गुड़गांव जिले का एक गांव ताजनगर। एक ऐसा गांव जिसके बारे में गुड़गांव शहर में रहनेवाले लोग ही बहुत कम जानते हैं। कुछ दिनों पहले अख़बार में ख़बर पढ़ी कि गांववालों ने वहाँ ख़ुद ही एक रेल्वे स्टेशन बना लिया है। ख़बर कुछ ऐसी थी कि मेरे साप्ताहिक कार्यक्रम के लिए एक दम सटीक लगी। इसके बारे में कुछ शुरुआती जानकारी जुटाई और निकल पड़े हम उसकी कहानी कैमरे के ज़रिए लोगों तक पहुंचाने के लिए। गुड़गांव तक का सफ़र तो आसान था लेकिन इसके बाद शुरु हुई परेशानी। किसी को मालूम ही नहीं कि कहाँ ये गांव। फिर भी जब हम आगे बढ़े तो लोगों के मुंह से इस गांव का नाम सुनकर लगाकि हाँ सही रास्ते पर हैं हम। थोड़े और नज़दीक जाने पर लोगों के मुंह स्टेशन की तारीफ़ें भी सुनने को मिलने लगी। जैसे ही हमारी गाड़ी उस खुले स्टेशन तक पहुंची सामने से एक ट्रेन आती नज़र आई। बस मेरे कैमरामैन भागे उसे कैप्चर करने के लिए। फिर शुरु हुई मेरी ज़िंदगी की एक अनोखी रिपोर्ट की शूट। गांववाले हमारे वहाँ आने से अति उत्साहित थे। एक बुज़ुर्ग हरियाणवी सज्जन ने मेरे बिना पूछे ही सारी कहानी सुनाना शुरु कर दी। टीवीवालों से वो भी थोड़ा बहुत रू-ब-रू हो चुके थे। स्टेशन के उद्घाटन के दिन सासंदजी आएं थे तो कुछ टीवीवाले भी साथ थे। एक के बाद एक कई बुज़ुर्गों ने मुझे वहाँ घेर लिया हरेक के पास एक कहानी थी। उनमें से एक को भी कहीं न जाना था। लेकिन, 30 साल के इंतज़ार और कड़ी मेहनत से बने उनके इस स्टेशन को वो यूँ बैठे निहारते रहते हैं। उन्होंने बताना शुरु किया कि कैसे दिल्ली के इतने क़रीब होने पर भी उन्हें वहाँ तक पहुंचने में कितनी तकलीफ़ होती थी। कैसे एक गांव से दूसरे गांव तक जाने में उन्हें दो से तीन घंटे लग जाते थे। वो कई बार सरकार से एक स्टेशन की गुहार लगा चुके थे। आसपास के गांवों के स्टेशन लगभग दस किलोमीचर की परिधि में ही है यहीं वजह थी कि उनका स्टेशन नहीं बन पा रहा था। सरकार से निराश गांववालों ने एक बार फिर लालू प्रसाद के रेलमंत्री बनने पर उनसे गुहार लगाई और रेलमंत्री ने बस इतना कहा कि बनाओ स्टेशन बस मुनाफ़ा होना चाहिए। इसके बाद गांववालों ने इंजीनियर्स की देखरेख में अपने पैसे और श्रम से स्टेशन बनाना शुरु किया। किसी ने तीन हज़ार दिए तो किसी ने तीन लाख़। इससे भी बढ़कर लोगों ने अपना समय और श्रम इस स्टेशन को दिया। और, पाँच जनवरी दो हज़ार दस याने कि आज़ादी के कुछ त्रैंसठ साल बाद ताजनगर में रूकी पहली ट्रैन। इसके बाद से अब यहाँ कुल सोलह लोकल ट्रैन रूकती हैं। भले ही कुछ सेंकेड के लिए लेकिन रूकती है। यहाँ के लोगों के चेहरे की खुशी आपको भी खुश कर दे। बुज़ुर्गों की झुर्रियों के बीच में खुशी एक दम घुली हुई आप देख सकते हैं। मैं वहाँ दिन भर रही। