोस्त बीच में फंसा हुआ-सा महसूस करने लगी है। बातों-बातों में ही उसने कहा कि क्या यार ऐसी ही परिस्थिति में पड़ना तो अपनी पसंद से ही ना कर लेती मैं शादी। सच है माता-पिता की उम्मीदों, सामनेवाले इंसान और उसके परिवार की उम्मीदों सभी का बोझ आज उसके कंधों पर हैं। ऐसे में फैसला लेना और उस सही या ग़लत फैसले को ज़िंदगीभर ढोना बहुत ही भयानक होगा। समाज बदल रहा है लेकिन, सिर्फ़ प्रेम विवाह के मामले में नहीं बल्कि अरेन्ज शादियों के मामले में भी। अब माता-पिता अपनी मर्ज़ी चलाते हैं तो लेकिन, बच्चों के कंधों पर पसंद-नापसंद की शर्त पर...

अति सर्वत्र वर्जयेत

अति किसी बात की ग़लत होती है। ये बात जानते हुए और मानते हुए भी मुझे लगता है कि कई बार मैं अति कर जाती हूँ। नियमों का पालन करने के मामले में कुछ हद से ज़्यादा हूँ। कुछ खाने के बाद अगर डस्टबीन ना मिले तो फेंकनेवाला कचरा हाथों में या बैग में लिए घूमती रहती हूँ। बस में पीछे से चढ़ने और आगे से उतरने की कोशिश करती हूँ। बस स्टॉप पर ही खड़ी रहती हूँ, ये बात अलग है कि बस कभी-कभी ही स्टॉप पर रुकती हैं। ख़ुद तो नियमों का पालन करती हूँ लेकिन, समस्या ये है कि चाहती हूँ कि लोग भी ऐसा ही करें। उनके ऐसा नहीं करने पर मन दुखी हो जाता है। सच में नियमों के पालन की ये अति मुझे बहुत दुख देती है। दिल्ली में विश्व स्तर की मैट्रो चल जाने के बाद उम्मीद थी कि सिविक सेन्स में सुधार आएगा। लेकिन, अफसोस ऐसा कुछ हुआ नहीं। सिविक सेन्स में ये कमी पढ़े-लिखे लोगों में ज़्यादा नज़र आती है। कल ही एक पढ़े-लिखे लड़के को मैट्रो में थूकते देखा। मन तो ऐसा हुआ कि उसके एक थप्पड़ मार दूँ। नहीं तो उसे दो बातें ही सुना दूँ। लेकिन, मैं कुछ नहीं बोल पाई चुपचाप वहाँ यूँ ही खड़ी रही। मैं कई बरा ये समझ नहीं पाती हूँ कि क्या सच मे पढ़ाई लोगों को सभ्य बनाने का माद्दा रखती हैं...

