Wednesday, January 26, 2011

अपना इंसाफ, अपने हिसाब...

lH; lekt esa fgalk dk dgha dksbZ LFkku ugha gS! ysfdu blh lH; lekt esa xqukgxkjksa dh Hkh dksbZ txg ugha gS! eSa ckr dj jgk gwa eaxyokj dks xkft;kckn dh fo”ks’k vnkyr esa gq, ?kVukdze dh! vk#f’k ekeys dh Dykstj fjiksVZ ij lquokbZ ds fy, tk jgs jkts”k ryokj ij tkuysok geyk gqvk! ryokj ds flj vkSj maxfy;ksa esa pksV yxh! ysfdu ftl rjg ls geyk fd;k x;k------ ;s dguk T;knk lgh gksxk fd oks cky&cky cp x,! irk pyk fd geykoj cukjl dk ogh mRlo “kekZ gS ftlus #fpdk fxjgks=k ls NsM+NkM+ ds nks’kh ,lih,l jkBkSM+ ij geyk fd;k Fkk! xkft;kckn esa gq, okd;s ds ckn lcds fnekx esa cl ,d gh ckr Fkh fd vkf[kj mRlo us ,slk D;ksa fd;k! mRlo ds firk dk dguk gS fd oks cpiu ls fnekxh :i ls chekj gS! fdlh Hkh yM+dh ;k efgyk ds lkFk dqN xyr gksrs ns[k oks viuk vkik [kks cSBrk gS! b/kj mRlo us dgk fd ekeys ds QSlys esa gks jgh nsj dh otg ls mlus ;s geyk fd;k gS! bl lcds chp gesa ;s le>uk gksxk fd mRlo dksbZ vijk/kh ugha gS! gka mlus fgalk dk jkLrk t#j vf[r;kj dj fy;k ysfdu u rks mldh jkBkSM+ ls vkSj uk gh ryokj ls dksbZ futh nq”euh Fkh!

vc ckr djrs gSa fcgkj ds iwf.kZ;ka dh tgka ds chtsih fo/kk;d jktfd”kksj dsljh dh pkj tuojh dks gR;k dj nh xbZ! #ie ikBd ftlus fo/kk;d ds lhus esa [kqdjh ?kqlsM+ nh mlus dqN eghus igys fo/kk;d ij cykRdkj dk vkjksi yxk;k Fkk! ekewyh tkap&iM+rky ds ckn fo/kk;d ij yxs vkjksi >wBs lkfcr gq, Fks! ;gka rd dh vnkyr esa [kqn #ie us Hkh vkjksi okil ys fy, Fks! fQj ,slk D;k gqvk fd #ie us fo/kk;d dh gR;k---- oks Hkh ljsvke djus dk nq%lkgl fd;k! loky ;s mBrk gS fd vxj fo/kk;d csdlwj Fks rks ukScr mudh gR;k djus rd D;ksa igqaprh! ekeyk vnkyr esa gS vkSj ogh QSlyk djsxh fd fo/kk;d dh gR;k ds ihNs ewy otg D;k Fkh! ysfdu bu rhuksa ?kVukvksa ls ,d ckr rks lkeus vk jgh gS! oks ;s fd turk dk Hkjkslk dkuwu vkSj iqfyl ls mBrk tk jgk gS! mRlo us nks’kh dks ltk nsus esa gks jgh nsjh dh otg ls jkBkSM+ ij geyk fd;k! “kk;n oks Hkh lhchvkbZ vkSj lSdM+ksa&gt+kjksa fganqLrkfu;ksa dh rjg ryokj dks gh vk#f’k dk dkfry ekurk gks--- vkSj mls yx jgk gks fd lcwrksa ds vHkko esa oks cp tk,xk! ogha ;s Hkh gks ldrk gS fd pkj ckj ls yxkrkj fo/kk;d jgs jktfd”kksj dsljh ds ncko esa #ie ikBd us eqdnek okil fy;k gks! ckr ;s Hkh lkeus vk jgh gS fd fo/kk;d dh utj mldh csfV;ksa ij Fkh! vkSj tc #ie dks ;s yxk fd mlds lkFk rks ukbalkQh gqbZ gh vc mldh csfV;ka Hkh [k+rjs esa gSa rks mls iqfyl vkSj dkuwu ls csgrj fo/kk;d dh gR;k dk jkLrk gh utj vk;k gks! dgus dk ewy Hkko ;s gS fd ns”k ds lkaoS/kkfud uk gksxk fd vkf[kj bu ?kVukvksa ds ihNs otg D;k gS! vxj vnkyr vkSj iqfyl ij ls yksxksa dk de gksrk fo”okl bu ?kVukvksa dh otg gS rks ;s ns”k ds vfLrRo ds fy, cM+k [krjk cu ldrk gS! ,sls esa gj dksbZ viuk balkQ [kqn djus ds fy, [kM+k gks tk,xk vkSj iwjs eqYd esa vjktdrk dk ekgkSy cu tk,xk! blds fy, vijkf/k;ksa dks tYn ls tYn ltk nsus dh t#jr gS pkgs oks fdlh Hkh in ij D;ksa uk gks!

