Saturday, November 28, 2009

मेरा एक तरफा होना ग़लत था...

मेरी पिछली पोस्ट पर आई प्रतिक्रियों से मुझे ये तो समझ आया ही कि सिर्फ़ महिलाओं के साथ शादी के मामलों में अन्याय नहीं होता है बल्कि पुरुषों के साथ भी होता है। लेकिन, साथ ही ये भी महसूस हुआ कि पुरुष किसी भी सूरत पर महिलाओं को समाज की ग़लत हरक़तों के लिए ज़िम्मेदार मानने में कोताही नहीं बरतना चाहते हैं। अपने लेख में मैंने केवल महिलाओं के दुख को लिखा लेकिन, मैं ये स्वीकार करती हूँ कि इस तरह के धोखे किसी के भी साथ हो सकते हैं। लेकिन, एक बात ये भी है कि पुरुष के पास अपनी जीवन साथी की कमी को कही न कही जाकर पूरा करने के साधन स्त्रियों से ज़्यादा हैं। खैर, मैं कल से कुछ परेशानी में हूँ। जोकि आज ब्लॉग पर एक सज्जन की पोस्ट को पढ़कर और बढ़ गई। कुछ दिनों पहले ख़बर मिली कि मेरे पहचान क्षेत्र की एक लड़की ने अपने प्रेमी को धोखा दिया। लड़की उस लड़के से पिछले 5 सालों से प्यार कर रही थी और उनकी जल्द ही शादी होनेवाली थी। बावजूद इस सबके लड़की ने किसी और लड़के से संबंध रखे। मेरी मित्र मंडली में उस लड़की की बेवफ़ाई के किस्से तैर रहे हैं। मैं भी उसे ग़लत मानती हूँ। लेकिन, एक बात से मुझे एतराज है। वो लड़का जिससे लड़की के बाद में संबंध बने वो ये जानता था कि इसका प्रेमी है और वो पूरे तरीक़े से मन बहला रहा था। इसके बावजूद कोई लड़के को ग़लत नहीं मान रहा हैं। सभी का कहना है कि लड़की उत्तेजित करे तो लड़का बेचारा क्या करें। यही बात आज सुबह पढ़ी पोस्ट में थी जहाँ सज्जन लड़कियों पर पूरे समाज की ज़िम्मेदारी डाल रहे थे। वो भी सिर्फ़ बच्चे पैदा करने के रूप में। समस्या ये है कि हम जब भी किसी विशेष लिंग से जुड़े मुद्दों पर बात करते हैं। तो हम ख़ुद का फ़ेवर करने लगते हैं और दूसरे को ग़लत मान लेते है। इतनी समझ रखनेवाले हम लोग शायद बिना किसी कि ओर झुके कोई बात तय नहीं कर सकते हैं।

Wednesday, November 25, 2009

झूठ की बुनियाद पर खड़े रिश्ते...