Wednesday, March 3, 2010

नशे की दुनिया

भुवन
ऑफ़िस आते जाते रोज़ाना ही एक न एक नशेड़ी सड़क पर औंधे मुंह गिरा पड़ा नज़र आ जाता हैं। हम तरक्की कर रहे हैं। पहले बस में धक्के खाते थे और अब झट से मैट्रो से उड़कर ऑफ़िस पहुंच जाते हैं। लेकिन, सड़क से आसमान तक पहुंच जाने के बाद भी क्या आम आदमी की हालत में कुछ सुधार आया है। मेरा ऑफ़िस जहांगीरपुरी के पास है और इस इलाक़े में मज़दूरों की संख्या शायद सबसे ज़्यादा है। दिनभर मंडी में बदन तोड़ मेहनत करने पर शाम को मिलता है इन्हें कुछ दस या बीस रुपए। ऐसे में ये लोग इस बीस रुपए का खाना नहीं खाते बल्कि दस रुपए की बचत करते हुए नशा कर लेते हैं। खाना खाते ही कुछ देर में पच जाएगा लेकिन नशा घंटों तक बेसुध रखेगा। तब न भूख लगेगी न प्यास। भूख इंसान से जो कराएं वो कम। रोज़ाना सड़कों के किनारे और कभी-कभी बीच में पड़े इन लोगों को देख चार साल पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं। कॉलेज में डॉक्यूमेन्ट्री बनाना कोर्स का हिस्सा थी। ऐसे में मैंने स्टेशनों और गंदी बस्तियों में रहनेवाले नशेड़ी बच्चों को अपना विषय बनाया था। पहले दिन जब अपना कैमरा उठाए में पुराने भोपाल के एक एनजीओ शेल्टर होम में गया तो वहाँ का नज़ारा मेरे लिए बिल्कुल अलग था। फटे पुराने और गंदे कपड़ों में छोटे-छोट बच्चे इधर-उधर खेल रहे थे। कुछ गाना गा रहे थे कुछ पढ़ रहे थे, तो कुछ बस यूँ ही शून्य को निहार रहे थे। वहाँ काम करनेवालों ने बताया हम यूँ ही रोज़ाना यहाँ आते हैं और सुबह से शाम तक बैठे रहते हैं। जैसे ही बच्चे आते हैं हम उनकी मदद के लिए तैयार हो जाते हैं। कुछ एक बच्चे तो ऐसे होते है जो इतना भयंकर नशा करते हैं कि उन्हें संभालना ही सबसे बड़ी चुनौती होती हैं। उन्होंने बताया कि पहले वो बस्तियों में जाकर ऐसे बच्चों को यहाँ लाते थे लेकिन, इनके माँ-बाप ही इन्हें ऐसे रखना चाहते हैं ऐसे में वो इन्हें लाने नहीं देते थे। ये जानकर बहुत दुख हुआ और हैरानी भी की माँ-बाप ख़ुद ही बच्चों को नर्क में डाल देते हैं। अगर वो पाल नहीं पाते हैं तो वो उन्हें पैदा ही क्यों करते हैं। खैर, ऐसे बच्चों को कैमरे क़ैद किया और कइयों से बात की। इस गंदगी और नशे की दुनिया में लिप्त इन बच्चों में ज़िंदा बचपना देख लगाकि कितना क्रूर भी हो सकता है भाग्य। इसके बाद में अपना कैमरे लिए पहुंच गया स्टेशन के आसपास पड़े कूड़े के ढ़ेरों पर। हाथों में सूलोशन से भीगे कपड़े थामे देखा एक सुन्दर भविष्य के विकृत होते स्वरुप को। आगे बढ़ता गया और देखता गया कि कैसे इंसान की ज़िंदगी किसी गंदी नाली में पड़े कीड़े से भी बदतर हो सकती है। आज जब देश की राजधानी में पड़े इन नशेड़ियों को देखता हूँ तो लगता है कि इनका बचपन भी कुछ ऐसे ही बीता होगा। अपने ज़िंदा माँ बाप की इन नाजायज़ औलादों का कोख में ही मर जाना शायद बेहतर होता हैं। इन लोगों के लिए ये दुनिया ख़ूबसूरत नहीं बल्कि सज़ा है।