Tuesday, January 25, 2011

सचिन तो ध्यानचंद क्यों नहीं ?

मैने मेजर ध्यानचंद को कभी हॉकी खेलते नहीं देखा लेकिन मैने सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट में इतिहास रचते ज़रुर देखा है! क्रिकेट के खेल में एक के बाद एक रिकॉर्ड तोड़ते और नया कीर्तिमान रचते सचिन पूरी दुनिया के हीरो बन चुके हैं! आज का हर खेलप्रेमी युवा उनको अपना आदर्श मानता है! मैं भी सचिन की प्रतिभा का कायल हूं! मुझे आज भी वो दिन याद है जब पाकिस्तान के सईद अनवर ने मुंबई में सियाराम कप के दौरान एक सौ छियानवें रन बनाया था! उस वक्त मैं मैच नहीं देख पाया था! बिजली नहीं थी और हमने सईद की धुंआधार पारी रेडियो पर सुनी थी! तब से लेकर दो हजार दस तक मैने क्रिकेट के बारे में बस यही सपना पाला था कि अगर कोई अनवर का रिकॉर्ड तोड़े तो वो सचिन ही हो! और जब सचिन ने इसे पूरा किया और ग्वालियर के मैदान में वन डे इतिहास का दोहरा शतक ठोंका तो लगा कि जैसे सचिन ने मेरे लिए ही ये डबल सेंचुरी लगाई हो! वन डे हो या टेस्ट सचिन इज़ द बेस्ट! क्रिकेट जगत में सचिन की तुलना ऑस्ट्रेलिया के सर डॉन ब्रैडमैन से की जाती है! यहां तक की क्रिकेट के कई जानकारों ने सचिन को उनसे बेहतर भी बताया है! लगातार बीस साल से अधिक समय से क्रिकेट खेल रहे सचिन आज सर्वश्रेष्ठ मुकाम पर पहुंच चुके है! उनकी इस उपलब्धि के चलते उन्हें भारत रत्न से नवाज़ने की मांग की जा रही है! स्वर सामज्ञी लता मंगेशकर ने भी सरकार से बार-बार ये मांग दुहराई है! हो सकता है इस बार सचिन को देश का ये शिखर सम्मान दे भी दिया जाए! वो इसके हक़दार भी हैं! लेकिन क्रिकेट में देश के लिए सचिन के योगदान को बिना कम आंके हुए मेरा एक सवाल है! अगर सचिन भारत रत्न के हकदार हैं तो हॉकी के जादूगर माने जाने वाले मेजर ध्यानचंद क्यों नहीं ? भारत के राष्ट्रीय खेल को शीर्ष पर पहुंचाने वाले मेज़र ध्यानचंद को क्यों इस सम्मान के काबिल नहीं समझा जा रहा है! मैं पहले ही बता चुका हूं की मैंने ध्यानचंद का खेल नहीं देखा है लेकिन अख़बारों, टीवी और इंटरनेट पर मिली जानकारी के मुताबिक उन्हें यूं ही हॉकी का जादूगर नहीं कहा जाता था! 1928 का एम्सटर्डम समर ओलंपिक हो, 1932 का लॉस एंजिलिस हो या फिर 1936 का बर्लिन हो! सब जगह ध्यानचंद का जादू सर चढ़ कर बोला! तीनों ओलंपिक में भारतीय हॉकी का इतिहास स्वर्ण से लदा हुआ है! 1932 में तो मेजबान यूएसए को रिकॉर्ड 24-1 से हराने में में मेजर ने आठ गोल दागे थे! बताया जाता है कि एक दौर ऐसा था जब भारतीय हॉकी टीम अजेय मानी जाने लगी थी! इन तीन ओलंपिक के अलावा दूसरे टूर्नामेंटों में भी ध्यानचंद की हॉकी स्टिक ने कमाल दिखाया! कुछ लोग ये भी बताते हैं कि हिटलर ने उन्हें जर्मनी की तरफ से खेलने का न्योता दिया था लेकिन देशप्रेमी ध्यानचंद सिंह ने उसे ठुकरा दिया था! ऐसे में पद्म भूषण मेजर ध्यानचंद को किसी भी मायने में भारत रत्न के लिए कमतर नहीं माना जा सकता!

