रॉकस्टार- एक ऐसे लड़के की कहानी जो न प्यार को समझ सका और न अपने अंदर छुपे संगीत के हुनर को। केवल लोकप्रिय हो जाना ही समझ का पैमाना नहीं होता हैं। पूरी फिल्म में कहीं उसे संगीत से प्यार करते नहीं देखा। बिल्कुल वैसे ही जैसे प्यार करते भी नहीं देखा। जनार्दन को हीर बस होना चाहिए... शायद अंतिम सीन में वो महसूस कर पाया कि वो प्यार करता था या फिर ये कहे कि वो प्यार के अहसास को समझ सका। इम्तियाज़ अली की अब तक की निर्देशित चारों फिल्में देखने के बाद ये महसूस हुआ कि सभी फिल्मों के नायक-नायिका बहुत व्यवहारिक हैं। हालांकि जब वी मेट की गीत अंशुमन से प्यार करती थी। लेकिन, अंत में यही हुआ कि वो प्यार नहीं आकर्षण निकला और प्यार को तो एक दम अंतिम समय में समझ पाई। लव आजकल में तो युवाओं की इस सोच पर निर्देशक कम कहानीकार ने ऋषि कपूर के किरदार के ज़रिए खुद ही चोट कर दी थी। प्यार को न समझनेवाले सैफ के किरदार को ये मालूम था कि उसे क्या करना है, कहाँ नौकरी, कहाँ घर... वो केवल प्यार को ही नहीं समझ सका। यही हाल रहा जनार्दन का... हीर उसे होना चाहिए... क्यों होना चाहिए? ये वो अंत तक नहीं समझा सका। फिल्म जिस उम्र से शुरु होती हैं उसे मैं जी चुकी हूँ और जिस उम्र पर खत्म होती है उसे जी रही हूँ। इसलिए ये दावे से कह सकती हूँ कि इन सभी फिल्मों के किरदार बहुत व्यवहारिक है और भावुक नाममात्र को। मुझे मेरे भावुक होने और मेरे भावनात्मक लगाव के बारे में कई प्रकार के ज्ञान मिल चुके हैं लेकिन, इन किरदारों को देखकर लगता हैं कि ये बेवकूफ नहीं हैं और ये पहले से ही जानते हैं कि दरअसल सबकुछ भावनात्मक लगाव ही हैं। ज़िंदगी में उसी भावनात्मक लगाव पर आकर गाड़ी रूक जाती हैं। लेकिन, सिनेमा में इससे आगे बढ़कर जबरन में फिर प्यार में तब्दील हो जाती हैं। यही वजह है कि गीत अंशुमन के सामने आदित्य को किस करती हैं या मीरा हनीमून के पहले दिन अपने पति को छोड़ देती हैं और हीर शादी के दो साल बाद जानार्दन से संबंध बनाती हैं... इन फिल्मों से और इन किरदारों से आप टुकड़ों में प्रभावित हो पाते हैं... कइयों के मन से आवाज़ आती हैं काश मैं भी ऐसा कर पाता/पाती... और, मुझे लगता है कि सच में ये सिनेमा ही है... क्योंकि, असल ज़िंदगी में या तो हम व्यवहारिक है या तो हम भावुक...
कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Friday, November 18, 2011
Tuesday, November 15, 2011
हम चले नेक रस्ते पे हमसे भूलकर भी कोई भूल हो ना...
Friday, October 7, 2011
अपने लिए जीना, जीना नहीं...
Thursday, April 28, 2011
सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है...
अंत में- आईआईटी में छात्रों को इन प्रयोगों के साथ देखकर जितना अच्छा लगा उतना ही दुख हुआ दिल्ली के स्कूली छात्रों को देखकर। एक भी छात्र इन प्रयोगों को देखने के लिए आया हो ऐसा नहीं महसूस हुआ। सभी बस झुण्ड बनाकर इधर-उधरकर हंसी हंगामा करते नज़र आए। कुछेक तो बदतमीज़ी से बात करते भी दिखे। आईआईटी में आकर महसूस हुआ कि सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है।
Friday, April 22, 2011
सफ़र से मिलती सीख...
Monday, April 18, 2011
समझ ज़रूरी है...
Wednesday, April 13, 2011
जब साइकल से नापा दिल्ली को...
Monday, March 7, 2011
मरने का हक़...
Tuesday, February 8, 2011
स्त्रीलिंग होने का अर्थ...