Thursday, February 25, 2010

ताजनगर के लोग- हिम्मत और संयम की मिसाल

गुड़गांव जिले का एक गांव ताजनगर। एक ऐसा गांव जिसके बारे में गुड़गांव शहर में रहनेवाले लोग ही बहुत कम जानते हैं। कुछ दिनों पहले अख़बार में ख़बर पढ़ी कि गांववालों ने वहाँ ख़ुद ही एक रेल्वे स्टेशन बना लिया है। ख़बर कुछ ऐसी थी कि मेरे साप्ताहिक कार्यक्रम के लिए एक दम सटीक लगी। इसके बारे में कुछ शुरुआती जानकारी जुटाई और निकल पड़े हम उसकी कहानी कैमरे के ज़रिए लोगों तक पहुंचाने के लिए। गुड़गांव तक का सफ़र तो आसान था लेकिन इसके बाद शुरु हुई परेशानी। किसी को मालूम ही नहीं कि कहाँ ये गांव। फिर भी जब हम आगे बढ़े तो लोगों के मुंह से इस गांव का नाम सुनकर लगाकि हाँ सही रास्ते पर हैं हम। थोड़े और नज़दीक जाने पर लोगों के मुंह स्टेशन की तारीफ़ें भी सुनने को मिलने लगी। जैसे ही हमारी गाड़ी उस खुले स्टेशन तक पहुंची सामने से एक ट्रेन आती नज़र आई। बस मेरे कैमरामैन भागे उसे कैप्चर करने के लिए। फिर शुरु हुई मेरी ज़िंदगी की एक अनोखी रिपोर्ट की शूट। गांववाले हमारे वहाँ आने से अति उत्साहित थे। एक बुज़ुर्ग हरियाणवी सज्जन ने मेरे बिना पूछे ही सारी कहानी सुनाना शुरु कर दी। टीवीवालों से वो भी थोड़ा बहुत रू-ब-रू हो चुके थे। स्टेशन के उद्घाटन के दिन सासंदजी आएं थे तो कुछ टीवीवाले भी साथ थे। एक के बाद एक कई बुज़ुर्गों ने मुझे वहाँ घेर लिया हरेक के पास एक कहानी थी। उनमें से एक को भी कहीं न जाना था। लेकिन, 30 साल के इंतज़ार और कड़ी मेहनत से बने उनके इस स्टेशन को वो यूँ बैठे निहारते रहते हैं। उन्होंने बताना शुरु किया कि कैसे दिल्ली के इतने क़रीब होने पर भी उन्हें वहाँ तक पहुंचने में कितनी तकलीफ़ होती थी। कैसे एक गांव से दूसरे गांव तक जाने में उन्हें दो से तीन घंटे लग जाते थे। वो कई बार सरकार से एक स्टेशन की गुहार लगा चुके थे। आसपास के गांवों के स्टेशन लगभग दस किलोमीचर की परिधि में ही है यहीं वजह थी कि उनका स्टेशन नहीं बन पा रहा था। सरकार से निराश गांववालों ने एक बार फिर लालू प्रसाद के रेलमंत्री बनने पर उनसे गुहार लगाई और रेलमंत्री ने बस इतना कहा कि बनाओ स्टेशन बस मुनाफ़ा होना चाहिए। इसके बाद गांववालों ने इंजीनियर्स की देखरेख में अपने पैसे और श्रम से स्टेशन बनाना शुरु किया। किसी ने तीन हज़ार दिए तो किसी ने तीन लाख़। इससे भी बढ़कर लोगों ने अपना समय और श्रम इस स्टेशन को दिया। और, पाँच जनवरी दो हज़ार दस याने कि आज़ादी के कुछ त्रैंसठ साल बाद ताजनगर में रूकी पहली ट्रैन। इसके बाद से अब यहाँ कुल सोलह लोकल ट्रैन रूकती हैं। भले ही कुछ सेंकेड के लिए लेकिन रूकती है। यहाँ के लोगों के चेहरे की खुशी आपको भी खुश कर दे। बुज़ुर्गों की झुर्रियों के बीच में खुशी एक दम घुली हुई आप देख सकते हैं। मैं वहाँ दिन भर रही। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक गए फिर वही वापस आए। पूरे समय वो बुज़ुर्गों की टोली हमारे साथ थी। सच इतने सालों के इंतज़ार और मेहनत के बाद अगर आपको वो मिल जाए जिसका इंतज़ार था तो शायद ऐसा ही हाल होता होगा। एक बुज़ुर्ग ने हमें बताया कि गांव के पुरुषों को लगता था कि अगर स्टेशन बन गया तो हमारी बीवियाँ हमसे रूठकर मायके चली जाया करेंगी तो वो यहाँ स्टेशन नहीं चाहते थे। ये सुनकर हम सभी खूब हमें। ताजनगर दिल्ली के इतने पास है फिर भी शहर और शहरी दांव पेंचों से एक दम जुदा है। गांव के लोगों को प्यार और स्नेह देखकर लगा कि सच में आज भी मासूमियत और मेहनत ज़िंदा हैं। मैं के शहरों के आसपास आज भी हम के गांव मज़बूती से खड़े हुए हैं। आखिर में वो कविता जोकि मैंने अपने एंकर में इस्तेमाल की है। ये कविता मेरे पापा (श्री राजा दुबे) ने लिखी है-