Monday, January 24, 2011

फ़िल्मों के इतंज़ार में...

ये साली ज़िंदगी और सात खून माफ़। दो ऐसी फ़िल्में हैं जिनका मुझे इंतज़ार है। ये साली ज़िंदगी का प्रोमो महीनेभर पहले यू ट्यूब पर देखा था। इरफान खान टीवी के ज़माने से ही मेरे पसंदीदा हैं। चित्रांगदा सिंह की अदाकारी और ख़ूबसूरती में से क्या मुझे ज़्यादा पसंद हैं ये तो मैं भी तय नहीं कर पाती हूँ। दरअसल ये दोनों ही कलाकार ऐसे हैं जिन्हें झक मार ही सही लेकिन पसंद करने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं। प्रोमो देखकर लगता है कि सुधीर मिश्रा के स्टाइल का वॉटर मार्क कही भी धुंधला नहीं हुआ होगा। ये साली ज़िंदगी.... एक ऐसा जुमला जो सभ्य से सभ्य इंसान ने एक बार ही सही अपनी ज़िंदगी में ज़रूर बोला होगा। फ़िल्म भले ही अंडरवर्ल्ड, प्यार, धोखा, सेक्स या ख़ून खराबे से भरी हुई हो लेकिन, ये तीन शब्द हरेक ने कमसेकम एक बार तो महसूस किए ही होगें। हालांकि ऐसी फ़िल्में मेरी पसंदीदा जॉनर्स में से एक में शामिल नहीं हैं फिर भी सुधीर मिश्रा, इरफान खान, चित्रागंदा और सौरभ शुक्ला के लिए इसका इंतज़ार हैं।
वहीं, सात ख़ून माफ़ का प्रोमो जब पहली बार देखा तो लगा कि इसकी कहानी बस लिखने के लिए लिखी गई कहानी हैं। मतलब कि, कुछ अलग बनाना हैं तो कुछ भी अलग भलता ही सही लिख दो। लेकिन, विशाल भारद्वाज की वजह से मन ही मन लग रहा था कि कुछ तो हैं। सो, आज मालूम चलाकि कहानी रस्किन बॉण्ड की है। मेरे कान खड़े हो गए। लगाकि ओह, तो ये बात हैं। विशाल भारद्वाज और शेक्सपियर का कॉम्बिनेशन तो देख लिया अब रस्किन बॉण्ड और विशाल भारद्वाज की जुगल बंदी देखने का मन हो गया। सुसान्नास् सेवन हसबैण्डस् के शीर्षकवाली इस कहानी के बारे में केवल इतना मालूम चला कि बीस साल से पैंसठ साल तक की उम्र के बीच इस महिला की हुई सात शादियों का तानाबाना है इसमें। फ़िल्म में मौजूद कलाकारों से उम्मीद कम और निर्देशन से उम्मीदें ज़्यादा हैं। फ़िल्म देखना हैं लेकिन, पहले कहानी को पढ़ने का मन हैं। फ़िल्म देखकर आज तक जितनी भी कहानियाँ और नाटक पढ़े हैं कभी वो मज़ा नहीं आया जो फ़िल्म देखते समय आया। इस बार कहानी पढ़कर फ़िल्म देखना चाहती हूँ। उम्मीद है, कर पाऊंगी...

