Saturday, December 26, 2009

क्या हैं हमारी असल सोच...

एक लड़का अगर ये कहे कि मैं अपने माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी करूंगा तो पूरा समाज उसकी तारीफ करता हैं। अगर, वही ये कह दे कि अपनी मर्ज़ी से करूंगा तो हरेक के मन में एक खटास आ जाती हैं। मैं बहुत समय से इस बात से जूझ रही हूँ कि क्या सही और क्या ग़लत। कुछ दिन पहले ही एक सहकर्मी ने बातों-बातों में कहा कि शादी तो मैं अपनी मर्ज़ी से ही करूंगी। हर काम माँ-बाप की मर्ज़ी से किया इतना तो स्वार्थी हुआ ही जा सकता हैं। दूसरी तरफ आज एक ऐसी पोस्ट पढ़ी जिसमें युवा बच्चों की माँ इस बात से संतुष्ट नज़र आई कि उसके बेटे लड़कियों के साथ नहीं घूमते या फिर वो अरैंज मैरिज करेंगे। इस सबके बीच एक धारावाहिक का आना जिसमें ब्राह्मण के बेटे और कायस्थ की बेटी के प्रेम को ज़ोर शोर से दिखाया जा रहा हैं। मैं उलझन में हूँ कि असल में सही क्या है। खई बार मैंने सुना है कि भई वो तो बच गए। उनके तो सभी बच्चों ने माँ-बाप की मर्ज़ी से शादी की हैं। माँ-बाप बच्चों की शादी तक दम साधे बैठे रहते हैं कि क्या होगा। क्या अपनी मर्ज़ी से जीवन साथी चुनना इतना ग़लत हैं। क्या अपनी मर्ज़ी से जीवनसाथी चुनना स्वार्थ है। क्या माँ-बाप का अपनी मर्ज़ी थोपना स्वार्थ नहीं है। मेरी दोस्त की बड़ी बहन के लिए कई सालों से लड़का खोजा जा रहा है। वो एक एमएनसी में काम करती हैं और अकेले रहती हैं। लेकिन, न तो उनका कोई अफेयर है और ना ही वो किसी से शादी करना चाहती हैं। ऐसे में उनके माता-पिता लड़का खोज रहे हैं लेकिन, उनके समाज (जाति) में उनके स्तर का लड़का नहीं मिल रहा हैं। अब जाति के बाहर लड़का खोज रहे हैं। हो सकता हैं उनकी शादी जाति के बाहर हो माँ-बाप की मर्ज़ी से। ये बात मेरी मम्मी को भी सही लगी। लेकिन, अगर वो ख़ुद अपनी मर्ज़ी से अगर जाति के बाहर शादी कर लेती तो वो ग़लत हो जाता हैं। आखिर में क्या है सही और क्या है ग़लत। हम क्या करना चाहते हैं हमारी सोच क्या हैं असल में...

Monday, December 21, 2009

फ़ोटो के ज़रिए सिनेमा का नया रूप...

फोटो। दस या ग्यारह साल का एक बच्चा जोकि बाकी बच्चों की ही तरह स्कूल जाता है। घर भी सामान्य घरों-सा ही है उसका। फिर भी वो अलग था। वो कुछ अलग करना चाहता था। उसकी एक सोच थी जोकि ओरों से अलग थी। वो सोचता था कि कैसे बनती हैं फ़िल्में। कैसे दिन से रात और रात से दिन हो जाता हैं। फोटो ने जानना चाहा कि फ़िल्मों की शुरुआत कैसे हुई। उसे इन बातों का जवाब मिला उसकी सोच से और खोज से। उसकी सोच में उसका एक साथी था। वो उसे उकसाता था कि वो पढे़ और खोजे कि कब, कैसे और कहाँ हुई फ़िल्मों की शुरुआत। और, बड़ा होकर फोटो बन जाता है ख़ुद एक निर्देशक। फोटो नाम है एक फिल्म का जोकि मैंने इस शनिवार को देखी। लोकसभा टीवी हर शनिवार को राष्ट्रीय अवॉर्ड से सम्मानित एक फिल्म दिखाता हैं। ये फ़िल्म वो बिना किसी एड ब्रैक के दिखाता हैं। फिलहाल वीक एंड क्लासिक के नाम से दिखाई जानेवाली इस सीरीज़ में बच्चों की फ़िल्में दिखाई जा रही हैं। इसी का हिस्सा थी ये फ़िल्म- फ़ोटो। मुझे लगता है कि ये फ़िल्म ज़्यादा लोगों ने नहीं देखी होगी। लेकिन, इसे आप ज़रूर देखें। ख़ासकर बच्चों को ये फ़िल्म ज़रूर दिखाए। इस फ़िल्म के ज़रिए बच्चे समझ पाएंगे सिनेमा के मायने और अगर आपको लगता हैं कि सिनेमा बेकार हैं तो आपको भी देखना चाहिए ये फ़िल्म। आप भी जानेंगे कि सिनेमा भी कला हैं।

Thursday, December 17, 2009

लड़की हो तो ग़लती तुम्हारी...

