कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Friday, October 7, 2011
अपने लिए जीना, जीना नहीं...
कभी कभी आपसे प्यार करनेवाले, आपके साथ अपनी ज़िंदगी को जोड़कर देखनेवाले, आपके साथ बचपन से रहनेवाले। आपको एक ट्राफी की तरह मानते हैं। आपस में इस होड़ में लगे रहते हैं कि कौन जीतेगा इसे। और, इस होड़ में जीते कोई भी हार केवल उस ट्राफी की होती है जिसके लिए ये सारी लड़ाई हैं। ट्राफी कब, कौन बन जाए ये भी आप नहीं कह सकते। कभी आप खुद वो ट्राफी हैं, तो कभी आप उसे पाने की दौड़ में हैं। समय और परिस्थितियां तय करती हैं आपकी जगह। फिलहाल मेरे सामने भी एक ऐसा इंसान मौजूद हैं, जो लोगों के बीच ट्राफी बना हुआ हैं। वो क्या करेगा ये तय तो उसे ही करना हैं लेकिन, अपने लिए नहीं बल्कि किसी एक की खुशी के लिए। यहाँ ये बात समझाने की ज़रूरत नहीं कि फैसला कुछ भी हो उसे दुखी ही रहना हैं। हम हमेशा से ही अपनी ज़िंदगी दूसरों के लिए जीते आए हैं। हम सब ऐसा ही करते हैं। हम दूसरों के लिए जीते हैं और दूसरे उम्मीद करते हैं कि वो हमारे लिए जिए। जब हम दूसरों के लिए करते हैं तो हम उस बात का अहसान मनवाना चाहते हैं और जब दूसरा करता है तो उसे उसका फर्ज़ मानकर हल्का करने की भी पूरी कोशिश करते हैं। ऐसे में हमारे आसपास अगर एक भी अपनी ज़िंदगी अपने लिए जीनेवाला, हिम्मती और सामाजिक रूप से मतलबी मिल जाता है तो हम अपनी नाकामयाबी को छिपाते हुए उसे कोसने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। दरअसल, सामाजिक प्राणी वही तो है जो कि अपनी ज़िंदगी कुंठा में दूसरों के लिए बिता दें। और, दूसरों को समाज के लिए ज़िंदगी बिता देने के बोझ में दबा दें...
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