Wednesday, January 19, 2011

जेसिका, सबरीना या मैं...

नो वन किल्ड जेसिका देखी। फ़िल्म अच्छी थी लेकिन, देखते वक़्त उत्साह की कमी रही। केस के बारे में सब कुछ मालूम था और फ़िल्म का अंत फ़िल्म शुरु होने के पहले से मालूम था। विद्या बालन, रानी मुकर्जी, मायरा सभी की एक्टिंग बढ़िया रही। रानी मुकर्जी के किरदार से एक पत्रकार होते हुए भी रिलेट नहीं कर पाई। महिला टीवी पत्रकार को जिस ढर्रे पर हमेशा हर फ़िल्म में बताया जाता हैं वैसी शायद पांच प्रतिशत ही होती हैं। मैं उन पांच प्रतिशत में नहीं हूँ, शायद इसलिए भी मज़ा नहीं आया। खैर, फ़िल्म में जो मुझे ख़ास लगा वो था सबरीना का संघर्ष। सबरीना को मैं जेसिका की बहन के रुप में ही जानती हूँ, जैसे कि सब जानते हैं। ऐसे में फ़िल्म में दिखाई दी सबरीना अगर असल से दस फ़ीसदी भी मिलती जुलती है तो सच में उसका संघर्ष दिल दहला देनेवाला है। पूरी फ़िल्म में मुझे यही लगता रहा कि जेसिका या सबरीना की जगह मैं या मेरी दोस्त या बहन भी हो सकती थी या हो सकती हैं। ऐसे में इस समाज में रहना और सच और इंसाफ के लिए लड़ना कितना मुश्किल हैं। सच कहूँ तो मुझे इस फ़िल्म को देखकर डर लगा। जो डर पिछले पाँच साल से इस महानगर में रहते और काम करते हुए नहीं लगा। हर क़दम, हर मोड़ पर आपको शातिर होना ज़रूरी हैं। हार ना मानने से ज़्यादा ज़रूरी वही है। फ़िल्म में भी यही दिखा। सबरीना ने हार नहीं मानी लेकिन, उससे कुछ नहीं हुआ। मीडिया के शातिरपन ने ही अपराधियों को पकड़वाया और इंसाफ दिलवाया। सच कहूँ तो फ़िल्म के अंत में मेरे कई बार आंसू बहे। ये आंसू फ़िल्म की कहानी या कलाकारों की एक्टिंग के लिए न होकर उस डर के थे जो बार-बार मुझे ये सोचने पर मजबूर कर रहे थे कि सबरीना या जेसिका की जगह मैं भी हो सकती थी या हो सकती हूँ। मैं फ़िल्म देखकर भी फ़िल्म की समीक्षा नहीं कर सकती हूँ। क्योंकि फ़िल्म को मैं फ़िल्म के नज़रिए से देख ही नहीं पाई। अंत में बस इतना कि सबरीना वाकई हिम्मती हैं और उन्होंने जो किया सबके बस की बात नहीं।

Wednesday, January 12, 2011

माँ से मायका...