आज सुबह-सुबह टीवी ऑन करते ही अरूणा के बारे में ख़बर देखी। अरूणा मुंबई के एक अस्पताल में पिछले 36 साल से पड़ी हुई हैं। वो एक नर्स थी और वो जब चौबीस साल की थी अस्पताल के ही एक वार्ड बॉय ने उसके साथ बलात्कार किया था। तब से ही वो उसी अस्पताल के एक बेड पर पड़ी हुई है। 60 की हो चुकी अरूणा के लिए कुछ स्वयंसेवी सस्थाएं मौत मांग रही हैं। उनका कहना है कि उसे जबरन में खाना खिलाना बंद कर देना चाहिए जिससे कि वो एक शांत मौत मर सकें। बलात्कार के उस आरोपी को सात साल की सज़ा हो चुकी हैं जिसे वो भुगत भी चुका हैं। लेकिन, असल सज़ा तो अरूणा भुगत रही है। जिस पर अत्याचार हुआ वही उस अत्याचार की सज़ा भी भोग रही हैं। अरूणा की कहानी दिल को हिला देनेवाली है। लेकिन, वो अकेली नहीं है। लड़कियों के साथ होनेवाले अपराधों पर अगर एक नज़र डाले तो यही मिलेगा कि आरोपी से ज़्यादा उसकी शिकार हुई महिला भोगती हैं। और, इस सबके बाद सुनने को मिलते हैं कुछ बयान जैसे कि लड़की का बलात्कार जिसने किया वो उसका दोस्त था तो ग़लती उसकी भी हैं या फिर एक लड़की रात के दो बजे दिल्ली की सड़क पर क्यों ड्राइव कर रही थी। अरूणा सुन्दर थी। काम काज में। हरेक से अच्छे से बात करती थी। अब ये उसकी ही ग़लती थी कि उसमें ये गुण थे कि वो आकर्षित करें। लेकिन, वो उतनी भी आकर्षक नहीं थी कि इस घटना के बाद भी उसके घरवाले उसका साथ निभाते या वो लड़का उसके साथ रहता जो उससे शादी करनेवाला था। ग़लती सिर्फ़ लड़कियों की होती हैं। उनके साथ कोई भी गुनाह हो ग़लती उनकी ही होती हैं। वो ग़लती है कि वो लड़की है...

Saturday, December 12, 2009

काली राजकुमारी...

बात कुछ पुरानी है। मेरे मामा की बेटी गर्भवती थी। एक दिन मेरे पापा ने सपना देखा कि वो अस्पताल में हैं और सभी लोग बच्चे के जन्म की खुशी मना रहे हैं। पापा ने ये बात जब मेरी मामी को बताई तो मामी का सवाल था- बच्चा दामादजी जैसा ही लग रहा था ना। ये सवाल इसलिए क्योंकि वो ज़्यादा सुन्दर और गोरे है। ऐसे ही मेरी नानी एक बार हमारे साथ मिस इंडिया प्रतियोगिता देख रही थी। वो उसे देख बहुत मायूस हुई उनका कहना था कि इसमें से एक भी लड़की गोरी नहीं हैं। सभी सांवली या दबे रंगवाली ही हैं। ये है हमारे इस समाज की सोच। पहले तो ये गोरा रंग लड़कियों के लिए सुन्दरता का पैमाना था लेकिन, आज तो लड़के भी टॉल, डार्क और हैन्डसम की जगह फ़ेयर और हैन्डसम होना चाहते हैं। मेरे घर के पास रहनेवाली 5 साल की बच्ची को भी ये बात मालूम है कि सांवली है और उसकी 2 साल की बहन गोरी। वो कई बार ये बोल चुकी हैं कि मैं तो गंदी लगती हूँ। ये है हमारा समाज। खैर, कई सालों तक मैं भी इसी काम्प्लैक्स में जी चुकी हूँ। मेरे घर में मेरा रंग ही दबा हुआ है बाक़ी सब गोरे है खा़सकर पापा। मैं कई बार उनसे इस बात पर लड़ाई भी कर चुकी हूँ कि जब मैं आप सी दिखाई देती हूँ तो आप सी गोरी क्यों नहीं हूँ। लेकिन, आज मैं इस बारे नहीं सोचती हूँ। गोरेपन का पैमाना तय करनेवाली सिनेमा भी अब इससे ऊपर उठ रही हैं और परिवर्तन की इसी बयार में शामिल हुआ है- वॉल्ट डिज़नी। अपनी नई फ़िल्म दि प्रिन्सेस एण्ड दि फ़्राग के ज़रिए पहली बार एक अश्वेत राजकुमारी दर्शकों के सामने होगी। ये फ़िल्म मुझे इसलिए दिलचस्प लग रही है क्योंकि इसे बच्चे देखेंगे। बच्चों का मन सबसे कोमल होता हैं। इस उम्र में जो बात बैठ गई वो हमेशा बनी रहती हैं। उसे दूर करना बहुत मुश्किल होता हैं। ऐसे में अगर आज बच्चा ये देखेगा कि सुन्दरता का पैमाना रंग नहीं तो शायद ये एक अच्छी पहल साबित हो...
इस फ़िल्म का प्रोमो आप यहाँ देख सकते हैं...

