कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Saturday, December 26, 2009
क्या हैं हमारी असल सोच...
Monday, December 21, 2009
फ़ोटो के ज़रिए सिनेमा का नया रूप...
Thursday, December 17, 2009
लड़की हो तो ग़लती तुम्हारी...
Saturday, December 12, 2009
काली राजकुमारी...
Friday, December 11, 2009
इकोनोमी मील या हैप्पी मील...
Monday, December 7, 2009
नियमों का पालन करनाः क्यों मज़ाक करते हो...
Saturday, December 5, 2009
चौंचलेबाज़ी...
Tuesday, December 1, 2009
लिजलिजी कौम
Saturday, November 28, 2009
मेरा एक तरफा होना ग़लत था...
मेरी पिछली पोस्ट पर आई प्रतिक्रियों से मुझे ये तो समझ आया ही कि सिर्फ़ महिलाओं के साथ शादी के मामलों में अन्याय नहीं होता है बल्कि पुरुषों के साथ भी होता है। लेकिन, साथ ही ये भी महसूस हुआ कि पुरुष किसी भी सूरत पर महिलाओं को समाज की ग़लत हरक़तों के लिए ज़िम्मेदार मानने में कोताही नहीं बरतना चाहते हैं। अपने लेख में मैंने केवल महिलाओं के दुख को लिखा लेकिन, मैं ये स्वीकार करती हूँ कि इस तरह के धोखे किसी के भी साथ हो सकते हैं। लेकिन, एक बात ये भी है कि पुरुष के पास अपनी जीवन साथी की कमी को कही न कही जाकर पूरा करने के साधन स्त्रियों से ज़्यादा हैं। खैर, मैं कल से कुछ परेशानी में हूँ। जोकि आज ब्लॉग पर एक सज्जन की पोस्ट को पढ़कर और बढ़ गई। कुछ दिनों पहले ख़बर मिली कि मेरे पहचान क्षेत्र की एक लड़की ने अपने प्रेमी को धोखा दिया। लड़की उस लड़के से पिछले 5 सालों से प्यार कर रही थी और उनकी जल्द ही शादी होनेवाली थी। बावजूद इस सबके लड़की ने किसी और लड़के से संबंध रखे। मेरी मित्र मंडली में उस लड़की की बेवफ़ाई के किस्से तैर रहे हैं। मैं भी उसे ग़लत मानती हूँ। लेकिन, एक बात से मुझे एतराज है। वो लड़का जिससे लड़की के बाद में संबंध बने वो ये जानता था कि इसका प्रेमी है और वो पूरे तरीक़े से मन बहला रहा था। इसके बावजूद कोई लड़के को ग़लत नहीं मान रहा हैं। सभी का कहना है कि लड़की उत्तेजित करे तो लड़का बेचारा क्या करें। यही बात आज सुबह पढ़ी पोस्ट में थी जहाँ सज्जन लड़कियों पर पूरे समाज की ज़िम्मेदारी डाल रहे थे। वो भी सिर्फ़ बच्चे पैदा करने के रूप में। समस्या ये है कि हम जब भी किसी विशेष लिंग से जुड़े मुद्दों पर बात करते हैं। तो हम ख़ुद का फ़ेवर करने लगते हैं और दूसरे को ग़लत मान लेते है। इतनी समझ रखनेवाले हम लोग शायद बिना किसी कि ओर झुके कोई बात तय नहीं कर सकते हैं।
Wednesday, November 25, 2009
झूठ की बुनियाद पर खड़े रिश्ते...
Saturday, November 21, 2009
बिना शादी किए प्रेमी के साथ रह रही प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ भाग गई...
Monday, November 16, 2009
मैडम आप प्लीज़ लेडीज़ सीट पर बैठ जाइए
Friday, November 13, 2009
चोर-चोर कज़िन हो गए
Sunday, November 8, 2009
दया का थप्पड़...