आई के बारे में मेरा एक बहुत बड़ा भ्रम आज टूट गया। अपनी 78 साल की लंबी ज़िंदगी में लगातार बीमारियों से लड़नेवाली मेरी आई को देखकर मुझे हमेशा यही अहसास होता था कि उनमें जीवन को जीने की ललक बाकियों से कहीं ज़्यादा हैं। ना जाने कितने ऑपरेशनों से गुज़र चुकी मेरी आई हमेशा खुश रहती। समय पर दवाई खाती, डॉक्टर के पास जाती और अपनी हरेक छोटी से छोटी परेशानी को गंभीरता से लेती। इतना ही नहीं अपनी इन बीमारियों के लिए लोगों को भी गंभीर बनाए रखती। मैंने अपनी इस 27 साल की ज़िंदगी में उनसे ज़्यादा ख़ूबसूरत महिला नहीं देखी। एकदम बेदाग गोरे चेहरे पर कुमकुम की बड़ी-सी लाल बिन्दी और उल्टी गूंथी चोटी। हमेशा कॉटन की साड़ी में लिपटी मेरी आई को देखकर हमेशा मैं यही कहती थी कि जवानी में तो कहर ही बरपाती होगी। मेरी आई हमेशा मुस्कुरा कर रह जाती। मेरी आई मेरे दादा की चिंता भी करती और उन्हें ताने भी सुनाती रहती। मेरे पापा की माने तो उनकी सभी बेटियों ने उनके इस गुण को आत्मसात् किया है। हरेक गलती के लिए तुम्हारे दादा ही ज़िम्मेदार हैं। आई अपने उसूलों की पक्की थी। हद से ज़्यादा प्यार करनेवाली मेरी आई महीने के उन पाँच दिनों में जल्लाद बन जाती थी। किसी को नहीं छोड़ती। ऐसे में तो देवास जाने में ही जान सूख जाती थी मेरी। मेरी मम्मी मेरी आई की फोटो कॉपी है हर मामले में। भयानक रूप से डायिबटीज़ से पीड़ित मेरी आई को हमेशा याद रहता था कि कौन सी मिठाई घर में बची हुई और कहाँ रखी हुई हैं। उनकी एक बात जो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद थी वो थी उनका चीज़ों, लोगों और परिस्थितियों को स्वीकार कर लेना। वो बहुत ही आसानी से ढल जाती थी। समय के साथ चलना वो जानती थी। मुझे लगता था कि यही वो वजह है जो आई को ज़िंदा रखे हुए हैं। लेकिन, मैं ग़लत थी। आई को दादा ने ज़िंदा रखा था। दादा के जाने के चार दिन बाद ही आई भी चली गई। चार दिन भी इसलिए क्योंकि शुरुआती तीन दिनों तक तो वो समझ ही नहीं पाई कि दादा चले गए हैं। आईसीयू में ऑक्सीजन मास्क लगाए पड़ी आई को बस यही लगता कि दादा घर पर हैं। बार बार पूछती कि दादा ने रोटी खाई कि नहीं या वो मुझे देखने आए थे क्या। वो शायद ज़िंदा ही दादा के दम पर थी। वो जीना ही चाहती थी दादा के लिए। दादा अंतिम समय में चाहते थे कि वो आई को मरते देखे। वो नहीं चाहते थे कि आई कष्ट अकेले भुगते। लेकिन, वो ये नहीं जानते थे कि वो ही थे जिनमें आई की जान बसती थी। आई-दादा जीवनभर साथ रहे और आज भी साथ ही हैं। आखिर में बस मम्मी कि एक बात याद आती हैं जो वो हमेशा बोलती रहती थी - माँ से ही मायका है। जिस दिन वो गई मायका गया। आज मुझे भी यही महसूस हो रहा है कि देवास मेरा ननिहाल मेरी आई यानि कि मेरी नानी से ही था...

Monday, January 10, 2011

इस्तीफ़ा...

