Friday, November 18, 2011

रॉकस्टार के ज़रिए एक सोच की समीक्षा...

रॉकस्टार- एक ऐसे लड़के की कहानी जो न प्यार को समझ सका और न अपने अंदर छुपे संगीत के हुनर को। केवल लोकप्रिय हो जाना ही समझ का पैमाना नहीं होता हैं। पूरी फिल्म में कहीं उसे संगीत से प्यार करते नहीं देखा। बिल्कुल वैसे ही जैसे प्यार करते भी नहीं देखा। जनार्दन को हीर बस होना चाहिए... शायद अंतिम सीन में वो महसूस कर पाया कि वो प्यार करता था या फिर ये कहे कि वो प्यार के अहसास को समझ सका। इम्तियाज़ अली की अब तक की निर्देशित चारों फिल्में देखने के बाद ये महसूस हुआ कि सभी फिल्मों के नायक-नायिका बहुत व्यवहारिक हैं। हालांकि जब वी मेट की गीत अंशुमन से प्यार करती थी। लेकिन, अंत में यही हुआ कि वो प्यार नहीं आकर्षण निकला और प्यार को तो एक दम अंतिम समय में समझ पाई। लव आजकल में तो युवाओं की इस सोच पर निर्देशक कम कहानीकार ने ऋषि कपूर के किरदार के ज़रिए खुद ही चोट कर दी थी। प्यार को न समझनेवाले सैफ के किरदार को ये मालूम था कि उसे क्या करना है, कहाँ नौकरी, कहाँ घर... वो केवल प्यार को ही नहीं समझ सका। यही हाल रहा जनार्दन का... हीर उसे होना चाहिए... क्यों होना चाहिए? ये वो अंत तक नहीं समझा सका। फिल्म जिस उम्र से शुरु होती हैं उसे मैं जी चुकी हूँ और जिस उम्र पर खत्म होती है उसे जी रही हूँ। इसलिए ये दावे से कह सकती हूँ कि इन सभी फिल्मों के किरदार बहुत व्यवहारिक है और भावुक नाममात्र को। मुझे मेरे भावुक होने और मेरे भावनात्मक लगाव के बारे में कई प्रकार के ज्ञान मिल चुके हैं लेकिन, इन किरदारों को देखकर लगता हैं कि ये बेवकूफ नहीं हैं और ये पहले से ही जानते हैं कि दरअसल सबकुछ भावनात्मक लगाव ही हैं। ज़िंदगी में उसी भावनात्मक लगाव पर आकर गाड़ी रूक जाती हैं। लेकिन, सिनेमा में इससे आगे बढ़कर जबरन में फिर प्यार में तब्दील हो जाती हैं। यही वजह है कि गीत अंशुमन के सामने आदित्य को किस करती हैं या मीरा हनीमून के पहले दिन अपने पति को छोड़ देती हैं और हीर शादी के दो साल बाद जानार्दन से संबंध बनाती हैं... इन फिल्मों से और इन किरदारों से आप टुकड़ों में प्रभावित हो पाते हैं... कइयों के मन से आवाज़ आती हैं काश मैं भी ऐसा कर पाता/पाती... और, मुझे लगता है कि सच में ये सिनेमा ही है... क्योंकि, असल ज़िंदगी में या तो हम व्यवहारिक है या तो हम भावुक...

Tuesday, November 15, 2011

हम चले नेक रस्ते पे हमसे भूलकर भी कोई भूल हो ना...

बचपन से हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर, आँखें बंद करके हम ये प्रार्थना करते आए हैं। घर हो या स्कूल हमेशा हमें सही और सच के रास्ते पर चलने की सीख दी जाती हैं। हमेशा से समझाया जाता है कि कुछ भी हो जाए सही करो। एक से बढ़कर एक ऐसी जीवनियां हमें पढ़ाई गई हैं जिनसे हमें सच के रास्ते पर चलने की सीख मिले। आज शाम को एक साथ ये पूरी पढ़ाई मेरी आँखों के सामने तैर गई। सच बोलो, सच का साथ दो, सच सीखो... लेकिन, सच को तय करने के अधिकार के बारे में कभी कोई जानकारी मुझे तो मेरी पढ़ाई ने नहीं दी। आखिर ये तय कौन कर रहा है कि क्या सच हैं और क्या झूठ। क्या सही है और क्या ग़लत। आज तक मैं इस खेल से अंजान थी लेकिन, आज मैं समझ गई। दरअसल ये मैं तय कर रही हूँ कि क्या सच हैं और सही हैं और क्या ग़लत या फिर झूठ। लेकिन, अपने लिए नहीं। ना बिल्कुल नहीं। मैं ये तय करती हूँ दूसरों के लिए, इस समाज के लिए और मेरे लिए सही और ग़लत तय करता है ये समाज। नेक रास्ते पर हम चले तो... लेकिन, कौन-सा रास्ता नेक हैं ये हमें कोई दूसरा बताएगा। भूल हमसे कोई ना हो। लेकिन, भूल है क्या ये कोई और तय करेगा। स्कूल में, घर में, हमेशा हमें सिखाया जाता हैं कि वो करो जो सही हो, किसी का दिल मत दुखाओ, केवल मौज या मस्ती के लिए किसी की भावनाओं से मत खेलो... लेकिन, एक वक्त ऐसा आ जाता हैं कि हमारी ही भावनाओं से खेला जाता हैं और ये समझाया जाता हैं कि अरे, ये ज़माना बहुत प्रैक्टिकल हैं भावनाओं के लिए यहां कोई जगह नहीं। एक महिला, एक पत्नी के रूप में अपने पति के साथ सूखी रोटी खाने को तैयार रहती हैं। पिता का हरेक परिस्थिति में साथ निभाती हैं। बच्चों के लिए कुछ भी कर जाती हैं। लेकिन, एक सास के रूप में अचानक से भावनाओं को तुच्छ मानकर व्यवहारिक हो जाती हैं। पति के साथ सूखी रोटी खानेवाली पत्नी अपनी बेटी को सलाह दे देती हैं कि लड़के के स्वभाव पर मत जाओ समाज के नियमों और परिवार के पैसों की खनक को समझो। प्यार तो उम्र का तकाज़ा हैं हो जाता हैं। लेकिन, भावनाओं में मत बहो। वो करो जिससे समाज में खड़ी रह सको। आश्चर्य होता है एक माँ को बेटी की शादी बिना किसी सोच समझ के करते देख। और, माँ भी वो जो अपनी माँ को इस बात पर कई बार कोस चुकी हो कि काश मेरी शादी आपने सोच-समझकर की होती... दरअसल एक जिंदा इंसान के दिल की भावनाओं से बढ़कर हैं ये अदृश्य समाज। ये समाज एक ऐसा शेर है जो कभी आता नहीं हैं बस मन को डराता है कि शेर आया, शेर आया... मैंने अपने बचपन में कभी किसी शिक्षा देनेवाले से नहीं पूछा कि आखिर ये सच हैं क्या... बस अपने विवेक और समझ से जिसे सच माना उसे अपनाया। लेकिन, मैं उम्मीद करती हूँ कि आनेवाली पीढ़ी एक बार अपने सिर को उठाकर, आँख से आँख मिलाकर और हाथ को हवा में लहराकर ज़रूर पूछे कि आखिर ये सच और नेकी है क्या...

Friday, October 7, 2011

अपने लिए जीना, जीना नहीं...

कभी कभी आपसे प्यार करनेवाले, आपके साथ अपनी ज़िंदगी को जोड़कर देखनेवाले, आपके साथ बचपन से रहनेवाले। आपको एक ट्राफी की तरह मानते हैं। आपस में इस होड़ में लगे रहते हैं कि कौन जीतेगा इसे। और, इस होड़ में जीते कोई भी हार केवल उस ट्राफी की होती है जिसके लिए ये सारी लड़ाई हैं। ट्राफी कब, कौन बन जाए ये भी आप नहीं कह सकते। कभी आप खुद वो ट्राफी हैं, तो कभी आप उसे पाने की दौड़ में हैं। समय और परिस्थितियां तय करती हैं आपकी जगह। फिलहाल मेरे सामने भी एक ऐसा इंसान मौजूद हैं, जो लोगों के बीच ट्राफी बना हुआ हैं। वो क्या करेगा ये तय तो उसे ही करना हैं लेकिन, अपने लिए नहीं बल्कि किसी एक की खुशी के लिए। यहाँ ये बात समझाने की ज़रूरत नहीं कि फैसला कुछ भी हो उसे दुखी ही रहना हैं। हम हमेशा से ही अपनी ज़िंदगी दूसरों के लिए जीते आए हैं। हम सब ऐसा ही करते हैं। हम दूसरों के लिए जीते हैं और दूसरे उम्मीद करते हैं कि वो हमारे लिए जिए। जब हम दूसरों के लिए करते हैं तो हम उस बात का अहसान मनवाना चाहते हैं और जब दूसरा करता है तो उसे उसका फर्ज़ मानकर हल्का करने की भी पूरी कोशिश करते हैं। ऐसे में हमारे आसपास अगर एक भी अपनी ज़िंदगी अपने लिए जीनेवाला, हिम्मती और सामाजिक रूप से मतलबी मिल जाता है तो हम अपनी नाकामयाबी को छिपाते हुए उसे कोसने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। दरअसल, सामाजिक प्राणी वही तो है जो कि अपनी ज़िंदगी कुंठा में दूसरों के लिए बिता दें। और, दूसरों को समाज के लिए ज़िंदगी बिता देने के बोझ में दबा दें...

