Wednesday, September 16, 2009

पढ़ना ज़रूरी है...

इंटरनेट की दुनिया में घूमते हुए आज एक ऐसी रिपोर्ट देखी जिसे देखकर लगाकि मेरी दुखती रग पर किसी ने हाथ रख दिया। अमेरिकन पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेस के चैनल NOW की वेबसाइट पर बेनिफ़िट्स डिनाईड के नाम से एक रिपोर्ट मौजूद है। एक साल पहले की आधे घंटे की ये रिपोर्ट अमेरिका के सर्विस सेक्टर में फ़्री लान्सर के रूप में काम कर रहे लोगों के अधिकार के बारे में बात करती हैं। इस रिपोर्ट का सार है कि कैसे फ़्री लान्सर के रूप में या फिर कॉन्ट्रेक्ट के रूप में लोगों से काम करवाया जा रहा है। ये काम उतना ही होता है जितना कि संस्था का कोई कर्मचारी करता होगा लेकिन, क्योंकि ये फ़्री लान्सर के रूप में काम करते हैं इसलिए उन्हें सुविधाओं से वचिंत रखा जाता है। हमारे देश का हाल भी कुछ ऐसा ही है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि हाल अमेरिकन पत्रकारों का ज़्यादा है। जैसा कि हमारे देश में भी है। हमारे देश में यही सूरते हाल हैं। मीडिया में काम करनेवालों को न तो किसी तरह का हेल्थ कवर मिलता है और न ही कोई और सुविधा। जहाँ कर्मचारियों को समय पर तनख्वाह न मिलती हो वहाँ इन सब की बात ही बेमानी है। जितनी भी लिखा पढ़ी होती है वो पूरी तरह से संस्था के हक़ की होती है। आप भी ज़रूर देखे इस रिपोर्ट को जाने कि क्या है हमारे हक़ और कहाँ खड़े है हम...

Friday, September 11, 2009

ये जीना भी क्या जीना है लल्लू...


दिल्ली कभी-कभी सुन्दर शहर लगता है। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि अधिकतर यहाँ की अव्यवस्थाएं मुझमें खीज पैदा कर देती हैं। मुझे लगता है कि क्या यार क्या शहर है ज़रा-सी बारिश से थम जाता है। किराए पर चढ़ कमरे ऐसे बने हैं कि मुर्गी के दबड़े ज़्यादा अच्छे होंगे। खैर, जब भी मैं दिल्ली के इस हाल से और खा़सकर अपने ही बेहाल से दुखी हो जाती हूँ चश्मे बद्दूर देख लेती हूँ। फ़िल्म एक क्लासिक है और कहानी से लेकर अभिनय तक सबकुछ बेहतरीन है। लेकिन, उससे भी बेहतरीन है दिल्ली... चौड़ी-चौड़ी खाली सड़कें, किराएदारों के लिए ही सही लेकिन अच्छे फ़्लैट, मिलनसार लोग और हवा में घुला हुआ एक इत्मीनान। किसी का भी ऐसे शहर में रहने के लिए जी मचला जाए। चश्मे बद्दूर साल 1981 में आई थी। संई परांजपे के निर्देशन में बनीं ये एक बेहतरीन कॉमेडी थी। दिल्ली में बेचलर्स की ज़िंदगी बिता रहे तीन दोस्तों के आगे पीछे बुनी हुई ये फ़िल्म आपके मूड को कभी भी फ़्रेश कर सकती है। फ़ारुख शेख, रवि वासवानी, दीप्ति नवल, दीना पाठक, सईद जा़फ़री सभी का अभिनय बेहतरीन। कई बार इस फ़िल्म को देखते हुए मन में आया कि काश ज़िंदगी एक फ़िल्म की ही तरह होती हमेशा हैप्पी एंडिंग। असलियत इतनी सुन्दर नहीं है। यहाँ तो रोज़ाना मकान मालिक से लेकर बस के कन्डक्टर तक, ऑफ़िस से लेकर दुकानदार तक से बकझक होती ही रहती है। यहाँ बने दोस्तों को मैं अंगुलियों पर गिन सकती हूँ और अपने आप बन गए दुश्मनों की तो लिस्ट बन चुकी हैं। ज़िंदगी इतनी भी बुरी नहीं... ये कह कर मैं दिल को बहला लेती हूँ।









फिर भी फ़िल्म और असलियत के इस अंतर को समझने के बाद भी जब भी चश्मे बद्दूर देखती हूँ एक टीस-सी उठती है कि काश मैं होती ओमी, बोजो और सिद्धार्थ में से एक...