ज़िन्दगी के चार दशक परिवार के मुखिया के पद पर बिताकर अंततः उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अपने दो सौ साल पुराने घर में 83 साल तक रहनेवाले उस वृद्ध ने अपनी हरेक ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया। बचपन में ही पिता की मौत के बाद अपनी माँ के साथ मिलकर उन्होंने अपने सात भाई बहनों की पढ़ाई से लेकर शादी तक की ज़िम्मेदारी निभाई। अपने दादाजी को भी सालों तक संभाला। अपनी नौकरी में मिले हेडमास्टर के पद को पूरी ज़िम्मेदारी से निभाया। इन ज़िम्मेदारियों को निभाने में उनकी पत्नी ने उनका पूरा साथ दिया। ये बात अलग है कि मानसिक रूप से उनकी सहभागी उनकी पत्नी जीवनभर शारिरीक रूप से बीमार ही रही। अंतिम समय में भी संयोग कुछ ऐसा बना कि आईसीयू में भर्ती अपनी पत्नी के साथवाले बिस्तर पर आकर लेटने के बाद ही उन्होंने प्राण त्यागे। ये पति-पत्नी का जोड़ा मेरे मन में ऐसा था जो कभी बिछड़ नहीं सकता था। जो कभी मर नहीं सकता था। सच में, मैं हमेशा यही सोचती थी कि आई-दादा को कभी कुछ नहीं होगा। खैर, वो चले गए। अपने पीछे पाँच बेटियों और एक बेटे को उनके भरे-पूरे परिवार के साथ। उन्होंने न सिर्फ़ अपने नाती- नातिनों और पोते-पोतियों को बढ़ते देखा बल्कि उनकी शादियाँ और उनके बच्चों को स्कूल कॉलेज जाते भी देखा। हेडमास्टर की कमाई में पाँच बेटियों की शादी की। अमीर तो नहीं लेकिन, सुयोग्य वर उनके लिए खोजे। पैसे से ज़्यादा प्राथमिकता व्यवहार और स्वभाव को दी। उनके ही एक दामाद को पूरे खानदान ने इसलिए पसंद किया क्योंकि वो इनकम टेक्स में नौकरी करता था। लेकिन, शादी से पहले उसके नौकरी छोड़ देने और एक पीआरओ की नौकरी करने पर भी वो विचलित नहीं हुए। उन्हें दामाद की ईमानदारी दिखी कि उसने नौकरी छोड़ने की बात को छुपाया नहीं। हाँ वो कई बार समाज के आगे झुके भी। कई बार समाज के दबाव में आकर बच्चों की मर्ज़ी के खिलाफ फैसले भी लिए जोकि उनके बच्चों ने माने भी। शायद ऐसे में नई पीढ़ी की मन मर्ज़ी ने उन्हें बहुत दुखी कर दिया। हमेशा मुखिया होने के ताने फैसले करने और उन्हें सुनानेवाले को ये बर्दाश्त नहीं हुआ कि कोई उनके आगे बोले या उनकी बात ना माने। यही वजह है कि अपने अंतिम दिनों में वे बहुत दुखी रहने लगे थे। मन ही मन किसी शोक में घुलने लगे थे। वही जीवनभर बीमार रही उनकी पत्नी शरीर से भले ही कमज़ोर हो लेकिन मन की पक्की निकली। आज सोचती हूँ तो लगता है कि अगर ऐसा ना होता तो इतनी बीमारी के साथ कोई जी ही नहीं सकता हैं। दादा जहाँ मन के विपरीत होनेवाले हरेक परिवर्तन से विचलित और परेशान रहने लगे, वही आई उस हरेक परिवर्तन के साथ खुद को भी बदलती गई। जो जैसा मिला उसमें खुश होती गई। पिछले तीन साल से मैं आई और दादा को आसपास बिस्तर डाले बीमार एक दूसरे को ताकते हुए देख रही थी। हर सांस पर दादा को इस बात की चिन्ता सताती की साथवाले बिस्तर पर पड़ी उनकी पत्नी तो ठीक है ना। कुछ दिनों से उन्होंने आई (उनकी पत्नी) के मरने के लिए दुआएं मांगनी शुरु कर दी। वो नहीं चाहते थे कि वो उन्हें यूँ ही बीमार छोड़ अकेले चले जाए। मैंने उन्हें जब भी देखा एक रिटायर हेडमास्टर की ठसक के साथ देखा। मेरे जीवन के वो एकमात्र इंसान जिन्हें मैंने लंगोट बांधते देखा हैं। हमेशा सफारी में रोज़ माता की टेकरी चलकर जाते। एक दम फीट। किसी तरह की कोई बीमारी नहीं कोई परेशानी नहीं। शायद नई पीढ़ी की मनमर्ज़ी और अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीने की जिद के आगे वो झुक नहीं पाए। अपने छोटे भाई-बहनों से लेकर अपने बच्चों तक किसी के मुंह से जिसने अपने लिए ऊंची आवाज़ नहीं सुनी वो अंदर ही अंदर घुटने लगे थे। दादा के जाने की ख़बर सुनकर मैं भी रोई। जब मालूम चलाकि उनकी अंतिम यात्रा में इतने लोग उमड़े थे कि मोहल्ले में पैर रखने की जगह नहीं थी तो मन ही मन गर्व भी महसूस हुआ। दादा के जाने का दुख तब सबसे ज़्यादा होता है जब मैं आई के बारे में सोचती हूँ। ऑक्सीजन मास्क पहने बिस्तर पर पड़ी दुनिया की सबसे सुन्दर मेरी आई कभी दादा की याद में रोती हैं तो कभी सब कुछ भूलकर दादा के रोटी खाने की चिंता करने लगती है। कभी दादा से गुस्सा हो जाती हैं कि मुझसे मिलने क्यों नहीं आए। अब ऐसा लगता है कि दादा को आना चाहिए और आई को ले जाना चाहिए। मैं हमेशा से ही आई की इस बात की कायल रही हूँ कि उनमें जीवन को जीने की ललक सामान्य से ज़्यादा है। लेकिन, अब लगता है कि आई तो तब तक ही आई थी जब तक दादा थे। मेरे दादा ने अपना जीवन पूरा जिया। एक आत्मसम्मान और ठसक के साथ जिया। लेख का अंत कैसे करूँ मुझे समझ नहीं आ रहा है। बस इतना ही कहूंगी कि मेरे दादा यानी कि नानाजी दयाशंकर रामनारायण शुक्ल ने अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक़ जी और जब लगा कि अब उन्हें नहीं जीना वो चले गए। और, अब मैं बस इतना चाहती हूँ कि मेरी आई यानि कि मेरी नानीजी श्रीमती अन्नपूर्णा दयाशंकर शुक्ला को हम उनके दादा के बिना भी संभाल पाए।