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पिछले बाहर सालों से हर शुक्रवार की रात दस बजे मुझे क्या करना है ये तय है। दस बजते ही मैं टीवी के सामने बैठ जाती हूँ। चैनल होता है सोनी और सीरियल होता है सीआईडी। साल 1997 में शुरु हुआ ये सीरियल आज तक चल रहा है। आज भी उसे देखना उतना ही रोमांचकारी है जितना कि 12 साल पहले था। अंतर इतना है कि पहले ये आधे घंटे का आया करता था और आज ये एक घंटे का है। आज मैं इसे अकेले बैठकर देखती हूँ और 12 साल पहले पापा से लड़ झगड़कर देखती थी। उस वक़्त दस बजे ही डीडी मैट्रो पर आज तक आया करता था। पापा देखते थे आज तक और मैं और भैया बैचेन रहते थे सीआईडी के लिए। इस सीरियल में मुझे जो सबसे ज़्यादा पसंद है वो है दया। कुछ हफ़्ते पहले दिखाया कि दया मर गया मैं इतनी उदास हो गई कि पूछिए मत। जो मिले उसे कहूँ कि दया मर गया ये कैसे हो गया। कुछ ने मुझे पागल कहा और कुछ मुझ पर हंसने लगे। खैर, वो सही सलामत हैं। दया का थप्पड़ ऐसा है कि एक बार में अपराधी तोते की तरह बोलने लगता है और तो और दया ने अगर जंगल में भी अगर थप्पड़ मारा तो अगले ही शॉट में अपराधी सीआईडी के ऑफ़िस में। सीआईडी अपना-सा लगता है। ऐसा लगता है कि बस ये सब कुछ असल है और ये सभी पात्र मेरे दोस्त है। पिछले हफ़्ते ही शनिवार को मुझे सुबह 6 बजे ऑफ़िस पहुंचना था फिर भी मैं 12 तक जागी सिर्फ़ दया का थप्पड़ देखने के लिए...
Friday, November 6, 2009
बिना शादी किए दिल्ली में रहना...
ये मासूम से सवाल मेरी भांजी ने मेरी मम्मी से पिछले दिनों पूछे। मेरी मौसेरी बहन कुछ दिन पहले भोपाल गई थी। जब मम्मी ने उनकी बेटी को ये बताया कि दीप्ति मौसी दिल्ली में रहती है, तो उसने ये सवाल कई बार मम्मी से पूछा कि बिना शादी के कैसे वो दिल्ली चली गई। मेरी भांजी की उम्र 5 साल है। जब मम्मी ने ये बात मुझे बताई तो मैं खूब हंसी। लेकिन, इस सवाल के पीछे एक बहुत अहम बात छुपी हुई है। आखिर 5 साल की बच्ची के दिमाग़ में ये कैसे आया कि लड़कियां केवल शादी के बाद ही घर से बाहर जाती हैं। आज से वक़्त में तो ये बात और अखरती हैं। पहले के समय की बात और थी कि लड़कियाँ शादी करके ही बाहर निकलती थी लेकिन, आज तो नौकरी से लेकर पढ़ाई तक के लिए लड़कियाँ घरों से बाहर आ रही हैं। लेकिन, शायद आगर गिनती की जाए तो आज भी घरों में ही रह जानेवाली लड़कियों की संख्या ज़्यादा होगी। परिवार के माहौल का बच्चों पर कितना असर होता हैं ये इस बात से भी समझा जा सकता हैं कि जब मैं छोटी थी अपनी मौसियों की शादियाँ होते देखती थी लेकिन, मेरी एकमात्र बुआ की शादी नहीं होती थी। मैं पापा से कहती थी कि- मौसी की शादी होती है, बुआ की नहीं। मेरे पापा बस हंसकर रह जाते थे। मैं ये समझ ही नहीं पाती थी कि किसी की मौसी किसी और की बुआ भी तो होती है। खैर, मेरी बुआ ने शादी क्यों नहीं कि ये बात मुझे बहुत साल बाद समझ आई। लेकिन, मुझे लगता है कि इन बातों को हंसकर नहीं टालना चाहिए। ज़रूरत है उस बच्ची को ये समझाने कि आखिर क्यों दीप्ति मौसी बिना शादी किए दिल्ली में रह रही हैं...
Tuesday, October 27, 2009
दोहरे मापदंड...
Wednesday, September 16, 2009
पढ़ना ज़रूरी है...
Friday, September 11, 2009
ये जीना भी क्या जीना है लल्लू...