कल कुरबान फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी। समीक्षा पढ़ने के बाद जो बात मन में आई जो वो थी महिलाओं की स्थिति। हर किसी ने फ़िल्म की समीक्षा में आंतकवाद की चर्चा की और यही विषय भी था। लेकिन, मेरा मन इस बात पर टिक गया कि- कैसे एक लड़की को शादी के बाद ये बात मालूम चलती है कि उसका पति आंतकवादी है। असलियत भी यही है कि लड़कियों को ससुराल के बारे में और अपने पति के बारे में कई बातें शादी के बाद ही पता चलती है। कुछ बातें छोटी होती हैं तो कुछ बड़ी। लेकिन, शादीशुदा लड़कियाँ जिन्हें माँ-बाप सर से उतरा हुआ बोझ समझते हैं और ससुरालवाले अपनी जायदाद कुछ कहने की हैसियत नहीं रखती हैं। मेरी मम्मी को शादी के बाद मालूम हुआ कि मेरे बाबा नॉनवेज खाते थे। बाबा अंग्रेज़ों की सेना में थे और चार गोलियाँ खाकर बर्मा (शायद) से पैदल आए थे। ऐसे में उन्हें जो मिल जाता था वो खा लेते थे। बहुत मुश्किल से वो ये खाना छोड़ पाए थे। हो सकता है किसी को ये बात बहुत बड़ी ना लगे। लेकिन, एक विशुद्ध शाकाहारी ब्राह्मण परिवार में पली बढ़ी लड़की के लिए ये चौंकानेवाला था। मेरी एक भाभी को शादी के बाद ये मालूम हुआ कि भैया के आगे दे दो दांत नकली हैं। ये पता चलने पर जब भैया ने पूछा कि क्या तुम्हें बुरा लगा? तो भाभी ने जवाब में ना कहा। वो और क्या कहती? अगर कहती कि लगा तो क्या हो जाता। ऐसा ही कोई सच अगर लड़की के बारे में शादी के बाद पता चलता तो क्या वो बात भी इतने सामान्य रूप से दब जाती। ऐसे कई किस्से हमारे आसपास हमें मिल जाएगे। ऐसा कई बार सुनने को मिल जाता हैं कि झूठ बोलकर शादी कर दी गई। कुछ साल पहले की बात है मेरी एक मौसी के लिए रिश्ता आया था। बातचीत आगे बढ़ी तो मालूम चला कि लड़का विधुर है। मौसी तब तक उस लड़के से एक दो बार मिल चुकी थी और शायद सपने संजोना भी शुरु कर चुकी थी। लेकिन, सब कुछ ख़त्म हो गया था। उन्होंने किसी से कुछ नहीं बोला। बोलती भी क्या। लड़के की शारीरिक बनावट या मानसिक कमियों से लेकर उसकी नौकरी-चाकरी और पिछली ज़िंदगी की बातें परिवार हमेशा ही छुपाता है। ये सोचकर कि शादी के बाद अगर लड़की को मालूम भी चला तो वो और उसका परिवार क्या कर पाएगा। वैसे ही लड़कियों की परवरिश ही कुछ ऐसी होती है कि वो सामाजिक रूप से पंगु हो जाती है। अपनी परेशानी लड़की माँ-बाप को अगर बताती भी है तो वो उसे एडजस्ट करने की सलाह दे देते हैं और अपने पति से किसी भी तरह की उम्मीद उसके लिए बेवकूफी से ज़्यादा कुछ नहीं होगी। अगर वो इतना समझदार होता तो शादी से पहले ही अपने घरवालों के झूठ उसे बता देता। शादी एक इंसान की ज़िंदगी का सबसे अहम बंधन है खा़सकर हमारे समाज में जहाँ उसे किसी भी तरह निभाना ही होता हैं। लेकिन, फिर भी इस बंधन में झूठ और फ़रेब की इतनी गांठे होती हैं कि लड़की चाहे भी तो उन्हें खोलकर ख़ुद को आज़ाद नहीं कर सकती हैं।

कुरबान में करीना का किरदार शायद आसपास फैले हुए आंतकवाद को देखकर सकते में होगा लेकिन, अगर उस जगह मैं होती तो शायद आंतकवाद से ज़्यादा उस इंसान के झूठ से सकते में होती जिसके भरोसे मुझे ज़िंदगी बितानी थी...

Saturday, November 21, 2009

बिना शादी किए प्रेमी के साथ रह रही प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ भाग गई...