गैर सरकारी संगठनों की ओर से हुए एक सर्वे के मुताबिक़ भारत में केवल 12 फ़ीसदी महिलाओं को ही माहवारी के दौरान साफ़-सुथरे नैपकिन उपयोग के लिए मिल पाते हैं। ये आंकड़ा चौंकानेवाला है। कम से कम मेरे लिए। शहरों में रहनेवाली और जीने के लिए ज़रूरी चीज़ों को आसानी से पा लेनेवाली मुझ जैसी लड़की के लिए ये आंकड़ा चौंकाने के साथ डराने का भी काम कर रहा है। देश की मात्र 12 फ़ीसदी महिलाएं नैपकिन का इस्तेमाल कर पाती है। संभव है कि ये महिलाएं मुझ जैसी शहरी ही हो। मतलब कि गांव और कस्बों में हर महीने महिलाओं को चार से पाँच दिन बद से बदतर हालात में गुजारने होते होंगे। बेहतरीन क्वालिटी और हाईजीनिक नैपकिन्स के इस्तेमाल के बाद भी कई बार दर्द और परेशानी जब सहन नहीं होती है तब उनकी क्या हालत होगी जो कपड़े या फिर पॉलीथीन का इस्तेमाल करती हैं। इन दिनों में साफ सफाई के साथ शारिरीक तौर पर आराम बेहद ज़रूरी माना जाता है। ऐसे में सर्वे के मुताबिक़ कई महिलाएं इस दौरान राख या रेत का भी प्रयोग करने के लिए मजबूर है और काम उतना ही जितना रोज़ाना होता है। राख या रेत के इस्तेमाल से कई महिलाओं को घाव हो जाते हैं और कई तरह की बीमारियाँ भी हो जाती हैं। गांवों में महिलाओं को इस दौरान अछूत मान लिया जाता है। कोई उन्हें छूता तक नहीं है और न ही उन्हें किसी मंगल कार्य में शामिल होने दिया जाता हैं। माहवारी के दौरान घर के काम या किचन में घुसने की मनाही के पीछे मूल वजह महिला को आराम देना और स्वच्छता को बनाए रखना ही होगी, जो आगे चलकर रूढ़ीवादी सोच में बदल गई। गांवों से इतर शहर में रहनेवालों के लिए तो टीवी पर हर ब्रेक के दौरान आनेवाले सैनेटरी नैपकिन के विज्ञापन को देखकर तो ये आभास होता है कि अब तो ये एक बेहद सामान्य सी बात है कि सभी को इसके बारे में मालूम है और महिलाएं अब इसका इस्तेमाल भी करती हैं। लेकिन, सच तो ये है कि महिला के लिए नैपकिन खरीदना परिवार के अन्य सदस्यों को एक खर्चा लगता है, उसकी मूल ज़रूरत नहीं। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने मिलकर पुराने कपड़ों को जोड़कर नैपकिन बनाने की शुरुआत की है जिसकी क़ीमत 1 रुपए प्रति नैपकिन पड़ेगी। लेकिन, जहाँ महिला को पहनने को कपड़े और खाने के लिए पैसे ना हो वहाँ एक रुपए का नैपकिन भी बहुत बड़ी और मंहगी बात हैं। कई बार मुझे लगता है हम सच में आगे बढ़ रह रहे हैं। देश की महिलाएं पुरुषों से कन्धा मिलाकर चल रही है। बैंकों की सीईओ महिलाओं की मुस्कुराती तस्वीरों को देखकर लगता है कि महिलाएं अब किसी बात में पीछे नहीं। लेकिन, इन्हीं ख़बरों के बीच छुपी ये एक कॉलम की ख़बर सर से पैर तक एक झुरझुरी फैला देती है।
Monday, February 7, 2011
काल्पनिक किरदारों के ज़रिए वास्तविकता दिखाती सिनेमा...
Wednesday, February 2, 2011
मिसेज तेन्दुलकर
Wednesday, January 26, 2011
अपना इंसाफ, अपने हिसाब...
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Tuesday, January 25, 2011
सचिन तो ध्यानचंद क्यों नहीं ?
Monday, January 24, 2011
फ़िल्मों के इतंज़ार में...