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दिल्ली कभी-कभी सुन्दर शहर लगता है। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि अधिकतर यहाँ की अव्यवस्थाएं मुझमें खीज पैदा कर देती हैं। मुझे लगता है कि क्या यार क्या शहर है ज़रा-सी बारिश से थम जाता है। किराए पर चढ़ कमरे ऐसे बने हैं कि मुर्गी के दबड़े ज़्यादा अच्छे होंगे। खैर, जब भी मैं दिल्ली के इस हाल से और खा़सकर अपने ही बेहाल से दुखी हो जाती हूँ चश्मे बद्दूर देख लेती हूँ। फ़िल्म एक क्लासिक है और कहानी से लेकर अभिनय तक सबकुछ बेहतरीन है। लेकिन, उससे भी बेहतरीन है दिल्ली... चौड़ी-चौड़ी खाली सड़कें, किराएदारों के लिए ही सही लेकिन अच्छे फ़्लैट, मिलनसार लोग और हवा में घुला हुआ एक इत्मीनान। किसी का भी ऐसे शहर में रहने के लिए जी मचला जाए। चश्मे बद्दूर साल 1981 में आई थी। संई परांजपे के निर्देशन में बनीं ये एक बेहतरीन कॉमेडी थी। दिल्ली में बेचलर्स की ज़िंदगी बिता रहे तीन दोस्तों के आगे पीछे बुनी हुई ये फ़िल्म आपके मूड को कभी भी फ़्रेश कर सकती है। फ़ारुख शेख, रवि वासवानी, दीप्ति नवल, दीना पाठक, सईद जा़फ़री सभी का अभिनय बेहतरीन। कई बार इस फ़िल्म को देखते हुए मन में आया कि काश ज़िंदगी एक फ़िल्म की ही तरह होती हमेशा हैप्पी एंडिंग। असलियत इतनी सुन्दर नहीं है। यहाँ तो रोज़ाना मकान मालिक से लेकर बस के कन्डक्टर तक, ऑफ़िस से लेकर दुकानदार तक से बकझक होती ही रहती है। यहाँ बने दोस्तों को मैं अंगुलियों पर गिन सकती हूँ और अपने आप बन गए दुश्मनों की तो लिस्ट बन चुकी हैं। ज़िंदगी इतनी भी बुरी नहीं... ये कह कर मैं दिल को बहला लेती हूँ।
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Wednesday, September 9, 2009
मेरा दिल्ली में रहना...
Saturday, September 5, 2009
मोरा संईया मो से बोले ना...
Thursday, September 3, 2009
ख़त्म होनेवाला है मुश्किल दौर...
Monday, August 31, 2009
घिन की हद...
Friday, August 21, 2009
बच्चों की बड़े होने में मदद करें...
Wednesday, August 19, 2009
मैट्रो की ट्रैन के बाहर फैली अव्यवस्थाएं...
Friday, August 7, 2009
सब्र रखे इतना वक़्त कहाँ...
Thursday, August 6, 2009
अनोखी दोस्ती...
Tuesday, July 28, 2009
बेमेल के बीच होती प्रतियोगिता...
Friday, July 24, 2009
जो पैदल चलते हैं उन्हें इज़्ज़त नसीब नहीं...
Monday, July 20, 2009
ये जीना भी कोई जीना है लल्लू...
Saturday, July 18, 2009
सिक्कों के शौकिन...