हाथ में हाथ और हिम्मत साथ हो तो
कोई पत्थर नहीं जो हिल ना सकें
हौसलें गर बुलंद हो तो
कोई मंज़िल नहीं जो मिल न सकें।

हिम्मतवाले ही आगे बढ़ पाते हैं
कठिन काम को वो आसान बनाते हैं
संकल्पों के धनी कहां रुकते हैं बीच में
वो तो मंज़िल पाकर ही हर्षाते हैं।

Wednesday, February 17, 2010

बिंदास होने के मायने...

आजकल मैट्रो स्टेशन्स पर चारों ओर बिंदास टीवी के विज्ञापन नज़र आ रहे हैं। इन विज्ञापनों में कुछ आधुनिक सोचवाले युवा अपने बिंदास होने का अर्थ समझा रहे हैं। वो बता रहे हैं कि मैं बिंदास हूँ इसका मतलब ये नहीं कि मैं ड्रग्स लेता हूँ या फिर मैं भगवान में विश्वास नहीं रखती। आधुनिक सोचवाले युवा का इस्तेमाल इसलिए क्योंकि ऐसे भी कई युवा मौजूद है जो है तो युवा लेकिन उनकी सोच पुरानी ही है। खैर, ये विज्ञापन आपको एक मिनिट ऐसे युवाओं के बारे में सोचने के लिए मज़बूर करते हैं। आसपास खड़े ऐसे ही कुछ ढ़ीली जींस पहने हुए और बाल बिखराएं हुए युवाओं को ध्यान से देखने पर मज़बूर करते हैं। पिछले ही दिनों एक न्यूज़ चैनल पर मैंने चैनल वी के दो वीजे का इन्टरव्यू देखा। लंदन से भारत ये दोनों युवा अपने हिसाब से जीते हैं और अपने हिसाब से देश और उसकी समस्याओं को देखते हैं। उन्हें इस बात से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन उनके बारे में क्या कहता हैं। दरअसल हरेक इंसान अपने हिसाब से जीना चाहता हैं लेकिन, हरेक में ऐसे रहने का माद्दा नहीं होता हैं। कोई समाज से डरता हैं तो कोई परिवार से तो कोई अस्वीकार हो जाने से डरता हैं। ऐसे में हम अंदर से कितने भी बिंदास क्यों न हो हम बाहरी रूप में बहुत सामाजिक होते हैं। बिंदास के ये विज्ञापन आपको अपने अंदर झांकने का एक मौक़ा दे रहे हैं। ज़रा एक बार रूककर सोचिए कि क्या आप भी बिंदास हैं...

Friday, February 12, 2010

अति सामाजिक होना मेरे बस की बात नहीं...