Thursday, April 28, 2011

सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है...

शुरुआत से ही विज्ञान की छात्र होने के बावजूद कभी भी इंजीनियर बनने के बारे में नहीं सोचा। विज्ञान और गणित दोनों ही ऐसे विषय रहे हैं जोकि मुझे नबंर ज़्यादा पाने के लिए आसान लगे हैं। इसमें आपको अपनी कोई ख़ास क्रिएटिविट नहीं दिखानी होती है। लेकिन, जिस चीज़ से इंसान भागता है वो उसके सामने कभी न कभी आ ही जाती है। मेरा भी यही हाल है। आज जो काम कर रही हूँ उसका पूरा सत्व ही क्रिएटिविट में झुपा हुआ है। खैर, पिछले शनिवार को ये समझ में आया कि विशुद्घ विज्ञान या गणित किस हद तक क्रिएटिव हो सकते हैं। आईआईआईटी दिल्ली में लगे ओपन हाउस में पहुंचकर मालूम चला कि कैसे समीकरण ज़िंदगी में घुल मिलकर कुछ अनोखा बना सकते हैं। सबसे पहले ही सामना हुआ एक ऐसी साइकल से जोकि खुद ब खुद टायरों में हवा भर सकती है। सोच सचमुच अच्छी थी क्योंकि साइकल में हवा कम होने पर उसे पंचरवाले तक लेकर जाना बड़ा कड़ा काम है। लेकिन, छात्रों की इस सोच को परिपक्व होने में वक़्त लगेगा। आगे बढ़े तो कुछ छात्र एक अजीबों गरीब बैक पैक के साथ मिले। पास जाने पर मालूम चलाकि ये मज़दूरों को ज्यादा भार आसानी से उठा लेने के लिए तैयार किया गया है। विशुद्ध वैज्ञानिक नियमों के ज़रिए सबसे बड़ी समस्या का निदान। ये प्रयोग मुझे अच्छा लगा हालांकि जिस देश में हाड़ तोड़ मज़दूरी करनेवालों को जहां ठीक से खाना नहीं मिलता उन्हें ये बैक पैक कहां नसीब। कुछ मॉडल ऐसे भी थे जिन्हें छात्रों ने बनाया तो था कि बेहतरीन सोच के साथ लेकिन वो उसे समझा नहीं पा रहे थे। कुछ-कुछ ऐसा ही था एक जूट का गिटार। जोकि छात्रों के मुताबिक़ इको फ्रेन्डली और सस्ता था लेकिन, छात्र ये नहीं बताया कि कैसे वो इसे एम्लिफाय कर सकता है। कुछ छात्राओं ने कपड़े सुखाने की मशीन बनाई थी तो कुछ ने एक समान प्लटों को धोने की। कुछेक सार्वजनिक स्थलों से कचरा हटाने में जुटे थे। सभी छात्रों की सोच तो काबिल-ए-तारीफ़ लगी लेकिन, साथ में ये भी ये भी लगाकि ये सोच दुनियादारी से बहुत दूर है। जब असल में इन्हें उपयोग में लाने की बात होगी तो हो सकता है कि कई रुकावटें आएं। कुछ भी हो लेकिन ये सोचकर एक सूकून मिला कि देश का ये भविष्य समाज के लिए सोच रहा है।

अंत में- आईआईटी में छात्रों को इन प्रयोगों के साथ देखकर जितना अच्छा लगा उतना ही दुख हुआ दिल्ली के स्कूली छात्रों को देखकर। एक भी छात्र इन प्रयोगों को देखने के लिए आया हो ऐसा नहीं महसूस हुआ। सभी बस झुण्ड बनाकर इधर-उधरकर हंसी हंगामा करते नज़र आए। कुछेक तो बदतमीज़ी से बात करते भी दिखे। आईआईटी में आकर महसूस हुआ कि सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है।

Friday, April 22, 2011

सफ़र से मिलती सीख...

बांटने से डर बढ़ता है। आप अगर जानबूझकर किसी वस्तु या व्यक्ति से दूर रहेंगे तो आपकी उसके बारे में राय आभासी होगी। ऐसे वक़्त में अगर उसके बारे में एक भी नकारात्मक ख़बर आ गई तो बस। ये बात मुझे महसूस हुई गुरुवार को। जब रात साढ़े दस बजे मैं ग्रीन पार्क मेट्रो स्टेशन पहुंची। मेट्रो से सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन का साधन शायद ही कोई हो। इस बात को जानते हुए भी मैं थोड़ी बेचैन सी थी। मुझे आजकल ट्रेन के लेडीज़ कोच में महिलाओं के साथ सफ़र करने की ऐसी आदत हो गई है कि सामान्य कोच में पुरुषों के साथ यात्रा करने में घबराहट होती है। ऐसे में रात के साढ़े दस बजे तो लेडीज़ कोच के मायने को ही पुरुष यात्री नकार देते है। खैर, मेट्रो आई और लेडीज़ कोच में एक भी पुरुष यात्री नहीं था। दरअसल पूरा कोच खाखी रंग में पुता हुआ सा लग रहा था। पूरे कोच में सीआईएसएफ़ की महिला सिपाही बैठी हुई थी। हर स्टेशन से चार-पांच का इजाफ़ा भी हो रहा था। सभी अपनी-अपनी ड्यूटी ख़त्म करके आ रही थी। बस उनकी खाखी वर्दी के डर से ही किसी की हिम्मत नहीं हुई लेडीज़ कोच में घुसने की। ग्रीन पार्क से राजीव चौक का सफर मैंने सूकून से काटा। मेरे मन को खाखी वर्दी पहनी महिलाओं को देखकर बहुत आराम मिला। अंजान डर से थोड़ी सी राहत। इसके बाद राजीव चौक पहुंचते ही मन फिर डूबने लगा। दिन की आखिर मेट्रो को पकड़ने के लिए मुझे चालीस मिनिट तक वही रुके रहना पड़ा। पूरे समय यही तनाव कि लेडीज़ कोच में पुरुष ना बैठे हो। अंजान पुरुषों के साथ सफ़र ना करने का हश्र ऐसा होगा कभी सोचा नहीं था। एक समय था जब मैं बस और मेट्रो में उनके साथ कंधे से कंधा टकराकर सफ़र करती थी। आगेवाले डिब्बे की तरफ टहल रहे लड़कों को देखकर मेरा बीपी बढ़ रहा था। मुझे अचानक से लगने लगा कि इस तरह का बंटवारा भले ही सहुलियत देता हो लेकिन, ये मन में कई भय भी छोड़ देता है। अचानक से ही साथ में बैठा अंजान पुरुष वहशी लगने लगता है। एक आरामदायक सफर तनाव भरा हो जाता है। स्टेशन पर बिताए चालीस मिनिट और उसके बाद ट्रेन में गुज़ारे 20 मिनिट पूरे तनाव में गुज़रे। हालांकि इस दौरान न तो किसी पुरुष ने मुझे घूरा और न ही बदतमीज़ी की। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि इस तनाव से ही मैं इतनी कमज़ोर हो रही हूँ कि अगर किसी ने कोई बदतमीज़ी की भी तो मैं शायद अपना बचाव न कर सकूं। समाज ऐसा होना चाहिए जहां सभी एक साथ आरामदायक और दोस्ताना तरीक़े से रह सके। यूं अलग-अलग कोच में बांट देने से एक दूसरे के प्रति सम्मान कम और डर ज़्यादा बस जाता है। हमें एक दूसरे के साथ रहकर एक दूसरे का सम्मान करना आना चाहिए। ना कि जिस चीज़ से डर लगे उससे यूं दूर भागना चाहिए।

Monday, April 18, 2011

समझ ज़रूरी है...