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आज दिल्ली के राजेन्द्र नगर इलाक़े में रह रहे विशुद्ध दिल्लीवाले परिवार के घर जाना हुआ। मेरे कार्यक्रम के सिलसिले में वहां गई थी। यहाँ रहनेवाले सुमित एक कॉइन कलेक्टर है। उनके पास कई विरले सिक्के और नोट है। सुमित अपने बड़े भाई और दो दोस्तों के साथ मिलकर दिल्ली कॉइन सोसायटी नाम की एक संस्था चला रहे हैं। चार लोगों के साथ शुरु हुई ये सोसायटी अब तीन सौ लोगों का परिवार बन गई है। जब मैं उनके घर अपनी कैमरा यूनिट के साथ पहुंची तो प्यारी-सी तीन साल की द्ध्रति (सुमित की बेटी) ने हमारा स्वागत किया। सुमित एक ग्राफ़िक्स डिजाइनर हैं और एक एमएनसी के लिए काम करते हैं। मैंने पूछा कि महानगर की भाग-दौड़वाली ज़िंदगी में जहाँ इंसान को खु़द को ज़िंदा रखना दुभर लगता है ऐसे में इस शौक को कैसे ज़िंदा रखा है आपने। बेहद ही सरल और शांत स्वभाव के सुमित ने कहा कि बस ज़िंदा रखा है हमने ये हमारी ज़िंदगी का हिस्सा है इसके बिना तो जीवन की ही कल्पना नहीं की जा सकती हैं। सुमित को ये शौक़ उनके बड़े भाई से मिला है। ये दोनों ही भाई बचपन से सिक्के और नोट को इकठ्ठा करने में लगे हुए हैं। इनके साथ जुड़े इनके दो और साथी भी इस शौक को पूरे मन से निभा रहे है। पेशे से वकील और बैंक मैनेजर ये दोनों सज्जन सुमित और उनके भाई ऋषि के साथ मिलकर हर साल सिक्कों की प्रदर्शनी भी लगाते हैं। इनके पास दुनिया के अलग-अलग देशों के, अलग और अनोखे नोट मौजूद है। पाकिस्तान में हज पर जानेवाले यात्रियों के लिए अलग से छपाए गए नोट भी इनके पास है जो कि केवल सऊदी अरेबिया में ही मान्य है। नेपाल नरेश की ओर से जारी नोट, बर्मा से लेकर सूडान तक के नोट और एक मुस्लिम देश में छपे वो नोट भी इनके पास है जिन पर गणेशजी की तस्वीर मौजूद है।
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हमारे देश में आज़ादी से पहले चलनेवाले नोट, आज़ादी के बाद छपे नोट, कुछ मिसप्रिंट हो चुके नोट, यूनिक नंबरवाले नोट सब कुछ इनके पास है। ये चारों अपनी व्यस्त ज़िंदगी से अपने इस शौक के लिए वक़्त चुरा ही लेते है। इन सभी का मानना है कि आप अगर चाहे तो अपने शौक को पूरा कर सकते है। अगर आप में से कोई भी सिक्कों को संग्रहित करने का शौक रखते हैं, तो आप इनसे सलाह ने सकते हैं साथ ही इनसे जुड़ भी सकते हैं। बस यहाँ क्लिक कीजिए...
Wednesday, July 15, 2009
तिल देखा ताड़ देखा...
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Monday, July 13, 2009
सच का सामना करते हुए हम लोग...
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmarsc66627omXweT4cecpuMIGKFrJQ4BYg7Nz1gHmSi3ifuUX8fByyZeNEy5SuybTM18cUK1yajvjZrpdmxd-vAXFn5alh59CGTFCxQy73FzPKPKTxH6Hjj7W7hKRLEz6gjT7OpMGETZ-/s200/humlog.jpg)