मैं आजकल कुछ परेशान हूँ। मुफ़्त में मिल रही सुविधाओं से। आज सुबह ही गुगल की नई नेटवर्किंग साइट बज़्ज़ के बारे में सुना तो लगाकि अब लोग इसमें भी जुटेंगे। लेकिन, आज इस बज़्ज़ को जब मैंने मेरे जीमेल खाते में देखा तो कुछ हैंरान हुई। फिर जब उसे खोला तो मालूम चलाकि मैं भी इसकी सदस्य हूँ और लगभग पचास लोगों को फ़ॉलो भी कर रही हूँ। मैं हैरान हो गई। मुझे लगा कि ये क्या हुआ। मुफ़्त में खाते खोलना मुझे ग़लत लगा। अरे, मुझसे तो पूछा होता। खैर, ये बात सिर्फ़ यही तक सीमित कहाँ। फेसबुक पर भी ऐसा ही कुछ है। झट से आपके खेल के स्कोर दूसरे को चैलेन्ज करने पहुंच जाते हैं और पता नहीं किस-किस को खेलने के लिए उकसा आते हैं। ऑर्कुट में एकदिन अचानक से ही आपको मालूम चलता हैं कि आप के पास एक चैट लिस्ट भी है। माना कि ये सभी मुफ़्त में हमें कई सुविधाएं दे रही हैं लेकिन, इसका अर्थ ये तो नहीं हुआ कि हमसे बिना पूछे ही ये हमारे खाते संचालित करने लगे। इस तरह के मामलों में मैं कुछ कच्ची हूँ। सोशल वेब साइट की सदस्य होने के बावजूद भी बेहद अनसोशल हूँ। मेरी ही तरह और भी कई लोग हैं जोकि इन सामाजिक सरोकारवाली तक़नीक़ का असल चेहरा देख नहीं पाते हैं। मुझे रोज़ाना चार से पाँच मेल आते हैं कि फलां इंसान आपको ढ़िंमका साइट पर देखना चाहता हैं तो फलां तलां पर... इन मेल्स को डिलीट करने पर दूसरे दिन रिमान्डर भी आता हैं और फिर एक धमकी कि, देख लो नहीं तो आप एक्सपायर हो जाएगे (मतलब मरने से नहीं बल्कि खाते के बंद होने से है। ये वो खाता है जो आपने नहीं आपके एवज में उस साइट ने स्वयम् ही खोल दिया है।)
मैं इस इन्टरनेट के मेरी निजी ज़िंदगी (या फिर ये कहे कि मेरे निजी मेल अकाउन्ट) में दखल से बेहद परेशान हूँ। कई बार तो इन साइट्स ने मुझे के पीछे लगा दिया जिनसे मेरी लड़ाई तक हो चुकी है। या फिर ऐसे को मेरी तरफ से जन्मदिन की बधाई चली गई जिससे अपनी मर्ज़ी से बात बंद की थी। ये अंतरजाल की जबरिया दोस्ती मेरे लिए एक बहुत ही बड़ी उलझन हैं और साथ ही लोगों का इसके प्रति उत्साह दूसरी तरह की परेशानी का सबब...

Monday, January 25, 2010

बंदर और इंसान सब परेशान...

पिछले दिनों मैं एक स्टोरी पर काम कर रही थी। स्टोरी थी- दिल्ली के सरकारी ऑफ़िसों में हड़कंप मचानेवाले बंदरों को डराने के लिए नौकरी पर रखे गए लंगूरों पर। दरअसल लंगूरों को सरकार ने नौकरी पर रख लिया। हर महीने एक बंधी बंधाई तनख्वाह मिलती हैं और उनका काम होता है बंदरों को डराकर भगाने का। लंगूर अपने मालिक के साथ आता हैं। जैसे ही कही बंदर घूस आते हैं लंगूर के मालिक को मोबाइल पर फोन कर दिया जाता हैं और वो झट से बंदर लेकर आ जाता हैं। जिस लंगूर से मैं मिली वो था- राजा। कैमरे की तरफ देखता ही नहीं था वो। मालिक के साथ बाइक पर बैठकर आता था और गुड़ मुगंफली की चिक्की मन लगाकर खाता था। स्टोरी के लिए जब इन्टरव्यू लेने की बात हुई तो मैं मिली इक़बाल मलिक से। उनसे बातचीत में मालूम चलाकि दिल्ली के भाटी माइन्स में रोज़ाना सरकारी गाड़ी ऐसे उत्पाती बंदरों को छोड़कर आती हैं। मन बनाया वहाँ जाने का। जाकर देखा तो इंसान और बंदर दोनों की ही हालत खराब हैं। बंदर ठंड में और उस अंजान जगह में बीमार पड़े हैं। दरअसल उस खुली जगह में भी उनके हिसाब के पेड़-पौधे और पानी नहीं हैं। खाना नहीं होने की वजह से वो बाहर निकलकर पास के भाटी गांव में आ जाते हैं। वहाँ इंसानों के घरों में घुस जाते हैं, खाना खा लेते हैं और बच्चों को काट लेते हैं। ऐसे में वो भी परेशान हैं। इसी विषय पर मेरा कल का कार्यक्रम है। अगर मौक़ा मिले तो ज़रूर देखें लोकसभा टीवी पर रात साढ़े आठ बजे। देखें कि कैसे बंदरों से परेशान इंसानों ने खु़द को बचाने के लिए बंदरों के साथ-साथ कुछ इंसानों को भी परेशानी में डाल दिया है।