हरेक इंसान अपनी ज़िंदगी में एक ना एक बार ये ज़रूर बोलता है- ज़माना बदल गया है। हमारे वक़्त में तो सब कुछ कितना अच्छा था और ऐसी ही कई बातें। हरेक इंसान ये जानता हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अपनी सुविधा के अनुसार हर कोई बदल जाता हैं। पहले बस से चलनेवाला कुछ दिनों बाद ऑटो की सवारी करता हैं और फिर ख़ुद की कार की। ऐसे ही परिवर्तन हमारी सोच में होते हैं और रिश्तों में भी। पुराने वक़्त में शादी से पहले लड़का-लड़की एक दूसरे को देखते भी नहीं थे और आज के समय में माँ-बाप खु़द उन्हे कहते हैं घूमने फिरने के लिए। प्रेम विवाह भी अब बीती बात हो गई। अब तो ज़माना है लीव इन रिलेशनशीप का। मैंने कइयों को ये बोलते सुना है कि लव मैरिज़ भी टिकती नहीं हैं। प्यार में अंधे होकर शादियाँ करनेवाले जब परिवार के बोझ से दबते हैं तो टूट जाते हैं। बात शायद ठीक हो क्योंकि जब बात प्यार की होती हैं तो बस दो इंसान को आपसी तालमेल की ज़रूरत पड़ती हैं लेकिन, शादी के बाद दो परिवारों का तालमेल शुरु होता हैं। लेकिन, लीव इन में तो वो भी ज़िम्मेदारी नहीं। इसमें तो आप बिना किसी उम्मीद के बिना किसी ज़िम्मेदारी के सामनेवाले के साथ रहते हैं। जब लगे कि अब निभानी मुश्किल है आगे बढ़ जाओ। कई बार ये महसूस होता हैं कि ऐसे रिश्तों से जन्मे बच्चों का भविष्य क्या होगा। बच्चा बड़ा होगा और कहेगा कि मेरे मम्मी और पापा मेरे जन्म से लेकर आज तक कुछ 10 साथी बदल चुके हैं। मेरे पापा की और मेरी मम्मी की ओर अलग-अलग हम कुछ 10 भाई-बहन हैं। सबुकछ आधुनिक हो जाएगा। बच्चों और माँ-बाप के बीच का अंतर ख़त्म हो जाएगा। जो आज एक परिवार का हिस्सा नहीं बनना नहीं चाहते हैं। हर तरह की ज़िम्मेदारी से दूर रहना चाहते हैं। बिना किसी परेशानी के संबंध चाहते हैं वो क्या बच्चे चाहेंगे। मूंगफली की तरह आई-पिल खानेवाली, हर हफ्ते वीक एंड पर सबसे दूर भागनेवाली, ऑफ़िस के बाद मोबाइल स्विच ऑफ़ करनेवाली इस जनरेशन से क्या बच्चों को पालने और बड़ा करने की फुल टाइम जॉब हो पाएगी। मैं भी इसी पीढ़ी की हूँ और जब भी मेरी शादी के बारे में बातचीत होती हैं तो मुझे मेरा बुरा स्वभाव, लोगों से दूर भागने का स्वभाव और जल्दी से खीज जानेवाला स्वभाव डराने लगता हैं। इन सब बदलावों के बीच भी कुछ ऐसा है जो आज भी वही हैं और वो है इंसान की नीयत। पिछले कई दिनों से ये ख़बरें आ रही है कि लव मैरिज में भी अब दहेज मांगा जाने लगा है। शायद लड़केवालों को ये समझ में आ गया कि लड़का तो अब वही करेगा जो वो चाहेगा ऐसे में इसी रिश्ते का दोहन करना सीखना होगा। साथ ही साथ लड़कियों के माँ-बाप का ये भ्रम भी टूट गया कि अगर लव मैरिज हुई तो दहेज नहीं लगेगा। कुछ 10 दिन पहले की ख़बर और चौंकानेवाली थी। एक लड़के ने लड़की की हत्या कर दी मामला बना दहेज का। लड़का-लड़की लीव इन में रहते थे। याने कि अब हम ज़िम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हैं लेकिन, फ़ायदों को छोड़ना भी नहीं चाहते हैं। ये कहानी यही ख़त्म नहीं होती हैं। लीव इन में रहनेवाले जोड़े अब बेवफाई भी करते हुए दिखाई देते हैं। मेरे आसपास ही मुझे कुछ ऐसे जोड़े दिखे जो कि लीव इन में रहते हैं और साथ ही में छुपकर रिश्ता भी रखते हैं। मुझे ये समझ नहीं आया कि जब आप एक नो प्रॉफ़िट नो लॉस के रिश्ते में हैं तो दूसरे को छुपकर क्यों निभा रहे हैं। बिंदास छोड़कर जाइए और रहिए दूसरे के साथ। कुछ ही दिनों में ये सुनने को मिलेगा कि बिना शादी किए प्रेमी के साथ रह रही प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ भाग गई...

