मेरे दिल्ली के तीसरी मंज़िल पर तपते हुए कमरे में आजकल कुछ नए मेहमान आने लगे हैं। साल 2006 में दिल्ली आने के बाद शहर को समझने और कुछ संभलने के बाद उसके अगले ही साल से मैंने अपने रूम के आगे एक मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर रखने लगी थी। कुछ दिनों बाद गर्मियों के दिनों में पानी के साथ ही बाजरा भी डालने लगी। सुबह जब ऑफिस के लिए निकलती तो इस उम्मीद के साथ कि आज शआम को कुछ दाने कम मिलेंगे। लेकिन, हर बार मुझे निराशा हाथ लगती। खैर, पूरे चार साल के बाद कुछ दिन पहले गर्मियों के मौसम को देखते हुए मैंने एक बार फिर उम्मीद के साथ पानी और बाजरा रखना शुरु किया। एक दिन अचानक आवाज़ें सुनाई दी। बाहर आकर देखा तो बाजरे के दानों पर कई अलग-अलग किस्म की चिड़िया झूम रही थी। पानी भी पी रही थी कुछ। सच में इतनी खुशी मुझे शायद ही कभी हुई हो। आजकल तो हालात कुछ ऐसे हैं कि अगर सुबह-सुबह पानी और बाजरा नहीं रखा तो उनका चिल्ला शुरु हो जाता हैं। सच कहूँ तो केवल इन मेहमानों के समय रहते सत्कार करने के चक्कर में मैं समय पर उठ जाती हूँ। खुश भी रहती हूँ कि कोई तो है दोस्त जो मेरे घर नियम बांधकर आते हैं और मुझे अपने मासूम से मतलब के लिए ही सही डांटता भी हैं।
कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Tuesday, April 27, 2010
Tuesday, April 13, 2010
उम्मीद की गठरी...
पंकज रामेन्दू
उम्मीद की गठरी को जब से उठाया,
तब से मैंने ये पाया कि मैं कायर हो गया
गठरी को सिर पर उठाये में
जिंदगी की पटरी पर फिसलता हूं संभलता हूं
लेकिन बोझ से झुकी हुई मेरी पीठ
अक्सर मेरा मुंह धरती की ओर मोड़ देती है
मैं आसमानी रंग नहीं देख पाता हूं
इस गठरी में सबकी अपनी-अपनी पोटली है..
जिसके बीच मेरे ख्वाबों की पोटली ऐसी है
जैसे रेहड़ी पर बिकते हुए सस्ते कपड़े
जिनमें अपने पसंद का कपड़ा निकालने में कई बार उम्र गुज़र जाती है.
फिर भी मैं लगा हुआ हूं,
डरते हुए, सहमते ,हुए
शायद मुझे वो कपड़ा मिलेगाजो मेरे पसंद को होगा
मरे नाप का होगा
उम्मीद की गठरी को जब से उठाया,
तब से मैंने ये पाया कि मैं कायर हो गया
गठरी को सिर पर उठाये में
जिंदगी की पटरी पर फिसलता हूं संभलता हूं
लेकिन बोझ से झुकी हुई मेरी पीठ
अक्सर मेरा मुंह धरती की ओर मोड़ देती है
मैं आसमानी रंग नहीं देख पाता हूं
इस गठरी में सबकी अपनी-अपनी पोटली है..
जिसके बीच मेरे ख्वाबों की पोटली ऐसी है
जैसे रेहड़ी पर बिकते हुए सस्ते कपड़े
जिनमें अपने पसंद का कपड़ा निकालने में कई बार उम्र गुज़र जाती है.
फिर भी मैं लगा हुआ हूं,
डरते हुए, सहमते ,हुए
शायद मुझे वो कपड़ा मिलेगाजो मेरे पसंद को होगा
मरे नाप का होगा
Subscribe to:
Posts (Atom)