स्कूली दिनों को हम लोग मौज मस्ती के लिए ही ज़्यादातर याद करते हैं। पढ़ाई भी याद आती है तो किसी शिक्षक की बातों से या किसी शरारत से। ऐसा शायद ही किसी के साथ होता हो कि वो स्कूल को वहाँ की बेहतरीन पढ़ाई के लिए याद करता हो या ये याद कर रहा हो कि उसके स्कूल में जो उसे पढ़ाया वो आज काम आ गया। स्कूल एक ऐसी जगह बन गई है जहाँ जाना आपके पढ़े लिखे होने का सबूत है। लेकिन, स्कूल में मिलनेवाली शिक्षा इतनी ज़्यादा एक ढर्रेवाली और निरस होती है कि उसे पढ़ने के बाद न तो वो हमें वो आनेवाले समय के लिए बहुत लाभदायक लगती है और न ही एक सुखद याद की तरह हमारे साथ रहती है। शिक्षा पद्धति को रोचक बनाने के लिए आज के वक़्त में बहुत से काम हो रहे है। ख़ासकर गणित और विज्ञान जैसे विषयों को लेकर। यही ऐसे दो विषय रहे हैं जिनसे बच्चे सबसे ज्यादा भयभीत रहे हैं। इन विषयों को सरल बनाने के लिए जोड़ो ज्ञान नाम की संस्था भी काम रही है। ये संस्था गणित और विज्ञान को लेकर कई किट बना चुकी है। इस संस्था का मानना है कि किसी भी विषय को व्यवहारिक रूप से समझाया जाना ज़रूरी है। प्रायोगिक तौर पर बातों को सिखाने की शुरुआत बचपन से ही होनी चाहिए। अपने कार्यक्रम के सिलसिले में जब मैं इस संस्था के एक केन्द्र पर पहुंची तो मुझे तीन क्लास नज़र आई। क्लास के नाम चमकता सूरज और टिमटिमाते तारे और कुछ ऐसे ही थे। पहली क्लास में नन्हे मुन्ने ब्लॉक्स छुपा रहे थे। ये केवल उतने ही ब्लॉक छुपाते हैं जितने कि मैडम के बड़े से डायस को उछालने पर आते हैं। बच्चे अंकों को समझते है वो जानते हैं कि दो क्या है और चार क्या। हां लेकिन, वो अभी लिखना नहीं जानते हैं। यहां अमूर्त गणित को मूर्त रूप से दिमाग़ में सहेजने का काम चल रहा है। स्कूल एक सीधी खड़ी बिल्डिंग में था, सो ऊपर पहुंचने पर हमने देखा कि अलग-अलग उम्र के बच्चे एक साथ काम कर रहे हैं। एक बच्चा स्कैच कर रहा है तो दूसरा उसमें रंग भरेगा और तीसरा उसके बारे में लिखेगा। अलग-अलग उम्र के बच्चों को यूं एक साख देखकर आश्चर्य हुआ। मुझे स्कूल की एक शिक्षक ने समझाया कि इनमें शामिल बड़े बच्चे स्कूल ड्रॉप आउट है। और, यहां सामान्य स्कूलों से इतर साथ काम करना सिखाया जाता है। उनका मानना है कि हमें आगे चलकर साथ मिलकर ही काम करने होते हैं लेकिन, स्कूलों में सिखाया जाता है कि कैसे अलग और अकेले काम किए जाए। प्रतिस्पर्धा इतनी ज़्यादा होती है कि हम साथ काम करना भूल ही जाते है। जबकि यही वो समय है जब साथ रहना आसानी से सीखा जा सकता है। इसके बाद हम पहुंचे सबसे ऊपर बड़े बच्चों की क्लास में जहां बच्चे एक ऐसा प्रयोग कर रहे थे जोकि साल भर तक चलेगा। दिन और रात के अनुपात को समझने का प्रयोग। इसके लिए उन्हें साल भर तक सुबह उठकर सूरज के उगने का समय और शाम को ढलने का समय नोट करना था। इस प्रयोग से जो वो सीखेंगे वो उसे ज़िंदगीभर याद रखेंगे। और, यही तो होती है असल शिक्षा। जोड़ो ज्ञान अपने स्तर पर ज्ञान को सरल और सुगम तरीक़े से जोड़ने का काम कर रहा है। वो सरकारी स्कूलों में इस तकनीक को लागू करवाना चाह रहा है। ये सब बस इसलिए कि बच्चे पढ़े आगे बढ़ने के लिए, ज़िंदगी में उसे ढालने के लिए। ना कि बस रटने के लिए...

Wednesday, April 13, 2011

जब साइकल से नापा दिल्ली को...

कई बार ऐसा होता है कि नौकरी करते-करते एक ऐसा वक़्त आ जाता है कि हम कुछ नए की तलाश में लग जाते हैं। वही कुछ ना मिल सकें तो कही और खोजना शुरु कर देते है। परिवर्तन की चाह स्थाई भाव की तरह हमारे साथ चिपका रहता है। लेकिन, मैं हमेशा से यथास्थिति को बनाएं रखने में यक़ीन रखती हूँ। जो जैसा है वैसा ही रहे कुछ ना बदले। जैसे ही कुछ बदलाव होते हैं मैं बैचैन होने लगती हूँ। दरअसल ये मेरे अंदर का डर और आत्मविश्वास की कमी है जोकि मुझे परिवर्तन के प्रति पहले से ही डरा देती हैं। खैर, नौकरी के मामले में मेरी राय बदलाव न होने के मामले में कुछ ज्यादा है। लेकिन, न चाहते हुए भी हर बार, हर नए हफ्ते में किसी नई परिस्थिति में पड़ जाती हूँ। मेरे साप्ताहिक कार्यक्रम सुर्खियों से परे के लिए मुझे ऐसी-ऐसी ख़बरें खोजनी और करनी पड़ती है जो मुझे कुछ नया अनुभव मुफ्त ही दे जाती है। कभी मुझे संसद भवन की रखवाली में लगे लंगूर से हाथ मिलाने पड़ता है, तो कभी गधों के लिए काम करनेवाले अंग्रेज़ जोड़े के साथ घूमना और कभी तो कपड़ों की धुलाई के नए तरीक़ों की छानबीन करनी पड़ जाती हैं। कइयों को लगता है कि मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे ऐसे मौक़े मिलते हैं लेकिन, मुझ जैसी आलसी के लिए ये मौक़े बहुत ही भारी होते हैं। और, आसली होने के बावजूद मेरे कामचोर न होने की वजह से हर बार ऐसी स्टोरी से मुझे दो चार होना ही पड़ता हैं। बात कुछ 15 दिन पहले की है जब मुझे डेल्ही बाय सायकल के बारे में जानकारी हुई। कुछ विदेशी जो कुछ साल से दिल्ली में रह रहे हैं, दिल्ली की सैर करवाते हैं। सैर का तरीक़ा ऐसा जो कोई भी पारंपरिक भारतीय पर्यटक कभी ना अपनाएं। साइकल पर सवार होकर ये लोग पर्यटकों को दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों की सैर करवाते है। जैसे कि पुरानी दिल्ली का वो इलाक़ा जिसे शाहजहां ने बसाया था या फिर यमुना के किनारे बसी दिल्ली या फिर अंग्रेज़ों के समय बसी दिल्ली। ये सभी सुबह-सुबह एक निश्चित समय पर पहुंचकर पर्यटकों को साइकल थमा देते हैं और आगे-आगे साइकल चलाते जाते हैं और पीछे पर्यटक। मैं भी इस टूर को शूट करने के लिए सुबह 6 बजे पहुंच गई पुरानी दिल्ली के डिलाइट सिनेमा के सामने। वहां मिली स्तासा। स्तासा इस ग्रुप की एक गाइड है। उसने हमें बताया कि कैसे वो पिछले पांच महीने से भारत में केवल इस ग्रुप के साथ इंटर्नशीप के लिए है। इसकी शुरुआत जैक ने की है जोकि नीदरलैण्ड से है। वो दिल्ली में नीदरलैण्ड के एक अखबार के संवाददाता के रूप आए थे। लेकिन, कुछ नए की चाह में उन्होंने दिल्ली को साइकल पर घुमाने की शुरुआत की। सुबह-सुबह पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में मैं साइकल चलाऊंगी ये मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन, मैं चला रही थी। जिस दिल्ली में 6 साल से कुछ नहीं चलाया और शूट के चक्कर में उसे पूरा नाप लिया। उस दिल्ली में मैं साइकल चला रही थी, वो भी कुछ 15 साल बाद। मैं और मेरा कैमरामैन हम दोनों ने पूरे 11 किलोमीटर के टूर में कभी उनका पीछा किया तो कभी उनके आगे चले। मेरे कैमरामैन साइकल से ही ऑफिस आते हैं, तो साइकल नहीं लेकिन उसे चलाते हुए कैमरा हैंडल करना ज़रूरत भारी पड़ा होगा। पुरानी दिल्ली की गलियों में यूं साइकल पर देखकर लोग तो हमें कम चौंके मैं खुद ही अपने आपमें चौंकी हुई सी थी। स्तासा ने हमें तुर्कमान गेट, पुराने घर और मंदिर दिखाए। हालांकि इनके बारे में उसकी जानकारी मुझे कुछ कम लगी। कई बार मुझे उसे सही करना पड़ा। कामकाज स्पष्ट बोलना कितना ज़रूरी और हिम्मतवाला काम है ये मैंने उससे सीखा। स्तासा ने हमारे टूर के दो पर्यटकों को आधे टूर से ही लौटा दिया क्योंकि वो साइकल नहीं चला पा रहे थे। बिना किसी लाग लपेट के उसने कहां और वो दोनों चले भी गए। कोई भारतीय होता तो पैसे देने का रौब जमाते और साइकल ना आने की बात को छुपाने के पीछे दलील देते और वही झगड़ने लगते। स्तासा ने चांदनी चौक, फतेहपुरी मस्जिद, लाल किला और जामा मस्जिद भी दिखाई। इन्हें कई लोगों ने कई बार देखा होगा। लेकिन, जैसे मैंने देखा और जैसा महसूस किया वो यूनिक था। चांदनी चौक पर साइकल चलाना या फिर लाल किले के सामने भीड़ भाड़वाली सड़क को साइकल से क्रास करना। इस टूर में हमने नई दिल्ली को भी देखा और बदहाल यमुना नदी के साथ गंदी गौशालाओं को। इस सबके बीच कई बार ये महसूस हुआ कि अंग्रेज भारत गंदगी देखने ही आते हैं। इन टूर में भी अधिकतर अंग्रेज़ होते हैं। क्योंकि उन्हीं को भारत के इस चेहरे में दिलचस्पी है और वही है जोकि घूमने के उद्देश्य से लगातार तीन घंटे साइकल चला सकते हैं। हमारे लिए तो घूमने का अर्थ ही आराम होता है। मेरे लिए इस टूर को शूट करने से बड़ा अनुभव रहा यूं साइकल चलाना और दिल्ली के गली कूचों से गुज़रना। जहां कुछ लोग मुस्कुराते मिले तो कुछ छेड़ते और फब्तियाँ कसते। दो दिन तक उनका पीछा करने के बाद तीसरे दिन सुबह-सुबह में जल्दी ही उठ गई और लगा कि जैसे फिर चली जाऊं। मेरी यही तो परेशानी है बदलाव से डरती हूँ और अगर कुछ बदल जाएं तो बस उसी में ढल जाती हूँ...

