Monday, January 25, 2010

बंदर और इंसान सब परेशान...

पिछले दिनों मैं एक स्टोरी पर काम कर रही थी। स्टोरी थी- दिल्ली के सरकारी ऑफ़िसों में हड़कंप मचानेवाले बंदरों को डराने के लिए नौकरी पर रखे गए लंगूरों पर। दरअसल लंगूरों को सरकार ने नौकरी पर रख लिया। हर महीने एक बंधी बंधाई तनख्वाह मिलती हैं और उनका काम होता है बंदरों को डराकर भगाने का। लंगूर अपने मालिक के साथ आता हैं। जैसे ही कही बंदर घूस आते हैं लंगूर के मालिक को मोबाइल पर फोन कर दिया जाता हैं और वो झट से बंदर लेकर आ जाता हैं। जिस लंगूर से मैं मिली वो था- राजा। कैमरे की तरफ देखता ही नहीं था वो। मालिक के साथ बाइक पर बैठकर आता था और गुड़ मुगंफली की चिक्की मन लगाकर खाता था। स्टोरी के लिए जब इन्टरव्यू लेने की बात हुई तो मैं मिली इक़बाल मलिक से। उनसे बातचीत में मालूम चलाकि दिल्ली के भाटी माइन्स में रोज़ाना सरकारी गाड़ी ऐसे उत्पाती बंदरों को छोड़कर आती हैं। मन बनाया वहाँ जाने का। जाकर देखा तो इंसान और बंदर दोनों की ही हालत खराब हैं। बंदर ठंड में और उस अंजान जगह में बीमार पड़े हैं। दरअसल उस खुली जगह में भी उनके हिसाब के पेड़-पौधे और पानी नहीं हैं। खाना नहीं होने की वजह से वो बाहर निकलकर पास के भाटी गांव में आ जाते हैं। वहाँ इंसानों के घरों में घुस जाते हैं, खाना खा लेते हैं और बच्चों को काट लेते हैं। ऐसे में वो भी परेशान हैं। इसी विषय पर मेरा कल का कार्यक्रम है। अगर मौक़ा मिले तो ज़रूर देखें लोकसभा टीवी पर रात साढ़े आठ बजे। देखें कि कैसे बंदरों से परेशान इंसानों ने खु़द को बचाने के लिए बंदरों के साथ-साथ कुछ इंसानों को भी परेशानी में डाल दिया है।

Friday, January 22, 2010

आसपास की कोई ख़बर नहीं...

मेरी एक सहकर्मी ने कुछ ही दिनों पहले शादी हुई है। वो क्रिश्चन है। उसने शादी एक बिहारी कायस्थ से की है। कल यूँ ही मेरी उससे बात हुई। मैंने पूछा कि ससुराल में निभाना मुश्किल लग रहा होगा। उसने हंसकर जवाब दिया बिल्कुल नहीं। इसके बाद उसने अपने परिवार का इतिहास बताया कि उसके परिवार में सभी ने अपनी पसंद से शादी की हैं। उसके परिवार में हर जाति और धर्म के सदस्य हैं। ये बात सुनकर मुझे बहुत ही अच्छा लगा। उसने बताया कि कैसे उसकी क्रिश्चन माँ धन तेरस पर बर्तन खरीदती हैं या फिर वो कैसे अपनी बंगाली मौसी के ससुराल में दुर्गा पूजा के लिए जाते हैं। ज़रा सोचिए कि एक ऐसा परिवार जहाँ आपको साल की पहली तारीख से लेकर आखिरी तक त्यौहारों को मनाने का मौक़ा मिलें। जहाँ सिर्फ़ होली या दीवाली ही नहीं बल्कि ईद और क्रिसमस का भी इतंज़ार रहे। उसके परिवार के बारे में सुनने के बाद से ही मैं यही सोच रही हूँ कि वो कितनी भाग्यशाली है कि एक ही जन्म में उसे इतने सारे धर्मों, त्यौहारों और रीति-रिवाज़ों को मनाने का मौक़ा मिल गया। अगर मैं अपने ही घर की बात करूं तो मेरे घर में भी त्यौहार तो कई मनते हैं लेकिन, सिर्फ़ वही जिनसे हमारी धार्मिक आस्थाएं जुड़ी हैं। इसके अलावा और कोई त्यौहार हमने कभी नहीं मनाया। इतना ही नहीं कभी किसी दूसरे धर्म के दोस्त के साथ उसके त्यौहार भी नहीं मनाए। सच तो ये है कि कभी दिमाग में ही नहीं आया कि गुरुपर्व के दिन किसी गुरुद्वारे में जाया या फिर किसी रविवार को चर्च। ऐसा न करने का अफसोस इसलिए क्योंकि अपने ही देश, अपनी ही संस्कृति से जुड़ी कितनी ही बातें मैं आजतक नहीं जान पाई हूँ। अब मैं जब भी मेरी सहकर्मी को देखती हूँ मुझे बहुत अच्छा लगता है...