Monday, November 16, 2009

मैडम आप प्लीज़ लेडीज़ सीट पर बैठ जाइए

मैडम आप प्लीज़ लेडीज़ सीट पर बैठ जाइए। अभी भीड़ बढ़ेगी और महिलाएं आकर हमें उठा देगी। मैं बिना कुछ कहे अनारक्षित सीट से उठकर महिला सीट पर बैठ गई। वो दोनों सज्जन पुरुष मेरे पीछे कि अनारक्षित सीट पर बैठ गए। इसके बाद उनके बीच बातचीत की शुरुआत हुई। मुद्दा बनी वो महिलाएं जोकि बसों में अनारक्षित सीटों पर बैठती हैं। सज्जन पुरुषों को समस्या थी कि आखिर क्यों वो सामान्य सीटों पर बैठती हैं उन्हें सिर्फ़ महिला सीट पर बैठना चाहिए। कैसे वो महिला सीट पर बैठे पुरुषों को यूँ ही उठा देती हैं। सीधे कहे तो सीट पाने के लिए महिलाओं की कुटिलता पर सज्जन विचार कर रहे थे। बसों में होनेवाली ऐसी बातों को सामान्यतः मैं सिर्फ़ सुनती हूँ। जवाब नहीं देती हूँ। पहली वजह कि सामनेवाला मुझे संवेदनहीन लगता है और दूसरी कि अकेली होती हूँ सो डर भी लगता है। खैर, इस बार मैं बोल उठी। पहले तो उन्हें ये समझाया कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के होने का अर्थ ये नहीं है कि महिलाएं सामान्य सीटों पर नहीं बैठ सकती हैं। इसका अर्थ ये है कि पुरुष महिला सीट पर तब ही बैठ सकते हैं जब तक कि कोई महिला उन्हें उठने के लिए ना कहें। दूसरा कि ये व्यवस्था इसलिए है कि अधिकांश पुरुषों इस विवेक की कमी होती हैं कि वो किसी महिला को देख सीट छोड़ दें। (हालांकि महिलाओं में भी इस विवेक की कमी देखी गई हैं कि वो किसी वृद्ध या विकलांग को देख सीट छोड़ दें)। महिलाओं की सीट की मांग हरेक पुरुष को तब तक नाज़ायज़ लगती है जब तक कि वो महिला उसकी रिश्तेदार ना हो। नहीं तो सीट न देने के लिए सोने या फिर अगले स्टॉप उतरने के कई बहाने जानते हैं। मेरे उन्हें इतना कहने से ही वो दोनों सज्जन बैचेन हो चुके थे। कुछ जैसा कि हमेशा होता है बात को बस सुन रहे थे। किसी ने न तो मेरा साथ दिया और न ही विरोध किया। कई बार पुरुषों को लगता है कि महिलाओं की सीट खाली करने की मांग ग़लत है जब वो हर काम में बराबरी करती हैं तो इसमें क्यों नहीं। बात सही भी है। लेकिन, ऐसी कई बातें हैं जो कि दोनों में अलग है। महिलाएँ हर महीने माहवारी को झेलती बिना किसी परेशानी के। दर्द और उस परेशानी को झेलते हुए भी वो महीनेभर एक सा काम करती हैं। शायद ही कोई पुरुष किसी महिला को देखकर ये बता सकता हैं कि उसकी माहवारी चल रही हैं। या फिर ऐसे कई शारीरिक अंतर महिलाओं को पुरुषों से एक हाथ नीचे करने की कोशिश करते हैं। फिर भी महिला कभी ये कहकर कि मेरी माहवारी चल रही हैं या फिर मैं गर्भवती हूँ कहकर सीट खाली नहीं करवाती हैं। कई बार तो अगर बस में खड़े होने की ठीक से जगह हो तो उठाती भी नहीं। इसके बाद मैं एकदम चुप हो गई। उन सज्जनों ने भी कुछ नहीं किया। मैंने एफ़एम की आवाज़ बढ़ाई और बस से बाहर देखने लगी।
आखिर में सिर्फ़ एक बात लड़का जब दिनभर ऑफ़िस से काम करके आता हैं तो माँ हर चीज़ उसके हाथ में रखती हैं। वही जब लड़की (बेटी या बहू) काम करके आती हैं तो कानों में सिर्फ़ एक बात सुनाई पड़ती है- चलो अब हाथ मुंह धोकर किचन में आ जाओ...

Friday, November 13, 2009

चोर-चोर कज़िन हो गए

बात बहुत बड़ी नहीं है। फिर भी मज़ेदार है और बदलाव की सूचक है। कल रोज़ाना की तरह 10 बजते ही सब टीवी ट्यून किया। लापतागंज जो देखना था। इतने से ही दिनों ये मेरा पसंदीदा हो गया है। कसी स्क्रीप्ट, बेहतरीन संवाद और बढ़िया एक्टिंग के चलते ये मुझे पसंद हैं। खैर, कल के एपिसोड का छोटा-सा संवाद मेरे दिमाग़ में अभी तक घूम रहा है। सीन कुछ यूँ था कि गांव का रहनेवाला दूसरे से पूछता है कि- भैया आपका हमारी मौसी से रिश्ता क्या है। जवाब में गांववाले का भांजा बोलता है- कि मामाजी आपकी मौसी की मामी की चाची की.... तब ही उसका मामा चुप करवाकर बोलता है कि- हम उनके कज़िन हैं... इसके बात आगे बढ़ जाती हैं। लेकिन, मेरा दिमाग़ वही अटका हुआ है। ये संवाद जताता है कि कैसे गांव में भी शहरी या कहे विदेशी कल्चर को अपनाया जा रहा है। कैसे ममेरा भाई भी कज़िन है और चाचेरा भाई भी कज़िन हैं। कई बार मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि किसी को भाई या बहन बोलने में जो महसूस होता है वो कज़िन बोलने में नहीं। खैर, अब मैं इस चिंता में हूँ कि चोर-चोर मौसेरे भाई अगर कल को चोर-चोर कज़िन हो गए तो किसी को कैसे मालूम चलेगा कि चोर का बाप मामा है या चाचा...