कल एनडीटीवी इंडिया पर चक्रव्यूह देखा तो मालूम चला कि हम लोग को प्रसारित हुए 25 साल बीत गए है। स्टूटियो में और कॉन्फ़्रैन्सिंग से जुड़े हर शख्स को हम लोग और बुनियाद जैसे सीरियलों की कमी अखर रही थी। हालांकि स्मृति इरानी को छोड़कर कोई भी और कलाकार आज के वक़्त का नहीं था। फिर भी ये बात तो माननी ही पड़ेगी कि इन 25 सालों में हम लोग बहुत कुछ बदल गए हैं। ख़ास करके टेलीविज़न के मामले में। लेकिन, कई लोग इसे बदलाव नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ पतन ही मानते हैं। जोकि मेरे ख्याल से ग़लत हो जाता है। कई जगह मैंने ऐसे लेख पढ़े हैं जिनमें आज के बेहूदें सीरियल्स की दुहाई दी जाती है। लेकिन, क्या सच में ये सभी बेहूदें है। क्योंकि जब शुरु हुआ था तो लोगों की घड़ियों की सूइयां थम जाया करती थी या फिर आज चल रहा बालिका वधू एक बेहतर बचलाव की उम्मीद लेकर आया है। माना कि जब ये सीरियल रबर की तरह खींचने लगते हैं तो वो झिलाऊ बन जाते हैं। लेकिन, आज का वक़्त उतना भी बुरा नहीं है। साराभाई वर्सेस साराभाई या फिर खिचड़ी या फिर बा बहू और बेबी इसके कुछेक उदाहरण हो सकते हैं। पहले हमारे देश के लिए टीवी ही एक अनोखी चीज़ थी और फिर उसमें सिनेमा की तरह एक कहानी को दिखाना और बडा़ आश्चर्य था। ये कुछ ऐसा ही था कि पहले के जो लोग सिनेमा देखने जाते थे उनके लिए हर हफ़्ते एक ही कहानी को धीरे-धीरे बढ़ते देखना कौतूहल का विषय था। लेकिन, समय बदला या फिर कहे कि भागने लगा। अब लोग एक हफ़्ते का इंतज़ार नहीं कर पाते हैं यही वजह है कि हम अब रोज़ाना के सीरियलों पर उतर आए हैं। पहले की तरह आज केवल एक ही चैनल भी नहीं हैं। अब पता नहीं कि लोग एक हफ़्ते तक उस सीरियल के लिए इतंज़ार करे न करे। और, इस सबसे बड़ी बात जो आज के वक़्त में बदली है वो है एकल परिवार जोकि शहरों में आकर बस गए हैं। उन शहरों में जहां न तो शाम को टहलने के लिए पार्क है और नहीं ऐसे पड़ोस जिनके साथ खाना खाकर ओटले पर वक़्त बिताया जा सके। आज तो ऐसी नौकरियाँ भी नहीं जो कि 5 बजे ख़त्म हो जाएं और पूरा परिवार सात बजे तक खाना खाकर साथ बैठा हो। शायद यही वजह है कि आज टीवी दोस्त बनता जा रहा है। अब तो परिवार में कोई सुबह की शिफ़्ट करता है तो कोई रात की। अब पड़ोस जब बात करनेवाला न हो तो इंसान टीवी को ही दोस्त बना लेता है। आज के इस दौर में टीवी पर जब निर्भरता इतनी बढ़ी है तो चैनल भी बढ़े है। ऐसे में एक इसांन एकसे ही सीरियल हर चैनल पर नहीं देख सकता है। औऱ, यही से जन्म होता है अलग-अलग तरह के फ़ार्मेट का। कोई घर की कहानी दिखाता है तो कोई कॉलेज की। कोई अस्पताल में रोमांस दिखाता है तो कोई गांव का भारत। ऐसे में कुछ कामयाब हो जाते है तो कुछ पीछे छूट जाते हैं। रीयलिटी शो भी इसी प्रपंच का हिस्सा है। आज के वक़्त में टीवी के साथ मिलनेवाला रिमोट सबसे घातक है।
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दर्शक अगर चैनल पर किसी इंसान के जीवन का बहुत ही निजी सच देखकर रुकता है तो चैनलवाले सच का सामना भी करवा सकते हैं। वैसे, इन सच्चाइयों का सामना भी हम जैसे ही कुछ लोग करते है। आखिर एक मोटी रकम मिलती है ऐसा करने के एवज में...
Wednesday, July 8, 2009
ग्लोबल विलेज का ग्लोबल शोक...
Tuesday, June 30, 2009
आज पहली तारीख़ है...
हड्डियों का ढांचा...