Monday, March 7, 2011

मरने का हक़...

इंसान का स्वभाव एक मुश्किल पहेली है। कौन, कब, कैसे, क्या करेगा कोई नहीं कह सकता है। एक भी ऐसा मुद्दा नहीं जिस पर सबकी राय एक सी हो। कुछ लोग अतिवादी होंगे तो कुछ उदारवादी। अरुणा शानबाग के लिए इच्छा मृत्यु सही है या ग़लत इस पर भी लोगों की कई तरह की राय है। हालांकि अपने जीवन पर अरुणा कोई राय व्यक्त करने लायक़ नहीं। अरुणा को सालों से संभाल रहे अस्पताल के कर्मचारी उसे ज़िंदा देखना चाहते हैं, तो दूसरी ओर उसके जीवन को शब्दों में उकेर चुकी लेखक उसे पीड़ा से मुक्ति दिलाना चाहती है। अरुणा की ख़बर सुनकर गुज़ारिश याद आ गई। फ़िल्म में ईथन मैक्सरेगस ख़ुद अपने लिए मृत्यु मांगता है जोकि उसे नहीं दी जाती हैं। अपनी ज़िंदगी शान से जी चुके ईथन को ये महसूस होता है कि कोई नहीं है जो उसके दर्द को समझता हो। ईच्छा मृत्यु एक ऐसा विषय है जिस पर कभी एक राय तो क्या किसी एक व्यक्ति की हमेशा एक राय नहीं हो सकती हैं। इंसान अगर ख़ुद किसी असह्य पीड़ा से गुज़र रहा हो तो वो रोज़ाना यही प्रार्थना करता है कि हे ईश्वर ! मुझे उठा ले। लेकिन, वही अगर उस जगह उसका बच्चा हो तो वो पूरे समय ईश्वर से उसकी सलामती और बेहतरी की दुआ मांगता हैं। एक भी बार उसके मुंह से उसके लिए मौत की बात नहीं निकलती हैं। वैसे भी हमारी ईच्छाएं समय और परिस्थितियों पर सौ फ़ीसदी निर्भर करती हैं। आज हम जिसे चाहते हैं कल उसे नकारते हैं। या आज जो हमें नापसंद है, कल वो ही हमारा चहेता होता हैं। ऐसे में मौत की कामना करना कहाँ तक सही होगा। मेरे चाचा की दो हफ्ते पहले कैंसर से मौत हो गई। भाई-बहनों में सबसे छोटे वो पिछले पाँच साल से पल-पल मर रहे थे। मन ही मन उनकी इस परिस्थिति से दुखी होकर हर कोई उनके स्वस्थ होने की कामना करता था। लेकिन, अंतिम समय में बदतर हो चुकी उनकी हालत को देखकर सभी उनके लिए मौत ही मांग रहे थे। अपने अंत समय तक इंसान के मन में जीने की प्रबल इच्छा होती है। आखिरी सांस तक हम जीना चाहते हैं। लेकिन, कई बार ये जीवन मौत से बदतर हो जाता है। ऐसे में जीने के अधिकार के साथ क्या मरने के अधिकार का भी होना ज़रूरी नहीं है? ये कहा जा सकता है कि इसका ग़लत इस्तेमाल भी हो सकता है लेकिन, फिर बस वही बात कि ऐसी कौन सी चीज़ है जिसका सही और ग़लत दोनों तरीक़ों से इस्तेमाल न हो रहा हो। मेरी एक सहकर्मी की दलील है कि जो लोग इलाज कराने में अक्षम है उन्हें इस बात की छूट होनी चाहिए कि अपने या अपने परिवार के किसी सदस्य के लिए इच्छा मृत्यु मांग सकें। लेकिन, क्या पैसे की कमी किसी की ज़िंदगी तय कर सकती है? क्या इसका मतलब ये हुआ कि पैसा है तो जीओ नहीं तो मर जाओ। इन सबके बीच एक और बात सामने आई। मेरे एक ऐसे ही बिस्तर पर पिछले कई साल से पड़े लड़के के उदाहरण पर मेरी सहकर्मी ने झट से कहा कि- उसके परिवारवाले उसे इसलिए नहीं मार रहे है कि वो परिवार का एकमात्र लड़का हैं। मेरा खून खौल गया। मुझे लगा कि जैसे उस लड़के माता-पिता के प्यार पर मतलब का चांटा पड़ गया हो। वही ये भी हुआ कि बच्चियों की जन्म लेते ही हत्या कर देना भी फिर मर्सी किलिंग के तहत आने लगेगा। क्या मर्सी किलिंग की आड़ में छुपकर लोग हत्याएं भी कर सकते हैं। अरुणा के मामले में ही अरुणा की ये हालत करनेवाला इंसान सात साल जेल में बिताकर कही आराम की ज़िंदगी जी रहा है। अपनी कुछ सेकेंड की हवस को शांत करने के लिए उसने एक पूरी की पूरी ज़िंदगी को बर्बाद कर दिया। गुनाह करनेवाला तो आसानी से छूट गया लेकिन, जिस पर बीती वो आज तक सज़ा भुगत रहा हैं। मर्सी किलिंग एक ऐसा विषय है जिस पर किसी एक या दो या एक दर्जन केस के ज़रिए भी फैसला या एक नियम बनाना असंभव है। क्योंकि हर इंसान के लिए ज़िंदगी और मौत दोनों के प्रति सोच अलग-अलग समय पर अलग-अलग है...

Tuesday, February 8, 2011

स्त्रीलिंग होने का अर्थ...

दिल्ली में चलनेवाली मैट्रो ट्रेन में महिलाओं के लिए आरक्षित अलग कोच कई पुरुषों को ग़लत लगता है। पुरुषों की दलील है कि महिलाएं तो कंधे से कंधा मिलाकर चलती है। तो फिर क्यों अब वो अलग कोच चाहती है। महिलाओं की बराबरी पुरुषों को कितनी पसंद है और कितनी नापसंद इसका जवाब तो कोई पुरुष ही दे सकता है लेकिन, महिलाओं की हिम्मत को उनकी अकड़ और उनकी परेशानियों को उनकी ढाल माननेवाले पुरुषों के लिए ही एक सर्वे हुआ है। अगर वो चाहे तो इस लेख को पढ़ने के बाद महिलाओं की तकलीफ़ों को समझने और सही मानने की एक नए सिरे से कोशिश शुरु कर सकते हैं...