Friday, January 22, 2010

आसपास की कोई ख़बर नहीं...

मेरी एक सहकर्मी ने कुछ ही दिनों पहले शादी हुई है। वो क्रिश्चन है। उसने शादी एक बिहारी कायस्थ से की है। कल यूँ ही मेरी उससे बात हुई। मैंने पूछा कि ससुराल में निभाना मुश्किल लग रहा होगा। उसने हंसकर जवाब दिया बिल्कुल नहीं। इसके बाद उसने अपने परिवार का इतिहास बताया कि उसके परिवार में सभी ने अपनी पसंद से शादी की हैं। उसके परिवार में हर जाति और धर्म के सदस्य हैं। ये बात सुनकर मुझे बहुत ही अच्छा लगा। उसने बताया कि कैसे उसकी क्रिश्चन माँ धन तेरस पर बर्तन खरीदती हैं या फिर वो कैसे अपनी बंगाली मौसी के ससुराल में दुर्गा पूजा के लिए जाते हैं। ज़रा सोचिए कि एक ऐसा परिवार जहाँ आपको साल की पहली तारीख से लेकर आखिरी तक त्यौहारों को मनाने का मौक़ा मिलें। जहाँ सिर्फ़ होली या दीवाली ही नहीं बल्कि ईद और क्रिसमस का भी इतंज़ार रहे। उसके परिवार के बारे में सुनने के बाद से ही मैं यही सोच रही हूँ कि वो कितनी भाग्यशाली है कि एक ही जन्म में उसे इतने सारे धर्मों, त्यौहारों और रीति-रिवाज़ों को मनाने का मौक़ा मिल गया। अगर मैं अपने ही घर की बात करूं तो मेरे घर में भी त्यौहार तो कई मनते हैं लेकिन, सिर्फ़ वही जिनसे हमारी धार्मिक आस्थाएं जुड़ी हैं। इसके अलावा और कोई त्यौहार हमने कभी नहीं मनाया। इतना ही नहीं कभी किसी दूसरे धर्म के दोस्त के साथ उसके त्यौहार भी नहीं मनाए। सच तो ये है कि कभी दिमाग में ही नहीं आया कि गुरुपर्व के दिन किसी गुरुद्वारे में जाया या फिर किसी रविवार को चर्च। ऐसा न करने का अफसोस इसलिए क्योंकि अपने ही देश, अपनी ही संस्कृति से जुड़ी कितनी ही बातें मैं आजतक नहीं जान पाई हूँ। अब मैं जब भी मेरी सहकर्मी को देखती हूँ मुझे बहुत अच्छा लगता है...

Tuesday, January 19, 2010

काली पन्नी...