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माइकल जैक्सन की मौत की बाद उसके बारे में बाहर आ रही ख़बरें चौंकानेवाली हैं। माइकल जैक्सन गंजे थे या फिर दवाइयों पर ज़िंदा थे बात कोई बड़ी नहीं लेकिन, ये कि वो ऑक्सीज टेंट में सोते थे या फिर उनकी नाक गायब हो चुकी थी या फिर कि सीने को दबाने बस से उनकी पसलियां टूट गई आश्चर्यजनक बातें हैं। एक इतना सफ़ल इंसान इतना कमज़ोर कैसे हो सकता है। हमेशा से ये माना जाता है कि एक गरीब जिसके पास खाने को पैसा ना हो वो भूख से हड्डियों का ढांचा बन जाता है। लेकिन, एक अरबपति इंसान जिसके क़दमों में सफ़लता पड़ी रहती थी और पुरी दुनिया जिसे चाहती थी उसकी ये हालत कैसे हो सकती है। माइकल जैक्सन को स्कीन का कैंसर हो गया था। अपनी नाक को सुडौल और सुडौल बनाने के चक्कर में वो गायब ही कर बैठे थे। सच में सुन्दर दिखने की चाहत इंसान को कहीं का नहीं छोड़ती। कोई आखिर एक बार माइकल से पूछता कि भाई मेरे आवाज़ को चेहरे से क्यों जोड़ते हो। क्या पंडित भीमसेन जोशी ने ये कभी सोचा होगा कि मैं दिखता कैसा हूँ। मैं तो बचपन से लेकर आजतक लता मंगेशकर को बड़े से बड़े समारोह में सिर में तेल चुपड़े दो चोटी किए देख रही हूँ। क्या इससे उनकी गायकी पर कोई असर पड़ा या क्या हमारी चाहत कभी कम हुई। दरअसल पाश्चात्य में शायद ऊपरी आवरण ही सबकुछ है। जो सुन्दर नहीं वो किसी काम का नहीं और समस्या ये है कि अब हम भी इसे अपनाते जा रहे है। आम जनता के बीच लोकप्रिय हो रही प्लास्टिक सर्जरी इसी का उदाहरण है। फ़ेयरनेस क्रीम की बिक्री और किशोरों में जिम और डाइडिंग का बढ़ाता क्रैज़ भी यही बताता है। आज हर चीज़ की पैकेजिंग होती है। हरेक को सुन्दर बनाया जाता है फिर वो कोई भी क्यों न हो। लेकिन, ये सुन्दर पैकेजिंग हमें अंदर से कैसे तिल-तिलकर ख़त्म कर देती है इसका उदाहरण है माइकल जैक्सन। ऐसा नहीं है कि हम भारतीय स्वस्थ और सुन्दर नहीं होते या रहना नहीं चाहते। लेकिन, हमारे तरीक़े अलग है ऐसे है जो हमें ख़त्म नहीं करते हैं। योग इसी का उदाहरण है। ये आपको नुक्सान नहीं पहुंचाता। ऐसी ही होम्योपैथी जोकि केवल आपके मर्ज़ को ख़त्म करती हैं न की आपको। मुझे लगता है माइकल जैक्सन मरने के बाद हर उस युवा का आदर्श बन चुकें हैं जो कि सुन्दर और सुडौल होना चाहता है। एक ऐसा आदर्श जो कहता है कि मेरी तरह मत होना, जो मैंने किया वो ग़लती से भी मत दोहराना...
Monday, June 29, 2009
नज़रें चुराकर टीवी देखते दर्शक...
Monday, June 22, 2009
सीटी बजाते लोग...
माँ के बिना...
मैं 25 साल की हूँ और पिछले 3 साल से दिल्ली में अकेली रह रही हूँ। आज भी जब ऑफ़िस से रूम जाती हूँ तो रूम का ताला खोलने में रुलाई आती है। आज भी जब थकी हुई हालत में खाना बनाती हूँ तो mummy की गर्म रोटियाँ याद आती हैं। घर पर रहते हुए आज तक मैंने कभी ख़ुद से खाना तक नहीं परोसा था। हर बार mummy ही खाना देती थी...