Tuesday, January 19, 2010

काली पन्नी...

काले रंग का सबसे बढ़िया इस्तेमाल शायद छुपाने में होता है। अंधेरे में आप कुछ भी कर सकते हैं। कार के शीशों पर काली फ़िल्म भी इसीलिए चढ़ाई जाती है। घरों में भी ऐसे ही शीशे काम आते हैं। और, ऐसी ही होती है काली पन्नियाँ। दबी छुपी चीज़ों की खरीददारी में सबसे ज़्यादा काम आनेवाली। सामान्यतः ये पन्नियाँ डस्टबीन पॉलिथीन के रूप में काम आती हैं। माने कि कचरा इसमें भरिए और फिर फेंकने जाईए। आपके घर की गंदगी को कोई और न देख पाएं। मेरे एक मित्र है उनके हाथ में हर छुट्टी के दिन काली पन्नी होती हैं। दरअसल वो चिकन लेकर आते हैं। जोकि दुकानदार हमेशा काली पन्नी में ही देता हैं। अब मुझे ये नहीं मालूम की वो ऐसा क्यों करता हैं। ऐसे ही कल मुझे मेडिकल स्टोरवाले ने काली पन्नी पकड़ाई। मैं वहाँ सैनेटरी नेपकिन लेने गई थी। दुकानदार ने बहुत दबे छुपे अंदाज़ में उसे नीचे रखकर काली पन्नी में पैक किया और फिर मुझे दिया। मुझे ये बात हमेशा से ही अखरती है कि आखिर ऐसा क्यों। मैंने कई बार अपनी दोस्तों को दबे छुपे अंदाज़ में नैपकिन खरीदते देखा हैं। दुकान पर जाते ही कई बार वो अंकलजी से पूछती है कि अंटी कहाँ हैं। अंकल भी झट से समझ जाते हैं और अंटी को भेज देते हैं। आखिर नैपकिन जो खरीदना हैं। हमारे समाज ऐसी कई बातें हैं जोकि आज भी छुप-छुप के होती हैं। नैपकिन का एड आते ही मम्मी का चैनल बदल देता आज भी कायम हैं। मैं हमेशा से ही इस बात का विरोध करती रही हूँ। लेकिन, हर बार मुझे चुप करा दिया जाता है। मेरे मुताबिक़ इस तरह से हम काले रंग का दुरुपयोग करते हैं। इस तरह की बातों को छुपाने के पीछे का अर्थ मेरी समझ से परे हैं। आखिर इसमें ऐसा क्या है जो प्राकृतिक नहीं हैं। या फिर ऐसी क्या है जिस बात पर शर्मिंदा हुआ जाए...

पर्वतारोहियों को नज़दीक से समझे...

पिछले कुछ दिनों से मेरी तबीयत बहुत खराब थी। पहले ठंड लग गई, फिर आखों में इन्फ़ेक्शन हो गया और फिर एक आंख में हैमरेज़ हो गया। इन सभी कारण से मैं ब्लॉगिंग से दूर रही लेकिन, ऑफ़िस लगातार आती थी और काम भी उसी गति से चलता रहा। मुझे दिल्ली की इस ठंड ने अंदर तक हिलाकर रखा है। मुझसे ये ठंड बिल्कुल सहन नहीं हो रही है। ऐसी ही बीमारी में मैं पिछले दिनों एक ऐसी जगह शूट पर गई जहाँ जाकर मेरे अंदर की ठंड और बढ़ गई। ये जगह थी - माउन्टनियरिंग म्यूज़ियम। दिल्ली के बीचों-बीच ऐसी शांत जगह कि कल्पना शायद ही किसी ने की हो। इस म्यूज़ियम में पर्वतारोहण से जुड़ी हर चीज़ मौजूद हैं। हमारे देश में कब कौन किस पर्वत पर चढ़ा, कितनी बार चढ़ा, कैसे चढ़ा सब यहाँ आकर मालूम चल जाता है। ये म्यूज़ियम अपने आप में बेहतरीन हैं। यहाँ कई तरह की जानकारियाँ मौजूद हैं। नक्शे हैं, वो उपकरण हैं जो कि पर्वतारोहियों ने इस्तेमाल किए हैं और साथ ही पर्वतों से जुड़ी सारी कहानियाँ तस्वीरों से बयां हैं। यहाँ एवरेस्ट के नामकरण से लेकर फूलों की घाटी को खोज तक को समझा जा सकता हैं। दिल्ली की व्यस्त ज़िंदगी के बीच अगर आपको पर्वतों से प्यार है तो आप भी यहाँ ज़रूर जाए।