Wednesday, September 9, 2009

मेरा दिल्ली में रहना...

तू तो दिल्ली में रहती हैं, तुझे क्या परेशानी है। यार काश मैं भी दिल्ली में रहती...
ऐसा कहते ही उनसे एक आह भरी और आज उस पर जो बीती वो मुझे सुना दी। मैं बात कर रही हूँ, मेरी उस दोस्त की जिसने अपनी ज़िंदगी में कुछ भी अपने मन से नहीं किया है। हरेक काम वो अपने माता-पिता की मर्ज़ी से करती आई हैं। उसे इस बात का बहुत कोफ़्त है कि उसके माता-पिता को उस पर बिल्कुल यक़ीन नहीं है। ये सच भी है कि स्कूल या कॉलेज के दिनों में वो कभी हमारे साथ भी कही घूमने नहीं जाती थी। उसके माता-पिता उसे कभी नहीं जाने देते हैं। इसके पीछे शायद ये भावना हो कि उन्हें बेटी पर यक़ीन न हो लेकिन, मुझे ऐसा लगता है कि शायद उन्हें इस दुनिया पर यक़ीन नहीं हैं। खैर, माता-पिता और बच्चों के बीच के मनमुटाव नअ नहीं लेकिन, जो नया है वो ये कि - तू तो दिल्ली में रहती हैं, तुझे क्या परेशानी है। यार काश मैं भी दिल्ली में रहती... मैं तब से इस बात का मतलब खोज रही हूँ...

Saturday, September 5, 2009

मोरा संईया मो से बोले ना...

पिछले कुछ दिनों से मेरा पुरानी दिल्ली में आना जाना कुछ ज़्यादा ही हो रहा है। अपने कार्यक्रम के सिलसिले में मैं दिल्ली की इन तंगों से होकर कई दिलचस्प लोगों से मिल चुकी हूँ। निचली बस्तियों में रहनेवाले बच्चों के लिए काम करनेवाली संस्थाओं में काम करनेवालों से यहाँ रहनेवाले बच्चे सभी से मिलकर हर बार एक नया अनुभव होता हैं। हालांकि कइयों को इन एनजीओ की नीयत पर शक़ होता हैं लोगों को लगता हैं कि ये लोग पैसों के चक्कर में ये सब करते हैं और सरकार से मिलनेवाला पूरा पैसा खा जाते हैं। असलियत कुछ भी हो, ये लोग कुछ भी करते हो फिर भी कुछ तो फ़ायदा इन बच्चों को मिलता ही होगा। कल मैं ऐसे ही कुछ नौजवानों से मिल जोकि बच्चों के लिए काम करते हैं। हालांकि ये उनका मुख्य काम नहीं हैं। इनमें से कुछ छात्र थे तो कुछ संगीतकार। ये सभी निचली बस्तियों में काम करनेवाले एनजीओ से जुड़े हुए हैं। ये सभी बच्चों को कुछ सिखाते है। पढना-लिखाना या फिर कोई काम काज़ से जुडी़ बात नहीं। बल्कि ये युवा बच्चों की इन निचली बस्तियों को म्यूज़िक बस्ती में तब्दील करने का काम करते हैं। ये युवा बच्चों को संगीत सिखाते हैं। हर तरह का संगीत शास्त्रीय से लेकर जेज़ तक... साथ ही साथ संगीत की धुन को पकड़ना और उस पर थिरकता भी... बच्चे इन्हें देखते से ही इन पर झूम जाते हैं। खुश होकर उनके गले लग जाते हैं। मंत्र मुग्ध से जो ये कहते हैं वो वैसा ही करते हैं। इतना ही नहीं ये इन बच्चों को वो सभी वाद्ययंत्र दिखाते हैं जो उन्होंने शायद ही कभी देखे हो। लेकिन, आखिर संगीत की इन्हें क्या ज़रूरत... इन्हें तो ज़रूरत है शिक्षा की, ऐसे काम को सीखने की जो आगे चलकर दो पैसा कमाने में मदद कर सकें। लेकिन, म्यूज़िक बस्ती से जुड़े सुहैल और फ़ेथ की सोच अलग हैं। इनका मानना हैं कि संगीत वो ज़रिया है जो इन्हें ख़ुद को समझने में मदद करता हैं। दोस्ती करना सिखाता हैं। अपनी इस ज़िंदगी से ऊपर उठकर कुछ करने की हिम्मत देता हैं। बात कुछ अलग है और कुछ अटपटी भी हैं। लेकिन, जब इन छोटे-छोटे बच्चों को - मोरो संईया मोसे बोले ना... गाते और फिर खिलखिलाकर हंसते देखा तो ये अटपटा सा आइडिया भी बढ़िया ही लगा...