गैर सरकारी संगठनों की ओर से हुए एक सर्वे के मुताबिक़ भारत में केवल 12 फ़ीसदी महिलाओं को ही माहवारी के दौरान साफ़-सुथरे नैपकिन उपयोग के लिए मिल पाते हैं। ये आंकड़ा चौंकानेवाला है। कम से कम मेरे लिए। शहरों में रहनेवाली और जीने के लिए ज़रूरी चीज़ों को आसानी से पा लेनेवाली मुझ जैसी लड़की के लिए ये आंकड़ा चौंकाने के साथ डराने का भी काम कर रहा है। देश की मात्र 12 फ़ीसदी महिलाएं नैपकिन का इस्तेमाल कर पाती है। संभव है कि ये महिलाएं मुझ जैसी शहरी ही हो। मतलब कि गांव और कस्बों में हर महीने महिलाओं को चार से पाँच दिन बद से बदतर हालात में गुजारने होते होंगे। बेहतरीन क्वालिटी और हाईजीनिक नैपकिन्स के इस्तेमाल के बाद भी कई बार दर्द और परेशानी जब सहन नहीं होती है तब उनकी क्या हालत होगी जो कपड़े या फिर पॉलीथीन का इस्तेमाल करती हैं। इन दिनों में साफ सफाई के साथ शारिरीक तौर पर आराम बेहद ज़रूरी माना जाता है। ऐसे में सर्वे के मुताबिक़ कई महिलाएं इस दौरान राख या रेत का भी प्रयोग करने के लिए मजबूर है और काम उतना ही जितना रोज़ाना होता है। राख या रेत के इस्तेमाल से कई महिलाओं को घाव हो जाते हैं और कई तरह की बीमारियाँ भी हो जाती हैं। गांवों में महिलाओं को इस दौरान अछूत मान लिया जाता है। कोई उन्हें छूता तक नहीं है और न ही उन्हें किसी मंगल कार्य में शामिल होने दिया जाता हैं। माहवारी के दौरान घर के काम या किचन में घुसने की मनाही के पीछे मूल वजह महिला को आराम देना और स्वच्छता को बनाए रखना ही होगी, जो आगे चलकर रूढ़ीवादी सोच में बदल गई। गांवों से इतर शहर में रहनेवालों के लिए तो टीवी पर हर ब्रेक के दौरान आनेवाले सैनेटरी नैपकिन के विज्ञापन को देखकर तो ये आभास होता है कि अब तो ये एक बेहद सामान्य सी बात है कि सभी को इसके बारे में मालूम है और महिलाएं अब इसका इस्तेमाल भी करती हैं। लेकिन, सच तो ये है कि महिला के लिए नैपकिन खरीदना परिवार के अन्य सदस्यों को एक खर्चा लगता है, उसकी मूल ज़रूरत नहीं। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने मिलकर पुराने कपड़ों को जोड़कर नैपकिन बनाने की शुरुआत की है जिसकी क़ीमत 1 रुपए प्रति नैपकिन पड़ेगी। लेकिन, जहाँ महिला को पहनने को कपड़े और खाने के लिए पैसे ना हो वहाँ एक रुपए का नैपकिन भी बहुत बड़ी और मंहगी बात हैं। कई बार मुझे लगता है हम सच में आगे बढ़ रह रहे हैं। देश की महिलाएं पुरुषों से कन्धा मिलाकर चल रही है। बैंकों की सीईओ महिलाओं की मुस्कुराती तस्वीरों को देखकर लगता है कि महिलाएं अब किसी बात में पीछे नहीं। लेकिन, इन्हीं ख़बरों के बीच छुपी ये एक कॉलम की ख़बर सर से पैर तक एक झुरझुरी फैला देती है।

Monday, February 7, 2011

काल्पनिक किरदारों के ज़रिए वास्तविकता दिखाती सिनेमा...

तेरे घर के सामने। देव आनन्द और नूतन की ये फ़िल्म मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है। इस फ़िल्म की कहानी से ज़्यादा दोनों के बीच का प्यार और उस प्यार के लिए उनकी लड़ाई और हिम्मत मुझे ज़्यादा पसंद है। साल 1963 में आई इस फ़िल्म को उस वक़्त आधुनिक ही माना गया होगा। क्योंकि ये तो वो दौर था जहाँ प्रेम विवाह बहुत कम होते थे और उस पर इस तरह से माता-पिता की मर्ज़ी के विरूद्द तो और भी नहीं। सामाजिक ढ़ांचा ज़रूर ऐसी बातों को स्वीकृति देने लगा होगा लेकिन, केवल बातों में। मतलब ये कि युवा ये ज़रूर मानने लगे होंगे कि अपनी मर्ज़ी से किसी से प्रेम और फिर शादी की जा सकती हैं लेकिन, कितने करते होगे और कितने कर पाते होंगे इस पर मुझे शक़ हैं। ये हाल हमेशा से ही रहा हैं। सिनेमा कई बार समाज की वो तस्वीर दिखाती हैं जोकि लोगों की बातों में तो है लेकिन, कर्मों में नहीं। अगर हम आज की ही बात करें। तो कई ऐसे हैं जोकि खुले संबंधों और विचारों की बात तो करते हैं लेकिन, जब करने की बारी आती हैं तो पीछे हट जाते हैं। लव आज कल की मीरा ने प्यार किया, सेक्स किया फिर खुशी से ब्रेक भी। फिर किसी और से प्यार और शादी। लेकिन, दूसरे ही दिन पति से ये बोलकर अलग हो गई कि कुछ ठीक नहीं लग रहा हैं। मीरा आज की ही लड़की हैं लेकिन, ऐसी कितनी लड़कियाँ असल में हैं जोकि ऐसा कुछ कर सकती हैं। हाँ, सोचने या इस तरह की बातों को बोलनेवाली कई मिलेंगी। सिनेमा के ज़रिए हम कई बार वो ज़िंदगी जी लेते हैं जोकि हम जीना तो चाहते हैं लेकिन, हिम्मत नहीं कर पाते हैं। ऐसे कई और उदाहरण हो सकते हैं जहाँ फिल्म के मुख्य किरदारों ने ऐसे विद्रोह किए हैं जोकि हमारे मन में कही ना कही दबे पड़े हैं। वो केवल प्यार के मामले में ही नहीं है और कई मामलों में हैं। रंग दे बंसती देखते ही हमारे रौंगटे खड़े हो जाते हैं और एक जोश भर जाता हैं। लेकिन, जो फ़िल्म में हुआ वो तो छोड़िए हम तो ख़ुद को तक सही नहीं कर पाते हैं। थ्री ईडियट देखकर निकलते वक़्त मेरे दोस्त ने कहा कि यार केवल काबलियत नहीं किस्मत भी थी आमिर के कैरेक्टर की। ये सच भी है मैं काबिल तो हूँ लेकिन, अगर मुझे कोई मौक़ा ही ना दे तो? किस्मत से मौक़ा मिलता है और जो काबिल होता है वो उसे भुना लेता है। सिनेमा हमारे भीतर छुपे उस हारे हुए और ख्यालों में खोए हुए इंसान को खुश करती हैं जो अपने मन से जीना चाहता है लेकिन, जी नहीं पाता हैं। सिनेमा में हरेक पात्र काल्पनिक होता है वो भले ही सच में हो तब भी...

Wednesday, February 2, 2011

मिसेज तेन्दुलकर

टीवी पर आनेवाले आधे ये ज़्यादा धारावाहिकों में महिलाओं को आग लगाऊं और कुटिल बुद्धि दिखाया जाता था। महिलाओं का दबदबा इतना ज़्यादा कि कुटिल महिला से लड़ने के लिए भी महिला ही सामने आती थी। खैर, इस बीच दौर आया प्रतियोगिताओं का। कही नाचना तो कही गाना। और, अब बारी है रीयलिटी टीवी की। हरेक चैनल ऐसे शो की भरमार है। इसी बीच स्टार ने अपने चैनल का लुक ही महिलाओं के हिसाब से कर दिया। चैनल कितना महिलाओं के प्रति संजीदा और कितना टीआरपी के प्रति इसके बारे में मुझे शक़ है। चैनल पर शुरु हुआ नया रीयलिटी शो- वाइफ़ बिना लाइफ़। इस शो में पत्नी जाती है छुट्टी पर और पति संभालते हैं घर और बच्चों को। पूरे तौर पर व्यवसायिक इस शो के लिए ऐसे भावुक एड तैयार किए गए हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि वाह, इन्हें कितनी फ़्रिक है महिलाओं की। वही इसके पलट सब पर शुरु हुआ नया कार्यक्रम मिसेज तेन्दुलकर मुझे बेहतर लगा। इस कार्यक्रम में एक पति अपनी पत्नी की खुशी और उसके करियर को ख़ुद से ज़्यादा अहमियत देता हैं। सब कुछ छोड़कर वो घर और बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाने की ठानता है। लोगों का ऐसी बातों पर हंसना और आश्चर्य चकित होना सामान्य है। सीरियल को शुरु हुए दो दिन हुए हैं और इसकी शुरुआत मुझे भायी है। वजह कॉन्सेप्ट से ज़्यादा हैट्स ऑफ़ प्रोडक्शन और देवेन भोजानी है। दोनों का कॉम्बीनेशन कमाल है। सब पर ही आनेवाला दूसरा हिट सीरियल तारक मेहता का उल्टा चश्मा मुझे पसंद तो हैं लेकिन, उसमें भारतीय नारी के प्रोजेक्शन से मुझे कभी कभी चिढ़ होती हैं। दया का अपने पति को टप्पू के पापा कहना मुझे हमेशा अखरता है। खैर, इसी पर आनेवाला सजन रे झूठ मत बोलो और एफ़आईआर भी मुझे पसंद है। ये चैनल एक ऐसा चैनल है जो अकेले रहनेवालों के लिए बहुत बड़ा सहारा है। आप आराम से टीवी चलाकर अपने काम कर सकते हैं। ये आपको अहसास करवाता रहता हैं कि कही कोई मेला लगा है। मिसेज तेन्दुलकर पुरुषों की दबानेवाली और महिलाओं की एजी ओजीवाली सोच को बदल पाएगा इस बात पर तो शक़ है। लेकिन, मुझे हंसाने में ये ज़रूर कामयाब होगा...