वहीं, सात ख़ून माफ़ का प्रोमो जब पहली बार देखा तो लगा कि इसकी कहानी बस लिखने के लिए लिखी गई कहानी हैं। मतलब कि, कुछ अलग बनाना हैं तो कुछ भी अलग भलता ही सही लिख दो। लेकिन, विशाल भारद्वाज की वजह से मन ही मन लग रहा था कि कुछ तो हैं। सो, आज मालूम चलाकि कहानी रस्किन बॉण्ड की है। मेरे कान खड़े हो गए। लगाकि ओह, तो ये बात हैं। विशाल भारद्वाज और शेक्सपियर का कॉम्बिनेशन तो देख लिया अब रस्किन बॉण्ड और विशाल भारद्वाज की जुगल बंदी देखने का मन हो गया। सुसान्नास् सेवन हसबैण्डस् के शीर्षकवाली इस कहानी के बारे में केवल इतना मालूम चला कि बीस साल से पैंसठ साल तक की उम्र के बीच इस महिला की हुई सात शादियों का तानाबाना है इसमें। फ़िल्म में मौजूद कलाकारों से उम्मीद कम और निर्देशन से उम्मीदें ज़्यादा हैं। फ़िल्म देखना हैं लेकिन, पहले कहानी को पढ़ने का मन हैं। फ़िल्म देखकर आज तक जितनी भी कहानियाँ और नाटक पढ़े हैं कभी वो मज़ा नहीं आया जो फ़िल्म देखते समय आया। इस बार कहानी पढ़कर फ़िल्म देखना चाहती हूँ। उम्मीद है, कर पाऊंगी...
Wednesday, January 19, 2011
जेसिका, सबरीना या मैं...
Wednesday, January 12, 2011
माँ से मायका...
Monday, January 10, 2011
इस्तीफ़ा...
Monday, January 3, 2011
सिनेमा को समझनेवालों के लिए...
कुछ दिन पहले ही मैंने नेट पर उर्फ़ प्रोफेसर देखी। पंकज आडवाणी की निर्देशित ये फिल्म सिनेमा घरों तक नहीं पहुंच पाई है। आडवाणी ने इस फिल्म की एडिटिंग भी की हैं। यूं ही नेट की सैर के दौरान मैंने इस फ़िल्म के बारे पढ़ा। फिर पढ़ा कि पंकज आडवाणी जाने भी दो यारो में कुंदन शाह के सह-लेखक रह चुके हैं और संकट सिटी भी पंकज की ही फ़िल्म थी। साथ ही ये भी पता चला कि मात्र 45 साल की उम्र में उनकी हार्ट अटैक से मौत भी हो गई। उर्फ प्रोफेसर के बारे में जिसने भी लिखा बहुत तारीफ की और उसे हिन्दी सिनेमा में अब तक की बनी हास्य फिल्मों में श्रेष्ठ तीन में शामिल किया। सो, इंटरनेट पर ही मैंने इस फिल्म को खोजना शुरु किया। और, एक दिन देख भी डाली। मैं इस लेख के ज़रिए फिल्म की समीक्षा नहीं कर रही हूँ। क्योंकि मुझे समीक्षा लिखना आता नहीं है। खैर, मैं केवल ये बताना चाह रही हूँ कि एक फिल्म है जिसका नाम उर्फ प्रोफेसर है और उसे हरेक उस इंसान को देखना चाहिए जोकि सिनेमा देखने और उसे समझने में दिलचस्पी रखता हैं। उर्फ प्रोफेसर बहुत ही कम लागत में बनी, एवरेज कैमरा एंगल और कुछ बेहतरीन लेकिन, कम बजटवाले कलाकारों की फिल्म है। इस फिल्म में अगर कुछ हैं तो वो है इसकी कहानी और उस कहानी को पर्दे पर उतारने का तरीक़ा। फिल्म में किसी को मारते या गाली देते या शारिरीक संबंध बनाते हुए ऐसे दिखाया गया है जैसे कि सामान्यतः आप और हम सांस लेते हैं। पूरी फिल्म में केवल एक किरदार ऐसा है जिसे किसी के भी मरने का दुख होता हैं। बाक़ियों के लिए किसी को मारना या मरते देखना ऐसा है जैसे मूंगफली छीलकर खाना। फिल्म आपको पूरे समय बांधे रखती हैं। मैं फिर ये कहना चाहती हूँ ये समीक्षा नहीं हैं बस इतना कहना है कि आप अगर सिनेमा को प्यार करते हैं और समझते हैं तो इसे ज़रूर देखे। इसे देखे बिना आपकी वो समझ पूरी नहीं होगी।