Saturday, May 5, 2012

रिश्ते निभाना सीखते...


कंचन भाभी का फोन आया वो रो रही थी। मम्मी पापा के क्वाटर खाली करने का दुख उन्हें इतना हुआ कि दिल्ली में आए हुए मेरे इन सात साल में पहली बार उन्होंने मुझे फोन किया। पीछे से मीशा रुआसी आवाज़ में बोले जा रही थी मम्मी बस अब मत रो... फिर उसने मुझसे बात की बोली दादी तो छोड़कर चली गई और बाबा को भी साथ में ले गई। फिर उसने अपना सुर बदला और बोली अब ज़रा फूफाजी से बात करवा दो, एक पल को मैं सोचने लगी ये कौन है

? फिर याद आया वो भुवन से बात करना चाह रही है। भुवन था नहीं तो मैंने उससे वादा किया कि कल सुबह मैं बात करवा दूंगी। अगले दिन फोन पर भुवन से बात करवाई। भुवन के चेहरे पर भाव जैसे पल-पल बदल रहे थे। पहले तो इतनी छोटी बच्ची की आवाज़ नहीं समझ पा रहा था फिर फूफाजी बनकर वो अपनी ज़िंदगी में पहली बार किसी से बात कर रहा था। बात खत्म होने पर उसने ऐसे राहत की सांस ली थी जैसे किसी टेलिफोनिक इन्टरव्यू के बाद कोई लेता है। हालांकि भुवन ने अभी असल में ससुरालवाले रिश्तों का मज़ा लिया नहीं है फिर भी जीजाजी, दामादजी, फूफाजी सुनकर और उस पैरामीटर में घुसकर बर्ताव करने में उसे फिलहाल मुश्किल हो रही है। हर बात और हर परिस्थिति में आसानी से ढल जानेवाले भुवन को ऐसा देख मुझे मेरी हालत पर कुछ तसल्ली होती है। शादी के बाद आंटी को माँ और अंकल को पापा बोलने में मेरी ज़बान आज भी धोखा दे जाती है। भाभी संबोधन सुनकर तो मैं कई बार जवाब ही नहीं देती हूँ, मुझे लगता है किसी और से ही बात हो रही है। एक तो प्रणाम करना और सुनना ही मेरे लिए सबसे अजीब है। खासकर जब कोई मुझे करता है, मैं जवाब ही नहीं दे पाती हूँ। अपने घर में तो किसी से बात करो सीधे क्या हाल है, क्या चल रहा है... ना कोई नमस्कार ना कोई प्रणाम। कई बार ऐसा लगता है कि नए रिश्तों में बंध तो गई हूँ लेकिन, उन्हें निभाना नहीं सीखा है। ससुराल में ही कई बार में आराम से बैठी रह जाती हूँ आदर्श बहू की तरह काम कैसे किया जाता है मुझे मालूम ही नहीं चलता है। मामी के क्या फर्ज है, भाभी कैसे बात करती है, बहू को कब क्या करना है... हर मामले में मैं गड़बड़ कर जाती हूँ। शादी के ग्यारह महीने होने जा रहे है अब तक पत्नी बनने के स्टैन्डर्ड नियम क्या है वो ही मैंने पता नहीं किए। मैं बस अपने ही तरीके से हर रिश्ते को निभाए जा रही हूँ। आराम से भुवन के ताऊजी के पास बैठकर बतियाती हूँ और मुझे मामी कहनेवाले बच्चों की गैंग के साथ मस्ती मारती हूँ। शादी करने से दो लोगों का रिश्ता भले ही कुछ ज्यादा न बदलता हो लेकिन, उससे जुड़े इन नए रिश्तों से जुड़ने का मज़ा ही कुछ और है। मैं अपने हर नए रिश्ते को पूरे दिल से जीने की कोशिश कर रही हूँ, बाक़ि भले ही भुवन को पीछे से सब संभालना पड़ जाए...

Saturday, February 25, 2012

लिखे-पढ़े तो बहुत है लेकिन, लिखना-पढ़ना नहीं चाहते....