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक गए फिर वही वापस आए। पूरे समय वो बुज़ुर्गों की टोली हमारे साथ थी। सच इतने सालों के इंतज़ार और मेहनत के बाद अगर आपको वो मिल जाए जिसका इंतज़ार था तो शायद ऐसा ही हाल होता होगा। एक बुज़ुर्ग ने हमें बताया कि गांव के पुरुषों को लगता था कि अगर स्टेशन बन गया तो हमारी बीवियाँ हमसे रूठकर मायके चली जाया करेंगी तो वो यहाँ स्टेशन नहीं चाहते थे। ये सुनकर हम सभी खूब हमें। ताजनगर दिल्ली के इतने पास है फिर भी शहर और शहरी दांव पेंचों से एक दम जुदा है। गांव के लोगों को प्यार और स्नेह देखकर लगा कि सच में आज भी मासूमियत और मेहनत ज़िंदा हैं। मैं के शहरों के आसपास आज भी हम के गांव मज़बूती से खड़े हुए हैं। आखिर में वो कविता जोकि मैंने अपने एंकर में इस्तेमाल की है। ये कविता मेरे पापा (श्री राजा दुबे) ने लिखी है-
हाथ में हाथ और हिम्मत साथ हो तो
कोई पत्थर नहीं जो हिल ना सकें
हौसलें गर बुलंद हो तो
कोई मंज़िल नहीं जो मिल न सकें।
हिम्मतवाले ही आगे बढ़ पाते हैं
कठिन काम को वो आसान बनाते हैं
संकल्पों के धनी कहां रुकते हैं बीच में
वो तो मंज़िल पाकर ही हर्षाते हैं।
कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Thursday, February 25, 2010
Wednesday, February 17, 2010
बिंदास होने के मायने...
आजकल मैट्रो स्टेशन्स पर चारों ओर बिंदास टीवी के विज्ञापन नज़र आ रहे हैं। इन विज्ञापनों में कुछ आधुनिक सोचवाले युवा अपने बिंदास होने का अर्थ समझा रहे हैं। वो बता रहे हैं कि मैं बिंदास हूँ इसका मतलब ये नहीं कि मैं ड्रग्स लेता हूँ या फिर मैं भगवान में विश्वास नहीं रखती। आधुनिक सोचवाले युवा का इस्तेमाल इसलिए क्योंकि ऐसे भी कई युवा मौजूद है जो है तो युवा लेकिन उनकी सोच पुरानी ही है। खैर, ये विज्ञापन आपको एक मिनिट ऐसे युवाओं के बारे में सोचने के लिए मज़बूर करते हैं। आसपास खड़े ऐसे ही कुछ ढ़ीली जींस पहने हुए और बाल बिखराएं हुए युवाओं को ध्यान से देखने पर मज़बूर करते हैं। पिछले ही दिनों एक न्यूज़ चैनल पर मैंने चैनल वी के दो वीजे का इन्टरव्यू देखा। लंदन से भारत ये दोनों युवा अपने हिसाब से जीते हैं और अपने हिसाब से देश और उसकी समस्याओं को देखते हैं। उन्हें इस बात से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन उनके बारे में क्या कहता हैं। दरअसल हरेक इंसान अपने हिसाब से जीना चाहता हैं लेकिन, हरेक में ऐसे रहने का माद्दा नहीं होता हैं। कोई समाज से डरता हैं तो कोई परिवार से तो कोई अस्वीकार हो जाने से डरता हैं। ऐसे में हम अंदर से कितने भी बिंदास क्यों न हो हम बाहरी रूप में बहुत सामाजिक होते हैं। बिंदास के ये विज्ञापन आपको अपने अंदर झांकने का एक मौक़ा दे रहे हैं। ज़रा एक बार रूककर सोचिए कि क्या आप भी बिंदास हैं...