काले रंग का सबसे बढ़िया इस्तेमाल शायद छुपाने में होता है। अंधेरे में आप कुछ भी कर सकते हैं। कार के शीशों पर काली फ़िल्म भी इसीलिए चढ़ाई जाती है। घरों में भी ऐसे ही शीशे काम आते हैं। और, ऐसी ही होती है काली पन्नियाँ। दबी छुपी चीज़ों की खरीददारी में सबसे ज़्यादा काम आनेवाली। सामान्यतः ये पन्नियाँ डस्टबीन पॉलिथीन के रूप में काम आती हैं। माने कि कचरा इसमें भरिए और फिर फेंकने जाईए। आपके घर की गंदगी को कोई और न देख पाएं। मेरे एक मित्र है उनके हाथ में हर छुट्टी के दिन काली पन्नी होती हैं। दरअसल वो चिकन लेकर आते हैं। जोकि दुकानदार हमेशा काली पन्नी में ही देता हैं। अब मुझे ये नहीं मालूम की वो ऐसा क्यों करता हैं। ऐसे ही कल मुझे मेडिकल स्टोरवाले ने काली पन्नी पकड़ाई। मैं वहाँ सैनेटरी नेपकिन लेने गई थी। दुकानदार ने बहुत दबे छुपे अंदाज़ में उसे नीचे रखकर काली पन्नी में पैक किया और फिर मुझे दिया। मुझे ये बात हमेशा से ही अखरती है कि आखिर ऐसा क्यों। मैंने कई बार अपनी दोस्तों को दबे छुपे अंदाज़ में नैपकिन खरीदते देखा हैं। दुकान पर जाते ही कई बार वो अंकलजी से पूछती है कि अंटी कहाँ हैं। अंकल भी झट से समझ जाते हैं और अंटी को भेज देते हैं। आखिर नैपकिन जो खरीदना हैं। हमारे समाज ऐसी कई बातें हैं जोकि आज भी छुप-छुप के होती हैं। नैपकिन का एड आते ही मम्मी का चैनल बदल देता आज भी कायम हैं। मैं हमेशा से ही इस बात का विरोध करती रही हूँ। लेकिन, हर बार मुझे चुप करा दिया जाता है। मेरे मुताबिक़ इस तरह से हम काले रंग का दुरुपयोग करते हैं। इस तरह की बातों को छुपाने के पीछे का अर्थ मेरी समझ से परे हैं। आखिर इसमें ऐसा क्या है जो प्राकृतिक नहीं हैं। या फिर ऐसी क्या है जिस बात पर शर्मिंदा हुआ जाए...

पर्वतारोहियों को नज़दीक से समझे...

पिछले कुछ दिनों से मेरी तबीयत बहुत खराब थी। पहले ठंड लग गई, फिर आखों में इन्फ़ेक्शन हो गया और फिर एक आंख में हैमरेज़ हो गया। इन सभी कारण से मैं ब्लॉगिंग से दूर रही लेकिन, ऑफ़िस लगातार आती थी और काम भी उसी गति से चलता रहा। मुझे दिल्ली की इस ठंड ने अंदर तक हिलाकर रखा है। मुझसे ये ठंड बिल्कुल सहन नहीं हो रही है। ऐसी ही बीमारी में मैं पिछले दिनों एक ऐसी जगह शूट पर गई जहाँ जाकर मेरे अंदर की ठंड और बढ़ गई। ये जगह थी - माउन्टनियरिंग म्यूज़ियम। दिल्ली के बीचों-बीच ऐसी शांत जगह कि कल्पना शायद ही किसी ने की हो। इस म्यूज़ियम में पर्वतारोहण से जुड़ी हर चीज़ मौजूद हैं। हमारे देश में कब कौन किस पर्वत पर चढ़ा, कितनी बार चढ़ा, कैसे चढ़ा सब यहाँ आकर मालूम चल जाता है। ये म्यूज़ियम अपने आप में बेहतरीन हैं। यहाँ कई तरह की जानकारियाँ मौजूद हैं। नक्शे हैं, वो उपकरण हैं जो कि पर्वतारोहियों ने इस्तेमाल किए हैं और साथ ही पर्वतों से जुड़ी सारी कहानियाँ तस्वीरों से बयां हैं। यहाँ एवरेस्ट के नामकरण से लेकर फूलों की घाटी को खोज तक को समझा जा सकता हैं। दिल्ली की व्यस्त ज़िंदगी के बीच अगर आपको पर्वतों से प्यार है तो आप भी यहाँ ज़रूर जाए।