ऐसा सामान्यतः मान लिया जाता है कि जो पढ़ा-लिखा होता है वो ज्यादा सलीकेदार और नियम-क़ानून माननेवाला होता है। हालांकि ऐसा माननेवालों में, मै ख़ुद को शामिल नहीं करती हूँ। पढ़े-लिखे क्या पढ-लिख रहे युवाओं में भी सलीकों का अभाव खलता है। दिल्ली में आज से दो हफ्ते तक चलनेवाला अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला शुरु हो चुका है। पुस्तक मेला एक ऐसा मेला जहां गुब्बारे भले ही ना मिलते हो लेकिन, फिर भी उसमें रोज़ाना पहुंच जाना मुझे बहुत भाता है। दो हफ्ते तक चलनेवाले मेले में भी पढ़े-लिखे पढ़ने-लिखनेवालों की भीड़ आप देख सकते हैं। भारी-भरकम किताबों को झोलाभरकर लोग खरीदते हैं। उम्मीद करती हूँ कि पढ़ते भी होगे। लेकिन, फिर भी सामाजिक तौर पर मुझे पढ़ने- लिखनेवाले लोग कम ही नज़र आते है। या फिर ये कहूँ कि जो पढ़ना और लिखना चाहिए उसे पढ़ते लिखते नज़र नहीं आते है। दिल्ली की धड़कन मैट्रो की ही अगर बात की जाए तो इसमें आपको ऐसे कई लोग दिखाई दे जाएगे जो हाथों में अंग्रेज़ी का अख़बार या उपन्यास थामे सफर करते है। इत्मिनान से बैठना तो अलग सलीके से खड़े होने की जगह भी कई बार नसीब नहीं होती है। ऐसे में भी ये हाथ में अंग्रेज़ी उपन्यास थामे, उसमें नज़रें गड़ाए गड्ड-मड्ड होते रहते हैं। लेकिन, जब मैट्रो स्टेशन से बाहर निकलना हो तो इनमें से कुछ आपको बाहर जानेवाले एएफसी गेट में टोकन को जबरन घुसेड़ते हुए भी दिखाई दे जाएगे। कई बार मुझे पीछे से टोकना पड़ता है- ज़रा पढ़ भी लिजिए साफ-साफ लिखा है केवल कार्ड का प्रयोग करें....। यहां थूकना मना है को तो लोग सालों से वो जगह मानते ही है जहां थूकना है। या फिर जहां पेशाब करना मना लिखा होता है वो लिखाई ही लोग धो डालते हैं....। यही हालत लिखने की आदत के साथ भी है। जहां ज़रूरत हो और जहाँ ज़रूरी हो वहाँ कभी नहीं लिखा मिलेगा। कुछ साल पहले की ही बात है मेरी दोस्त की गाड़ी न्यू मार्केट से ट्रैफिकवाले उठा ले गए। वो जब उसे छुड़ाने पहुंची तो उसने कहा कि वहाँ नो पार्किंग नहीं लिखा था। तो ट्रेफिकवाला तपाक से बोला पार्किंग भी तो नहीं लिखा था....। बात को तोड़ने और मरोड़ने की हद है। अरे, कोई नियम है तो उसे लिखने में क्या समस्या है। यहीं हाल चिठ्ठियों के साथ भी है। लोग अब एक दूसरे को लिखने से कतराते हैं। हम अपनी लिखाई का उपयोग केवल तब तक करते है जब तक हमें उस लिखाई पर अंक मिलते हो। सुन्दर लेखनी और हम बात का विवरण लिखना आम जीवन में लोगों को गैर ज़रूरी महसूस होता है। ऐसा लगता है मानो लिखने का केवल एक ही उद्देश्य है- परीक्षा में अच्छे अंक पाना। बाक़ी तो सब कुछ मौखिक होता जा रहा हैं। हम लिखे-पढ़े तो बहुत है लेकिन, हम लिखना और पढ़ना नहीं चाहते हैं। अगर पुस्तक पढ़ने का शौक है और पुस्तक मेले जा रहे है तो बिना किसी से पूछे साइन बोर्ड और लिखी हुई सूचनाओं को पढ़ते हुए वहां पहुंचने की और घूमने की कोशिश करके देखिएगा..... अच्छा ही लगेगा....