Friday, February 12, 2010
अति सामाजिक होना मेरे बस की बात नहीं...
मैं आजकल कुछ परेशान हूँ। मुफ़्त में मिल रही सुविधाओं से। आज सुबह ही गुगल की नई नेटवर्किंग साइट बज़्ज़ के बारे में सुना तो लगाकि अब लोग इसमें भी जुटेंगे। लेकिन, आज इस बज़्ज़ को जब मैंने मेरे जीमेल खाते में देखा तो कुछ हैंरान हुई। फिर जब उसे खोला तो मालूम चलाकि मैं भी इसकी सदस्य हूँ और लगभग पचास लोगों को फ़ॉलो भी कर रही हूँ। मैं हैरान हो गई। मुझे लगा कि ये क्या हुआ। मुफ़्त में खाते खोलना मुझे ग़लत लगा। अरे, मुझसे तो पूछा होता। खैर, ये बात सिर्फ़ यही तक सीमित कहाँ। फेसबुक पर भी ऐसा ही कुछ है। झट से आपके खेल के स्कोर दूसरे को चैलेन्ज करने पहुंच जाते हैं और पता नहीं किस-किस को खेलने के लिए उकसा आते हैं। ऑर्कुट में एकदिन अचानक से ही आपको मालूम चलता हैं कि आप के पास एक चैट लिस्ट भी है। माना कि ये सभी मुफ़्त में हमें कई सुविधाएं दे रही हैं लेकिन, इसका अर्थ ये तो नहीं हुआ कि हमसे बिना पूछे ही ये हमारे खाते संचालित करने लगे। इस तरह के मामलों में मैं कुछ कच्ची हूँ। सोशल वेब साइट की सदस्य होने के बावजूद भी बेहद अनसोशल हूँ। मेरी ही तरह और भी कई लोग हैं जोकि इन सामाजिक सरोकारवाली तक़नीक़ का असल चेहरा देख नहीं पाते हैं। मुझे रोज़ाना चार से पाँच मेल आते हैं कि फलां इंसान आपको ढ़िंमका साइट पर देखना चाहता हैं तो फलां तलां पर... इन मेल्स को डिलीट करने पर दूसरे दिन रिमान्डर भी आता हैं और फिर एक धमकी कि, देख लो नहीं तो आप एक्सपायर हो जाएगे (मतलब मरने से नहीं बल्कि खाते के बंद होने से है। ये वो खाता है जो आपने नहीं आपके एवज में उस साइट ने स्वयम् ही खोल दिया है।)
मैं इस इन्टरनेट के मेरी निजी ज़िंदगी (या फिर ये कहे कि मेरे निजी मेल अकाउन्ट) में दखल से बेहद परेशान हूँ। कई बार तो इन साइट्स ने मुझे के पीछे लगा दिया जिनसे मेरी लड़ाई तक हो चुकी है। या फिर ऐसे को मेरी तरफ से जन्मदिन की बधाई चली गई जिससे अपनी मर्ज़ी से बात बंद की थी। ये अंतरजाल की जबरिया दोस्ती मेरे लिए एक बहुत ही बड़ी उलझन हैं और साथ ही लोगों का इसके प्रति उत्साह दूसरी तरह की परेशानी का सबब...
मैं इस इन्टरनेट के मेरी निजी ज़िंदगी (या फिर ये कहे कि मेरे निजी मेल अकाउन्ट) में दखल से बेहद परेशान हूँ। कई बार तो इन साइट्स ने मुझे के पीछे लगा दिया जिनसे मेरी लड़ाई तक हो चुकी है। या फिर ऐसे को मेरी तरफ से जन्मदिन की बधाई चली गई जिससे अपनी मर्ज़ी से बात बंद की थी। ये अंतरजाल की जबरिया दोस्ती मेरे लिए एक बहुत ही बड़ी उलझन हैं और साथ ही लोगों का इसके प्रति उत्साह दूसरी तरह की परेशानी का सबब...
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