Friday, October 22, 2010

रिश्वत देना और लेना एक कला है !

भगवान की पूजा नहाने के बाद ही की जाती है। मंदिर में जाने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारे जाते हैं। रात में सोने से पहले भगवान का नाम लेना चाहिए। या फिर रात को दही नहीं खाना चाहिए। ये कुछ ऐसी बातें हैं जो कि मैं पूरी तरह से निभाती हूँ। भले ही मैं इसे करने की वजहों के बारे में कुछ ना जानती हूँ। दरअसल मैंने कभी ये जानना ही नहीं चाहा कि हम ऐसा क्यों करते हैं। शायद यही हालत दुखुराम की भी होगी या फिर कहा जाए कि मुझसे भी बुरी होगी। क्योंकि अपनी ऐसी सोच और आदतों में ही उसने ये भी जोड़ रखा है कि कोई भी काम बिना रिश्वत दिए बिना नहीं होता हैं। दुखुराम छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले का रहनेवाला है। और, एक ख़बर के मुताबिक़ उसने भरी अदालत में जज को तीन सौ रूपए की रिश्वत देकर केस का फैसला जल्दी करने को कहा। दुखुराम की इस हरकत के चलते अदालत में मौजूद सभी लोग सकते में आ गए और जज ने उसे रिश्वत देने के जुर्म में जेल की सज़ा सुनाई। बाद में ये मालूम चला उस भोले से गांववाले को उसके साथियों ने समझाईश दी थी कि, बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता है। इसी के चलते दुखुराम ने दुखी होते हुए अपने कुल जमा जेब के पैसे जज साहब के सामने रख दिए। छह साल से सम्पत्ति के मामले में उलझे हुए दुखुराम की ये छोटी सी हरकत हमारे देश के भ्रष्ट तंत्र को दर्शाती है। जहां हमने रिश्वत देने और लेने को कुछ इस तरह से अपनी ज़िंदगी में समाहित कर लिया है जैसे कि सांस लेते हैं। दुखुराम ने बढ़े ही अफसोस के साथ ये कहा कि पैसे देने पर भी हमारा काम नहीं हुआ। दरअसल दुखुराम ये तो समझ गया कि पैसे के बिना फैसला नहीं आया है लेकिन, वो ये नहीं समझ पाया कि पैसे दिए कैसे जाते है। रिश्वत देना ही केवल काम को करवाने के लिए काफी नहीं है। असल में रिश्वत देना और लेना दोनों ही एक कला है। एक ऐसी कला जिसे सालों की मेहनत से तराशा जाता हैं। साथ ही ये एक ऐसा गुण भी है जो कि आपके खून में होना ज़रूरी हैं। बहुत आश्चर्य की बात है कि ये कला और इससे जुड़े कलाकार हमारे बीच में मौजूद हैं लेकिन, फिर भी इसे व्यवस्थित रूप से सिखाने के लिए कोई संस्था नहीं हैं। ये एक ऐसी कला है जो कि फिलहाल घराना पंरपंरा के अनुसार चल रही है। बाप से बेटे को और सीनियर से जूनियर को। लेकिन, ऐसे में इसे ना समझनेवाले दुखुराम जैसे लोग पिस जाते हैं। जोकि रिश्वत कला के बारे में अपनी अधकचरी जानकारी के चलते पैसा भी गंवा देते हैं और ऊपर से सज़ा भी भुगतते हैं। अब ज़रूरत है कि रिश्वत की कला की बारीकियों को आम जनता को भी सिखाया जाए...