Wednesday, January 26, 2011

अपना इंसाफ, अपने हिसाब...

lH; lekt esa fgalk dk dgha dksbZ LFkku ugha gS! ysfdu blh lH; lekt esa xqukgxkjksa dh Hkh dksbZ txg ugha gS! eSa ckr dj jgk gwa eaxyokj dks xkft;kckn dh fo”ks’k vnkyr esa gq, ?kVukdze dh! vk#f’k ekeys dh Dykstj fjiksVZ ij lquokbZ ds fy, tk jgs jkts”k ryokj ij tkuysok geyk gqvk! ryokj ds flj vkSj maxfy;ksa esa pksV yxh! ysfdu ftl rjg ls geyk fd;k x;k------ ;s dguk T;knk lgh gksxk fd oks cky&cky cp x,! irk pyk fd geykoj cukjl dk ogh mRlo “kekZ gS ftlus #fpdk fxjgks=k ls NsM+NkM+ ds nks’kh ,lih,l jkBkSM+ ij geyk fd;k Fkk! xkft;kckn esa gq, okd;s ds ckn lcds fnekx esa cl ,d gh ckr Fkh fd vkf[kj mRlo us ,slk D;ksa fd;k! mRlo ds firk dk dguk gS fd oks cpiu ls fnekxh :i ls chekj gS! fdlh Hkh yM+dh ;k efgyk ds lkFk dqN xyr gksrs ns[k oks viuk vkik [kks cSBrk gS! b/kj mRlo us dgk fd ekeys ds QSlys esa gks jgh nsj dh otg ls mlus ;s geyk fd;k gS! bl lcds chp gesa ;s le>uk gksxk fd mRlo dksbZ vijk/kh ugha gS! gka mlus fgalk dk jkLrk t#j vf[r;kj dj fy;k ysfdu u rks mldh jkBkSM+ ls vkSj uk gh ryokj ls dksbZ futh nq”euh Fkh!

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Tuesday, January 25, 2011

सचिन तो ध्यानचंद क्यों नहीं ?

मैने मेजर ध्यानचंद को कभी हॉकी खेलते नहीं देखा लेकिन मैने सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट में इतिहास रचते ज़रुर देखा है! क्रिकेट के खेल में एक के बाद एक रिकॉर्ड तोड़ते और नया कीर्तिमान रचते सचिन पूरी दुनिया के हीरो बन चुके हैं! आज का हर खेलप्रेमी युवा उनको अपना आदर्श मानता है! मैं भी सचिन की प्रतिभा का कायल हूं! मुझे आज भी वो दिन याद है जब पाकिस्तान के सईद अनवर ने मुंबई में सियाराम कप के दौरान एक सौ छियानवें रन बनाया था! उस वक्त मैं मैच नहीं देख पाया था! बिजली नहीं थी और हमने सईद की धुंआधार पारी रेडियो पर सुनी थी! तब से लेकर दो हजार दस तक मैने क्रिकेट के बारे में बस यही सपना पाला था कि अगर कोई अनवर का रिकॉर्ड तोड़े तो वो सचिन ही हो! और जब सचिन ने इसे पूरा किया और ग्वालियर के मैदान में वन डे इतिहास का दोहरा शतक ठोंका तो लगा कि जैसे सचिन ने मेरे लिए ही ये डबल सेंचुरी लगाई हो! वन डे हो या टेस्ट सचिन इज़ द बेस्ट! क्रिकेट जगत में सचिन की तुलना ऑस्ट्रेलिया के सर डॉन ब्रैडमैन से की जाती है! यहां तक की क्रिकेट के कई जानकारों ने सचिन को उनसे बेहतर भी बताया है! लगातार बीस साल से अधिक समय से क्रिकेट खेल रहे सचिन आज सर्वश्रेष्ठ मुकाम पर पहुंच चुके है! उनकी इस उपलब्धि के चलते उन्हें भारत रत्न से नवाज़ने की मांग की जा रही है! स्वर सामज्ञी लता मंगेशकर ने भी सरकार से बार-बार ये मांग दुहराई है! हो सकता है इस बार सचिन को देश का ये शिखर सम्मान दे भी दिया जाए! वो इसके हक़दार भी हैं! लेकिन क्रिकेट में देश के लिए सचिन के योगदान को बिना कम आंके हुए मेरा एक सवाल है! अगर सचिन भारत रत्न के हकदार हैं तो हॉकी के जादूगर माने जाने वाले मेजर ध्यानचंद क्यों नहीं ? भारत के राष्ट्रीय खेल को शीर्ष पर पहुंचाने वाले मेज़र ध्यानचंद को क्यों इस सम्मान के काबिल नहीं समझा जा रहा है! मैं पहले ही बता चुका हूं की मैंने ध्यानचंद का खेल नहीं देखा है लेकिन अख़बारों, टीवी और इंटरनेट पर मिली जानकारी के मुताबिक उन्हें यूं ही हॉकी का जादूगर नहीं कहा जाता था! 1928 का एम्सटर्डम समर ओलंपिक हो, 1932 का लॉस एंजिलिस हो या फिर 1936 का बर्लिन हो! सब जगह ध्यानचंद का जादू सर चढ़ कर बोला! तीनों ओलंपिक में भारतीय हॉकी का इतिहास स्वर्ण से लदा हुआ है! 1932 में तो मेजबान यूएसए को रिकॉर्ड 24-1 से हराने में में मेजर ने आठ गोल दागे थे! बताया जाता है कि एक दौर ऐसा था जब भारतीय हॉकी टीम अजेय मानी जाने लगी थी! इन तीन ओलंपिक के अलावा दूसरे टूर्नामेंटों में भी ध्यानचंद की हॉकी स्टिक ने कमाल दिखाया! कुछ लोग ये भी बताते हैं कि हिटलर ने उन्हें जर्मनी की तरफ से खेलने का न्योता दिया था लेकिन देशप्रेमी ध्यानचंद सिंह ने उसे ठुकरा दिया था! ऐसे में पद्म भूषण मेजर ध्यानचंद को किसी भी मायने में भारत रत्न के लिए कमतर नहीं माना जा सकता!

Monday, January 24, 2011

फ़िल्मों के इतंज़ार में...

ये साली ज़िंदगी और सात खून माफ़। दो ऐसी फ़िल्में हैं जिनका मुझे इंतज़ार है। ये साली ज़िंदगी का प्रोमो महीनेभर पहले यू ट्यूब पर देखा था। इरफान खान टीवी के ज़माने से ही मेरे पसंदीदा हैं। चित्रांगदा सिंह की अदाकारी और ख़ूबसूरती में से क्या मुझे ज़्यादा पसंद हैं ये तो मैं भी तय नहीं कर पाती हूँ। दरअसल ये दोनों ही कलाकार ऐसे हैं जिन्हें झक मार ही सही लेकिन पसंद करने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं। प्रोमो देखकर लगता है कि सुधीर मिश्रा के स्टाइल का वॉटर मार्क कही भी धुंधला नहीं हुआ होगा। ये साली ज़िंदगी.... एक ऐसा जुमला जो सभ्य से सभ्य इंसान ने एक बार ही सही अपनी ज़िंदगी में ज़रूर बोला होगा। फ़िल्म भले ही अंडरवर्ल्ड, प्यार, धोखा, सेक्स या ख़ून खराबे से भरी हुई हो लेकिन, ये तीन शब्द हरेक ने कमसेकम एक बार तो महसूस किए ही होगें। हालांकि ऐसी फ़िल्में मेरी पसंदीदा जॉनर्स में से एक में शामिल नहीं हैं फिर भी सुधीर मिश्रा, इरफान खान, चित्रागंदा और सौरभ शुक्ला के लिए इसका इंतज़ार हैं।
वहीं, सात ख़ून माफ़ का प्रोमो जब पहली बार देखा तो लगा कि इसकी कहानी बस लिखने के लिए लिखी गई कहानी हैं। मतलब कि, कुछ अलग बनाना हैं तो कुछ भी अलग भलता ही सही लिख दो। लेकिन, विशाल भारद्वाज की वजह से मन ही मन लग रहा था कि कुछ तो हैं। सो, आज मालूम चलाकि कहानी रस्किन बॉण्ड की है। मेरे कान खड़े हो गए। लगाकि ओह, तो ये बात हैं। विशाल भारद्वाज और शेक्सपियर का कॉम्बिनेशन तो देख लिया अब रस्किन बॉण्ड और विशाल भारद्वाज की जुगल बंदी देखने का मन हो गया। सुसान्नास् सेवन हसबैण्डस् के शीर्षकवाली इस कहानी के बारे में केवल इतना मालूम चला कि बीस साल से पैंसठ साल तक की उम्र के बीच इस महिला की हुई सात शादियों का तानाबाना है इसमें। फ़िल्म में मौजूद कलाकारों से उम्मीद कम और निर्देशन से उम्मीदें ज़्यादा हैं। फ़िल्म देखना हैं लेकिन, पहले कहानी को पढ़ने का मन हैं। फ़िल्म देखकर आज तक जितनी भी कहानियाँ और नाटक पढ़े हैं कभी वो मज़ा नहीं आया जो फ़िल्म देखते समय आया। इस बार कहानी पढ़कर फ़िल्म देखना चाहती हूँ। उम्मीद है, कर पाऊंगी...