Monday, January 3, 2011

सिनेमा को समझनेवालों के लिए...



कुछ दिन पहले ही मैंने नेट पर उर्फ़ प्रोफेसर देखी। पंकज आडवाणी की निर्देशित ये फिल्म सिनेमा घरों तक नहीं पहुंच पाई है। आडवाणी ने इस फिल्म की एडिटिंग भी की हैं। यूं ही नेट की सैर के दौरान मैंने इस फ़िल्म के बारे पढ़ा। फिर पढ़ा कि पंकज आडवाणी जाने भी दो यारो में कुंदन शाह के सह-लेखक रह चुके हैं और संकट सिटी भी पंकज की ही फ़िल्म थी। साथ ही ये भी पता चला कि मात्र 45 साल की उम्र में उनकी हार्ट अटैक से मौत भी हो गई। उर्फ प्रोफेसर के बारे में जिसने भी लिखा बहुत तारीफ की और उसे हिन्दी सिनेमा में अब तक की बनी हास्य फिल्मों में श्रेष्ठ तीन में शामिल किया। सो, इंटरनेट पर ही मैंने इस फिल्म को खोजना शुरु किया। और, एक दिन देख भी डाली। मैं इस लेख के ज़रिए फिल्म की समीक्षा नहीं कर रही हूँ। क्योंकि मुझे समीक्षा लिखना आता नहीं है। खैर, मैं केवल ये बताना चाह रही हूँ कि एक फिल्म है जिसका नाम उर्फ प्रोफेसर है और उसे हरेक उस इंसान को देखना चाहिए जोकि सिनेमा देखने और उसे समझने में दिलचस्पी रखता हैं। उर्फ प्रोफेसर बहुत ही कम लागत में बनी, एवरेज कैमरा एंगल और कुछ बेहतरीन लेकिन, कम बजटवाले कलाकारों की फिल्म है। इस फिल्म में अगर कुछ हैं तो वो है इसकी कहानी और उस कहानी को पर्दे पर उतारने का तरीक़ा। फिल्म में किसी को मारते या गाली देते या शारिरीक संबंध बनाते हुए ऐसे दिखाया गया है जैसे कि सामान्यतः आप और हम सांस लेते हैं। पूरी फिल्म में केवल एक किरदार ऐसा है जिसे किसी के भी मरने का दुख होता हैं। बाक़ियों के लिए किसी को मारना या मरते देखना ऐसा है जैसे मूंगफली छीलकर खाना। फिल्म आपको पूरे समय बांधे रखती हैं। मैं फिर ये कहना चाहती हूँ ये समीक्षा नहीं हैं बस इतना कहना है कि आप अगर सिनेमा को प्यार करते हैं और समझते हैं तो इसे ज़रूर देखे। इसे देखे बिना आपकी वो समझ पूरी नहीं होगी।