Sunday, November 8, 2009

दया का थप्पड़...


पिछले बाहर सालों से हर शुक्रवार की रात दस बजे मुझे क्या करना है ये तय है। दस बजते ही मैं टीवी के सामने बैठ जाती हूँ। चैनल होता है सोनी और सीरियल होता है सीआईडी। साल 1997 में शुरु हुआ ये सीरियल आज तक चल रहा है। आज भी उसे देखना उतना ही रोमांचकारी है जितना कि 12 साल पहले था। अंतर इतना है कि पहले ये आधे घंटे का आया करता था और आज ये एक घंटे का है। आज मैं इसे अकेले बैठकर देखती हूँ और 12 साल पहले पापा से लड़ झगड़कर देखती थी। उस वक़्त दस बजे ही डीडी मैट्रो पर आज तक आया करता था। पापा देखते थे आज तक और मैं और भैया बैचेन रहते थे सीआईडी के लिए। इस सीरियल में मुझे जो सबसे ज़्यादा पसंद है वो है दया। कुछ हफ़्ते पहले दिखाया कि दया मर गया मैं इतनी उदास हो गई कि पूछिए मत। जो मिले उसे कहूँ कि दया मर गया ये कैसे हो गया। कुछ ने मुझे पागल कहा और कुछ मुझ पर हंसने लगे। खैर, वो सही सलामत हैं। दया का थप्पड़ ऐसा है कि एक बार में अपराधी तोते की तरह बोलने लगता है और तो और दया ने अगर जंगल में भी अगर थप्पड़ मारा तो अगले ही शॉट में अपराधी सीआईडी के ऑफ़िस में। सीआईडी अपना-सा लगता है। ऐसा लगता है कि बस ये सब कुछ असल है और ये सभी पात्र मेरे दोस्त है। पिछले हफ़्ते ही शनिवार को मुझे सुबह 6 बजे ऑफ़िस पहुंचना था फिर भी मैं 12 तक जागी सिर्फ़ दया का थप्पड़ देखने के लिए...

Friday, November 6, 2009

बिना शादी किए दिल्ली में रहना...

मौसी दिल्ली में क्यों रहती है? क्या उनकी शादी हो गई हैं?
ये मासूम से सवाल मेरी भांजी ने मेरी मम्मी से पिछले दिनों पूछे। मेरी मौसेरी बहन कुछ दिन पहले भोपाल गई थी। जब मम्मी ने उनकी बेटी को ये बताया कि दीप्ति मौसी दिल्ली में रहती है, तो उसने ये सवाल कई बार मम्मी से पूछा कि बिना शादी के कैसे वो दिल्ली चली गई। मेरी भांजी की उम्र 5 साल है। जब मम्मी ने ये बात मुझे बताई तो मैं खूब हंसी। लेकिन, इस सवाल के पीछे एक बहुत अहम बात छुपी हुई है। आखिर 5 साल की बच्ची के दिमाग़ में ये कैसे आया कि लड़कियां केवल शादी के बाद ही घर से बाहर जाती हैं। आज से वक़्त में तो ये बात और अखरती हैं। पहले के समय की बात और थी कि लड़कियाँ शादी करके ही बाहर निकलती थी लेकिन, आज तो नौकरी से लेकर पढ़ाई तक के लिए लड़कियाँ घरों से बाहर आ रही हैं। लेकिन, शायद आगर गिनती की जाए तो आज भी घरों में ही रह जानेवाली लड़कियों की संख्या ज़्यादा होगी। परिवार के माहौल का बच्चों पर कितना असर होता हैं ये इस बात से भी समझा जा सकता हैं कि जब मैं छोटी थी अपनी मौसियों की शादियाँ होते देखती थी लेकिन, मेरी एकमात्र बुआ की शादी नहीं होती थी। मैं पापा से कहती थी कि- मौसी की शादी होती है, बुआ की नहीं। मेरे पापा बस हंसकर रह जाते थे। मैं ये समझ ही नहीं पाती थी कि किसी की मौसी किसी और की बुआ भी तो होती है। खैर, मेरी बुआ ने शादी क्यों नहीं कि ये बात मुझे बहुत साल बाद समझ आई। लेकिन, मुझे लगता है कि इन बातों को हंसकर नहीं टालना चाहिए। ज़रूरत है उस बच्ची को ये समझाने कि आखिर क्यों दीप्ति मौसी बिना शादी किए दिल्ली में रह रही हैं...