Wednesday, January 19, 2011

जेसिका, सबरीना या मैं...

नो वन किल्ड जेसिका देखी। फ़िल्म अच्छी थी लेकिन, देखते वक़्त उत्साह की कमी रही। केस के बारे में सब कुछ मालूम था और फ़िल्म का अंत फ़िल्म शुरु होने के पहले से मालूम था। विद्या बालन, रानी मुकर्जी, मायरा सभी की एक्टिंग बढ़िया रही। रानी मुकर्जी के किरदार से एक पत्रकार होते हुए भी रिलेट नहीं कर पाई। महिला टीवी पत्रकार को जिस ढर्रे पर हमेशा हर फ़िल्म में बताया जाता हैं वैसी शायद पांच प्रतिशत ही होती हैं। मैं उन पांच प्रतिशत में नहीं हूँ, शायद इसलिए भी मज़ा नहीं आया। खैर, फ़िल्म में जो मुझे ख़ास लगा वो था सबरीना का संघर्ष। सबरीना को मैं जेसिका की बहन के रुप में ही जानती हूँ, जैसे कि सब जानते हैं। ऐसे में फ़िल्म में दिखाई दी सबरीना अगर असल से दस फ़ीसदी भी मिलती जुलती है तो सच में उसका संघर्ष दिल दहला देनेवाला है। पूरी फ़िल्म में मुझे यही लगता रहा कि जेसिका या सबरीना की जगह मैं या मेरी दोस्त या बहन भी हो सकती थी या हो सकती हैं। ऐसे में इस समाज में रहना और सच और इंसाफ के लिए लड़ना कितना मुश्किल हैं। सच कहूँ तो मुझे इस फ़िल्म को देखकर डर लगा। जो डर पिछले पाँच साल से इस महानगर में रहते और काम करते हुए नहीं लगा। हर क़दम, हर मोड़ पर आपको शातिर होना ज़रूरी हैं। हार ना मानने से ज़्यादा ज़रूरी वही है। फ़िल्म में भी यही दिखा। सबरीना ने हार नहीं मानी लेकिन, उससे कुछ नहीं हुआ। मीडिया के शातिरपन ने ही अपराधियों को पकड़वाया और इंसाफ दिलवाया। सच कहूँ तो फ़िल्म के अंत में मेरे कई बार आंसू बहे। ये आंसू फ़िल्म की कहानी या कलाकारों की एक्टिंग के लिए न होकर उस डर के थे जो बार-बार मुझे ये सोचने पर मजबूर कर रहे थे कि सबरीना या जेसिका की जगह मैं भी हो सकती थी या हो सकती हूँ। मैं फ़िल्म देखकर भी फ़िल्म की समीक्षा नहीं कर सकती हूँ। क्योंकि फ़िल्म को मैं फ़िल्म के नज़रिए से देख ही नहीं पाई। अंत में बस इतना कि सबरीना वाकई हिम्मती हैं और उन्होंने जो किया सबके बस की बात नहीं।

Wednesday, January 12, 2011

माँ से मायका...

आई के बारे में मेरा एक बहुत बड़ा भ्रम आज टूट गया। अपनी 78 साल की लंबी ज़िंदगी में लगातार बीमारियों से लड़नेवाली मेरी आई को देखकर मुझे हमेशा यही अहसास होता था कि उनमें जीवन को जीने की ललक बाकियों से कहीं ज़्यादा हैं। ना जाने कितने ऑपरेशनों से गुज़र चुकी मेरी आई हमेशा खुश रहती। समय पर दवाई खाती, डॉक्टर के पास जाती और अपनी हरेक छोटी से छोटी परेशानी को गंभीरता से लेती। इतना ही नहीं अपनी इन बीमारियों के लिए लोगों को भी गंभीर बनाए रखती। मैंने अपनी इस 27 साल की ज़िंदगी में उनसे ज़्यादा ख़ूबसूरत महिला नहीं देखी। एकदम बेदाग गोरे चेहरे पर कुमकुम की बड़ी-सी लाल बिन्दी और उल्टी गूंथी चोटी। हमेशा कॉटन की साड़ी में लिपटी मेरी आई को देखकर हमेशा मैं यही कहती थी कि जवानी में तो कहर ही बरपाती होगी। मेरी आई हमेशा मुस्कुरा कर रह जाती। मेरी आई मेरे दादा की चिंता भी करती और उन्हें ताने भी सुनाती रहती। मेरे पापा की माने तो उनकी सभी बेटियों ने उनके इस गुण को आत्मसात् किया है। हरेक गलती के लिए तुम्हारे दादा ही ज़िम्मेदार हैं। आई अपने उसूलों की पक्की थी। हद से ज़्यादा प्यार करनेवाली मेरी आई महीने के उन पाँच दिनों में जल्लाद बन जाती थी। किसी को नहीं छोड़ती। ऐसे में तो देवास जाने में ही जान सूख जाती थी मेरी। मेरी मम्मी मेरी आई की फोटो कॉपी है हर मामले में। भयानक रूप से डायिबटीज़ से पीड़ित मेरी आई को हमेशा याद रहता था कि कौन सी मिठाई घर में बची हुई और कहाँ रखी हुई हैं। उनकी एक बात जो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद थी वो थी उनका चीज़ों, लोगों और परिस्थितियों को स्वीकार कर लेना। वो बहुत ही आसानी से ढल जाती थी। समय के साथ चलना वो जानती थी। मुझे लगता था कि यही वो वजह है जो आई को ज़िंदा रखे हुए हैं। लेकिन, मैं ग़लत थी। आई को दादा ने ज़िंदा रखा था। दादा के जाने के चार दिन बाद ही आई भी चली गई। चार दिन भी इसलिए क्योंकि शुरुआती तीन दिनों तक तो वो समझ ही नहीं पाई कि दादा चले गए हैं। आईसीयू में ऑक्सीजन मास्क लगाए पड़ी आई को बस यही लगता कि दादा घर पर हैं। बार बार पूछती कि दादा ने रोटी खाई कि नहीं या वो मुझे देखने आए थे क्या। वो शायद ज़िंदा ही दादा के दम पर थी। वो जीना ही चाहती थी दादा के लिए। दादा अंतिम समय में चाहते थे कि वो आई को मरते देखे। वो नहीं चाहते थे कि आई कष्ट अकेले भुगते। लेकिन, वो ये नहीं जानते थे कि वो ही थे जिनमें आई की जान बसती थी। आई-दादा जीवनभर साथ रहे और आज भी साथ ही हैं। आखिर में बस मम्मी कि एक बात याद आती हैं जो वो हमेशा बोलती रहती थी - माँ से ही मायका है। जिस दिन वो गई मायका गया। आज मुझे भी यही महसूस हो रहा है कि देवास मेरा ननिहाल मेरी आई यानि कि मेरी नानी से ही था...

Monday, January 10, 2011

इस्तीफ़ा...