Thursday, September 3, 2009

ख़त्म होनेवाला है मुश्किल दौर...

ख़त्म होनेवाला है मुश्किल दौर। ये वो लाइन है जो अनिकेत ने कई बार लिखी थी और अब वो उसे बोलना सीख रहा था। अनिकेत की उम्र 19 साल है लेकिन, दिमागी रूप से वो 10 साल का भी नहीं है। मानसिक रूप से विकलांग अनिकेत दिल्ली के विशेष स्कूल मासूम दुनिया में पढ़ता है। ये स्कूल उसके मम्मी और पापा मिलकर चलाते है। दिल्ली के द्वारका इलाके में निचली बस्तियों में रहनेवाले मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए स्कूल चलानेवाली ये दंपति ख़ुद को ख़ास मानती हैं। श्री और श्रीमती न्याल का मानना है कि वो ख़ास है इसलिए ही भगवान नो उन्हें इतना ख़ास बच्चा दिया है। अपने एक शूट के सिलसिले में जब मैं वहां पहुंची तो उस वक़्त सभी बच्चे पढ़ाई कर रहे थे। यहां पढ़ाई उम्र के मुताबिक़ नहीं दिमागी समझ के मुताबिक़ तय होती है। इस मासूम दुनिया में अलग-अलग तरह के मानसिक विकलांगता से जुड़े बच्चे पढ़ते हैं। ऐसा नहीं है कि यहां ये बच्चे माता-पिता के साथ आते हो। अधिकतर माँ-बाप तो इन बच्चों को बोझ समझते है। ऐसे में इन दोनों ने मिलकर इन बस्तियों में जाकर ऐसे बच्चों इकठ्ठा किया था। यहाँ पढ़ रहे ये मासूम बच्चे अपने घरों से दुत्कारे हुए हैं। कुछ के माँ-बाप रिक्शा चलाते हैं तो कुछ के मजदूरी करते हैं। कई बच्चे ऐसे हैं जो उम्र में तो 30 साल के है लेकिन, ख़ुद से खाना तक नहीं जानते हैं। ऐसे में न्याल दपंत्ति इन्हें इतना सक्षम बना देते हैं कि ये बच्चे अपने बुनियादी कामों के लिए किसी पर निर्भर ना हो। श्री न्याल बताते है कि जब उन्हें ये मालूम चला था कि उनका छोटा बेटा मानसिक रूप से विकलांग है वो खूब रोए थे। लेकिन, उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने बच्चे पर पूरा ध्यान दिया उसे विशेष स्कूल में पढ़ाया और उसकी परवरिश पूरे इत्मिनान और ध्यान से की। अपने बड़े बेटे को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक़ कर देने के बाद न्याल ने तय किया कि वो सिर्फ़ अनिकेत के लिए ही कुछ नहीं करेंगे बल्कि उसके जैसे और भई बच्चों को पढ़ाएगे। इसके लिए उन्होंने कई निचली बस्तियों का दौरा किया, कई गालियाँ खाई लेकिन, हिम्मत नहीं हारी। जब भी वो ऐसे बच्चों के माता-पिता से बात करते वो इनका मज़ाक बनाते कहते कि कलेक्टर बना दोगे क्या इस पागल को। लेकिन, इनका जवाब एक ही होता कि- वो उन्हें इस समाज में जीना सिखा सकते हैं। अनिकेत अददान सामी का फ़ेन हैं और उसके गाने गाता हैं। ऐसे ही अखिल बहुत बेहतरीन माऊथ ऑर्गन बजाता है। अनिल ख़ूबसूरत पेंटिंग बनाता हैं। हरेक में एक खूबी है जो हमें नज़र नहीं आती हैं। न्याल दंपत्ति का मानना है कि ये बच्चे हमें सिखाते है कि हरेक काम आराम से करना चाहिए हमेशा भागते नहीं रहना चाहिए...