वही, मेरे ऑफ़िस में मेरी एक सहकर्मी अपनी चार साल सात महीने की बेटी के लिए एक बोर्डिंग स्कूल खोज रही हैं। मेरी सहकर्मी और उसका पति दोनों ही नौकरी पेशा हैं और मीडिया में होने के कारण उनकी शिफ़्ट भी लगातार बदलने वाली है। ऐसे में बेटी को स्कूल छोड़ना, फिर लाना, फिर किसी झूलाघर में छोड़ना संभव नहीं है। मेरी सहकर्मी इस बात से फ़िलहाल बेहद परेशान है और दिनभर वो इसी विषय में बातें करती रहती हैं। वो बताती है कि उसकी बेटी को पहले वो दो साल के लिए अपनी माँ के घर रख चुकी है, लेकिन अब वो वहाँ भी नहीं रख सकती क्योंकि माँ की ज़िम्मेदारियाँ (भाई के बच्चे) बढ़ गई हैं और फिर उड़ीसा वो साल में एक बार ही जा पाती हैं। ऐसे में बेटी से केवल एक बार मुलाक़ात होती थी। अब वो दिल्ली में ही एक अच्छा-सा बोर्डिंग खोज रही है जिससे हफ़्ते में एक बार मिल सके उससे। उसके ससुराल में भी ऐसा कोई नहीं जो उनके साथ रह सके और सास की तबीयत ऐसी है कि उन्हें सेवा की ज़रूरत है। मेरी सहकर्मी परेशान है।
मेरी सहकर्मी से ज़्यादा मैं परेशान हो रही हूँ। मुझे लगातार ये बात लग रही है कि मैं इतनी बड़ी और परिस्थितियों को समझने वाली लड़की जब पिछले तीन सालों में ख़ुद को इस अकेलेपन में ढाल नहीं पाई है, तो कैसे वो चार साल सात महीने की लड़की यूँ अकेले रह पाएगी। कॉलेज के दिनों तक मैं ख़ुद से चोटी नहीं कर पाती थी। दिल्ली आकर मैंने रोटी बनाना और कपड़े धोना सीखा। कैसे वो बच्ची माँ और पापा के बिना कुछ भी कर पाएगी। जिस उम्र में उसे नई बातें सीखना चाहिए कैसे वो हर काम खु़द से करना सीखेगी। कैसे रहेगी वो माँ के बिना। मेरी नज़रों के सामने उस बच्ची का चेहरा घूम रहा है। अगर मैं उसकी जगह होती तो शायद अपनी माँ से इतना ज़रूर पूछती कि- जब वक़्त नहीं था मेरे लिए तो जन्म ही क्यों दिया मुझे...
Friday, March 20, 2009
यूँ ही बीतते त्यौहार...
खैर, फोन पर ही यूँ ही बातचीत हो रही थी कि अचानक उसने पूछा - और, आज का क्या प्रोग्राम है?
मैंने कहा - कुछ खास नहीं छुट्टी है। कपड़े धोना हैं और रूम की साफ-सफाई।
वो बोला अरे - आज रंगपंचमी है। याद नहीं क्या?
मैं एक पल को चुप रह गई। फिर जवाब दिया - मैं तो पूरी तरह भूल गई थी। दिल्ली में तो कोई मनाता ही नहीं है।
बातचीत हुई और मैंने फोन रख दिया। इसके बाद शाम को दोस्तों के बीच बैठे हुए मैंने कहा - रंगपंचमी यूँ ही बीत गई। घर पर होती तो कोई न कोई तो रंग ही जाता।
मेरे दोस्त जिनमें से कोई भी मध्य प्रदेश का नहीं हैं एक साथ बोले कि - ये क्या बला है? रंगपंचमी...
मैंने फिर उन्हें बताया कि क्या होती है रंगपंचमी। अगले दिन नेट पर घूमते हुए जागरण पर इंदौर में धूमधाम से मनाई गई रंगपंचमी की ख़बर पढ़ी। एक पल को लगा कि कितनी मस्ती हुई होगी वहाँ और यहाँ पता तक नहीं चला। इसके दो-तीन दिन बाद सुबह-सुबह मम्मी का फोन आया। मेरा हालचाल जानने के बाद उन्होंने बताया कि वो अभी पूजा करके लौट रही हैं। मैंने पूछा - आज कौन-सी पूजा?
वो बोली - आज सीतला सप्तमी है। याद नहीं क्या तुम्हें।
मैं कुछ नहीं बोली। तब से ही मन में ये बार-बार आ रहा है कि शायद मेरे अंचल में बननेवाले ये त्यौहार अब मुझसे दूर होते जा रहे हैं। यहाँ की भाग-दौड़ में जब होली-दीवाली यूँ ही बीत जाती हैं, तो ये त्यौहार मैं कैसे मना पाऊंगी। फिर लगता है कि शायद याद भी न रख पाऊंगी...