Wednesday, October 20, 2010

सूरज की रौशनी

सूरज की रौशनी क्या क्या कमाल कर सकती है, ये शायद अब तक हमने पूरी तरह जाना नहीं है। या फिर ये कहे कि हम लोग धीरे धीरे ये जानने की कोशिशों में लगे हुए हैं। बचपन में सोलर कुकर को स्कूल में प्रोजेक्ट के लिए थर्माकॉल से बनाया करती थी। लेकिन, इसका बहुत व्यवहारिक इस्तेमाल कभी नहीं देखा। कई बार सुना कि मल्टीस्टोरी फ्लैटवाली कॉलोनियों में आजकल सोलर पैनल लगने लगे हैं पानी गर्म करने के लिए। व्यवहारिक रूप से इसका भी इस्तेमाल नहीं देखा। कई लोगों के मुंह से ये सुना ज़रूर कि ये बहुत व्यवहारिक और काम को कम करनेवाली ऊर्जा नहीं हैं। शायद हम सूरज की रौशनी से बचने के इतने आदी हो गए हैं कि बस काले शीशों में एसी ऑन करके सूरज को केवल एक विलेन की तरह देखते रहते हैं। लेकिन, ये आग उगलता हमसबों की ज़िंदगी का विलेन कुछ लोगों की ज़िंदगी बढ़ाने के काम में लगा हुआ है। सीएसआईआर (काउन्सिल ऑफ़ साइन्टिफ़िक एण्ड इन्ड्रस्टियल रिसर्च) ने सोलेक्शा ईजाद किया। सोलेक्शा यानी कि सोलर रिक्शा। रिक्शा वही जो हमें अपने घर से बस स्टॉप या फिर पासवाले मार्केट से घर तक लाता हैं। ऊपर नीचे, उबड़-खाबड़ रास्तों के साथ साथ ट्रेफ़िक और लाल हरी बत्तियों के बीच से हमें सही समय पर सही जगह पहुंचाता हैं। रिक्शा वही जिसे चलानेवाले को हम अपने से कमतर समझते हैं और उससे एक एक रुपए के लिए हुज्जत करते हैं। उसी रिक्शे को सीएसआईआर ने सौर ऊर्जा से संचालित करने की पहल की हैं। वो ऐसे रिक्शे बना रहा है जो कि बैट्री से चलते हो और वो बैट्री सूरज से चार्ज होती हो। सीएसआईआर का मक़सद पूरी तरह से रिक्शाचालकों की मेहनत को आधा करना और कमाई को दोगुना करना हैं। इस रिक्शे में पैडल मारने की कोई ज़रूरत नहीं, हालांकि पैडल है ज़रूर। जोकि बैट्री के डिस्चार्ज होने पर काम आते हैं। एक शोध के मुताबिक़ टीबी के मरीज़ों में सबसे ज़्यादा रिक्शाचालक होते हैं। सरकारी अस्पतालों में इसकी दवाई मुफ्त होने पर भी ये उनके लिए फायदेमंद नहीं हैं। क्योंकि इन दवाइयों के साथ जिस तरह के खाने की ज़रूरत हैं वो उन्हें नहीं मिल पाता हैं। ऐसे में अधिकतर ये दवा खोना शुरु तो करते हैं लेकिन, बीच में ही छोड़ देते हैं। पूरे दिन रिक्शा खींचने के लिए उन लोगों का सहारा बनता है तंबाखू। ऐसे में उन्हें बेहतर खाना और माहौल देना संभव नहीं लगता है। तो क्यों न उनकी मेहनत को ही कम कर दिया जाए। यही वजह है कि इन रिक्शों को बनाया गया। ये रिक्शे बिना पैडल मारे चलते हैं। इनमें सवारी के साथ रिक्शा चालक भी धूप और पानी से एक छत के ज़रिए बच जाता हैं। रिक्शे में इन्डीकेटर से लेकर हॉर्न तक सब कुछ हैं। ये है आज के रिक्शे। इसे चलानेवाले एक रिक्शाचालक ने हमें बताया कि वो पहले सामान्य रिक्शों चलाता था। लेकिन, जब से इसे चलाना शुरु कर दिया वो अब उसे नहीं चला पाता है। ये रिक्शा न सिर्फ़ सवारी को शान की सवारी देता हैं बल्कि ये हमारे समाज के उस तबके के बारे में सोचता है जो ज़िंदा भी ये ना नहीं इसकी किसी को फ़िक्र नहीं।

Monday, October 4, 2010

लेडीज़ ओनली...

सुरक्षा की भावना इंसान में एक अलग तरह की ऊर्जा का संचार कर देती है। आज़ादी के सही मायने शायद तब ही समझ में आते है जब हमें उस आज़ादी में इस बात की ग्यारंटी मिल जाए कि हम सुरक्षित हैं। आज सुबह जब रूम से ऑफिस जाने के लिए निकली तो मैट्रो की भीड़ और परेशानी से मन परेशान नहीं था। दो अक्टूबर से दिल्ली मैट्रो में पूरी एक बोगी महिलाओं के आरक्षित की गई हैं। फिलहाल ये ट्रायल है। महिलाओं की बोगी में पुरुष न चढ़ पाए इसके पूरे इंतज़ाम भी है। बोगी में भीड़ इतनी ही थी जिसमें आप आसानी से खड़े हो सकें। अगर भीड़ बढ़ी भी तो इस बात को लेकर मैं निश्चिंत हूं कि इस भीड़ में भी मुझे जो धक्का लग रहा है वो जानबूझकर मारा गया या फिर कोई भीड़ में मजे लेने के लिए मेरे पास नहीं खड़ा हुआ हैं। हालांकि, मैट्रो में ये भीड़ कुछेक समय पहले सी ही बढ़ी हैं। और आज तक मैट्रो में इस तरह की घटना की कोई ख़बर भी नहीं आई हैं। फिर भी मैट्रो की ओर से भीड़ में महिलाओं को सुरक्षित करने के लिए शुरु की गई ये पहल स्वागत योग्य है। इस अलग बोगी के होने से केवल मेरे लिए भीड़ का डर तो खत्म हुआ ही है लेकिन, जो सबसे बड़ी बात है वो है सुरक्षा की भावना। सोचिए कैसी विडम्बना है कि जिस समाज में हम महिला पुरुष मिलकर रहते हैं उसी समाज में हम पुरुषों से अलग होकर सुरक्षित महसूस करती हैं। हमारे घर में, ऑफिस में, स्कूल में, कॉलेज में हर जगह पुरुष मौजूद हैं। हम उनके साथ पढ़ते हैं, काम करते हैं, जीवन के दुख से लेकर खुशी तक के लम्हों को साझा करते हैं। फिर भी हम उन्हीं के बीच कई बार असुरक्षित महसूस करते हैं। उम्मीद है कि हमारी आनेवाली पीढ़ी में महिलाओं के लिए कही से अलग कोई बोगी न हो। आनेवाली पीढ़ी की शिक्षा ही ऐसी हो कि पुरुष महिला को और महिला पुरुष को हौव्वा न समझकर अपना साथी समझे। उम्मीद है, आनेवाले समय में महिलाओं के लिए अलग बोगी न हो, एक ही साझा बोगी में महिलाएं सुरक्षित महसूस करें...