ज़िन्दगी के चार दशक परिवार के मुखिया के पद पर बिताकर अंततः उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अपने दो सौ साल पुराने घर में 83 साल तक रहनेवाले उस वृद्ध ने अपनी हरेक ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया। बचपन में ही पिता की मौत के बाद अपनी माँ के साथ मिलकर उन्होंने अपने सात भाई बहनों की पढ़ाई से लेकर शादी तक की ज़िम्मेदारी निभाई। अपने दादाजी को भी सालों तक संभाला। अपनी नौकरी में मिले हेडमास्टर के पद को पूरी ज़िम्मेदारी से निभाया। इन ज़िम्मेदारियों को निभाने में उनकी पत्नी ने उनका पूरा साथ दिया। ये बात अलग है कि मानसिक रूप से उनकी सहभागी उनकी पत्नी जीवनभर शारिरीक रूप से बीमार ही रही। अंतिम समय में भी संयोग कुछ ऐसा बना कि आईसीयू में भर्ती अपनी पत्नी के साथवाले बिस्तर पर आकर लेटने के बाद ही उन्होंने प्राण त्यागे। ये पति-पत्नी का जोड़ा मेरे मन में ऐसा था जो कभी बिछड़ नहीं सकता था। जो कभी मर नहीं सकता था। सच में, मैं हमेशा यही सोचती थी कि आई-दादा को कभी कुछ नहीं होगा। खैर, वो चले गए। अपने पीछे पाँच बेटियों और एक बेटे को उनके भरे-पूरे परिवार के साथ। उन्होंने न सिर्फ़ अपने नाती- नातिनों और पोते-पोतियों को बढ़ते देखा बल्कि उनकी शादियाँ और उनके बच्चों को स्कूल कॉलेज जाते भी देखा। हेडमास्टर की कमाई में पाँच बेटियों की शादी की। अमीर तो नहीं लेकिन, सुयोग्य वर उनके लिए खोजे। पैसे से ज़्यादा प्राथमिकता व्यवहार और स्वभाव को दी। उनके ही एक दामाद को पूरे खानदान ने इसलिए पसंद किया क्योंकि वो इनकम टेक्स में नौकरी करता था। लेकिन, शादी से पहले उसके नौकरी छोड़ देने और एक पीआरओ की नौकरी करने पर भी वो विचलित नहीं हुए। उन्हें दामाद की ईमानदारी दिखी कि उसने नौकरी छोड़ने की बात को छुपाया नहीं। हाँ वो कई बार समाज के आगे झुके भी। कई बार समाज के दबाव में आकर बच्चों की मर्ज़ी के खिलाफ फैसले भी लिए जोकि उनके बच्चों ने माने भी। शायद ऐसे में नई पीढ़ी की मन मर्ज़ी ने उन्हें बहुत दुखी कर दिया। हमेशा मुखिया होने के ताने फैसले करने और उन्हें सुनानेवाले को ये बर्दाश्त नहीं हुआ कि कोई उनके आगे बोले या उनकी बात ना माने। यही वजह है कि अपने अंतिम दिनों में वे बहुत दुखी रहने लगे थे। मन ही मन किसी शोक में घुलने लगे थे। वही जीवनभर बीमार रही उनकी पत्नी शरीर से भले ही कमज़ोर हो लेकिन मन की पक्की निकली। आज सोचती हूँ तो लगता है कि अगर ऐसा ना होता तो इतनी बीमारी के साथ कोई जी ही नहीं सकता हैं। दादा जहाँ मन के विपरीत होनेवाले हरेक परिवर्तन से विचलित और परेशान रहने लगे, वही आई उस हरेक परिवर्तन के साथ खुद को भी बदलती गई। जो जैसा मिला उसमें खुश होती गई। पिछले तीन साल से मैं आई और दादा को आसपास बिस्तर डाले बीमार एक दूसरे को ताकते हुए देख रही थी। हर सांस पर दादा को इस बात की चिन्ता सताती की साथवाले बिस्तर पर पड़ी उनकी पत्नी तो ठीक है ना। कुछ दिनों से उन्होंने आई (उनकी पत्नी) के मरने के लिए दुआएं मांगनी शुरु कर दी। वो नहीं चाहते थे कि वो उन्हें यूँ ही बीमार छोड़ अकेले चले जाए। मैंने उन्हें जब भी देखा एक रिटायर हेडमास्टर की ठसक के साथ देखा। मेरे जीवन के वो एकमात्र इंसान जिन्हें मैंने लंगोट बांधते देखा हैं। हमेशा सफारी में रोज़ माता की टेकरी चलकर जाते। एक दम फीट। किसी तरह की कोई बीमारी नहीं कोई परेशानी नहीं। शायद नई पीढ़ी की मनमर्ज़ी और अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीने की जिद के आगे वो झुक नहीं पाए। अपने छोटे भाई-बहनों से लेकर अपने बच्चों तक किसी के मुंह से जिसने अपने लिए ऊंची आवाज़ नहीं सुनी वो अंदर ही अंदर घुटने लगे थे। दादा के जाने की ख़बर सुनकर मैं भी रोई। जब मालूम चलाकि उनकी अंतिम यात्रा में इतने लोग उमड़े थे कि मोहल्ले में पैर रखने की जगह नहीं थी तो मन ही मन गर्व भी महसूस हुआ। दादा के जाने का दुख तब सबसे ज़्यादा होता है जब मैं आई के बारे में सोचती हूँ। ऑक्सीजन मास्क पहने बिस्तर पर पड़ी दुनिया की सबसे सुन्दर मेरी आई कभी दादा की याद में रोती हैं तो कभी सब कुछ भूलकर दादा के रोटी खाने की चिंता करने लगती है। कभी दादा से गुस्सा हो जाती हैं कि मुझसे मिलने क्यों नहीं आए। अब ऐसा लगता है कि दादा को आना चाहिए और आई को ले जाना चाहिए। मैं हमेशा से ही आई की इस बात की कायल रही हूँ कि उनमें जीवन को जीने की ललक सामान्य से ज़्यादा है। लेकिन, अब लगता है कि आई तो तब तक ही आई थी जब तक दादा थे। मेरे दादा ने अपना जीवन पूरा जिया। एक आत्मसम्मान और ठसक के साथ जिया। लेख का अंत कैसे करूँ मुझे समझ नहीं आ रहा है। बस इतना ही कहूंगी कि मेरे दादा यानी कि नानाजी दयाशंकर रामनारायण शुक्ल ने अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक़ जी और जब लगा कि अब उन्हें नहीं जीना वो चले गए। और, अब मैं बस इतना चाहती हूँ कि मेरी आई यानि कि मेरी नानीजी श्रीमती अन्नपूर्णा दयाशंकर शुक्ला को हम उनके दादा के बिना भी संभाल पाए।

Monday, January 3, 2011

सिनेमा को समझनेवालों के लिए...



कुछ दिन पहले ही मैंने नेट पर उर्फ़ प्रोफेसर देखी। पंकज आडवाणी की निर्देशित ये फिल्म सिनेमा घरों तक नहीं पहुंच पाई है। आडवाणी ने इस फिल्म की एडिटिंग भी की हैं। यूं ही नेट की सैर के दौरान मैंने इस फ़िल्म के बारे पढ़ा। फिर पढ़ा कि पंकज आडवाणी जाने भी दो यारो में कुंदन शाह के सह-लेखक रह चुके हैं और संकट सिटी भी पंकज की ही फ़िल्म थी। साथ ही ये भी पता चला कि मात्र 45 साल की उम्र में उनकी हार्ट अटैक से मौत भी हो गई। उर्फ प्रोफेसर के बारे में जिसने भी लिखा बहुत तारीफ की और उसे हिन्दी सिनेमा में अब तक की बनी हास्य फिल्मों में श्रेष्ठ तीन में शामिल किया। सो, इंटरनेट पर ही मैंने इस फिल्म को खोजना शुरु किया। और, एक दिन देख भी डाली। मैं इस लेख के ज़रिए फिल्म की समीक्षा नहीं कर रही हूँ। क्योंकि मुझे समीक्षा लिखना आता नहीं है। खैर, मैं केवल ये बताना चाह रही हूँ कि एक फिल्म है जिसका नाम उर्फ प्रोफेसर है और उसे हरेक उस इंसान को देखना चाहिए जोकि सिनेमा देखने और उसे समझने में दिलचस्पी रखता हैं। उर्फ प्रोफेसर बहुत ही कम लागत में बनी, एवरेज कैमरा एंगल और कुछ बेहतरीन लेकिन, कम बजटवाले कलाकारों की फिल्म है। इस फिल्म में अगर कुछ हैं तो वो है इसकी कहानी और उस कहानी को पर्दे पर उतारने का तरीक़ा। फिल्म में किसी को मारते या गाली देते या शारिरीक संबंध बनाते हुए ऐसे दिखाया गया है जैसे कि सामान्यतः आप और हम सांस लेते हैं। पूरी फिल्म में केवल एक किरदार ऐसा है जिसे किसी के भी मरने का दुख होता हैं। बाक़ियों के लिए किसी को मारना या मरते देखना ऐसा है जैसे मूंगफली छीलकर खाना। फिल्म आपको पूरे समय बांधे रखती हैं। मैं फिर ये कहना चाहती हूँ ये समीक्षा नहीं हैं बस इतना कहना है कि आप अगर सिनेमा को प्यार करते हैं और समझते हैं तो इसे ज़रूर देखे। इसे देखे बिना आपकी वो समझ पूरी नहीं होगी।