Friday, December 11, 2009

इकोनोमी मील या हैप्पी मील...

रॉकेट सिंह देश के युवाओं के उस अस्सी फ़ीसदी हिस्से को दर्शाता है जोकि सपनों में भी किसी कंपनी में किसी ठीक-ठाक पोस्ट पर होने के सपने देखता हैं। वो पैसे जोड़ता भी है तो स्कूटर या बाइक के लिए। ऐसा ही था सिड- जोकि एमटीवीनुमा युवा को दर्शाता है। जोकि सपने देखते ही नहीं है दरअसल वो रातभर मस्ती में जो रहते हैं। दोनों ही एक ही देश में रहते हैं। एक ही हवा में कभी-कभी सांस लेते हैं (कभी-कभी इसलिए क्योंकि एसी की हवा अस्सी फ़ीसदी के हिस्से नहीं आती है)। मैक-डी में बर्गर भी दोनों ही खाते हैं भले ही एक इकोनामी मील खाए और दूसरा हैप्पी मील। खैर, मुद्दा ये है कि फ़िल्म एक ऐसा ज़रिया है जिससे कि हम दोनों ही तरह के युवाओं को देख सकते हैं। ये समझ सकते हैं कि हम कहाँ हैं और हम कैसे हैं। कुछ दिन पहले ही एक ख़बरिया चैनल पर रॉकेट सिंह के प्रमोशन के लिए इकठ्ठा हुए फिल्म से जुड़े लोगों का इंटरव्यू देखा। लेखक का ये दावा था कि ये उन अस्सी फ़ीसदी युवाओं के लिए हैं। ये फ़िल्म उन्हें अपनी सी लगेगी। रणबीर कपूर जोकि ख़ुद ओरिजनल नाइकी पहननेवाले हैं फिलहाल डुप्लीकेट नाइकीवाले बने हुए है। मैं ख़ुद इकोनोमी मील खानेवाली जमात में शामिल हूँ। मैं इस बात से खुश हूँ कि इस तरह की फिल्में बन रही है। नहीं तो हमारी सिनेमा या तो लंदन घूमनेवाले और कार में चलनेवाले यूथ की होती है या फिर धारावी की गंदगी में सने हुए लफंगों की। रॉकेट सिंह को देखकर मैं ये उम्मीद करती हूँ कि चश्मे बद्दूर के ओमी, बोजो और नेहा जैसे हम युवाओं की बदलती कहानी भी फिल्मवालों को भाने लगेगी। उम्मीद है फिल्म को अधिक से अधिक युवा देखेंगे। फिल्म महज मल्टीप्लैक्स के आंकड़ों में हिट होकर नहीं रह जाएगी...

Monday, December 7, 2009

नियमों का पालन करनाः क्यों मज़ाक करते हो...

कभी-कभी सभ्य होना या फिर नियमों का पालन करना एक बोझ-सा लगता है। मैं आजकल मैट्रो से ऑफ़िस आती हूँ। अक्षरधाम मैट्रो स्टेशन तक पहुंचने के लिए एक लंबी चौड़ी व्यस्त सड़क को पार करना होता है। इसके लिए मैट्रो की तरफ से एक लोहे का फ़ुट ओवर ब्रिज बनाया गया है। इस फ़ुट ओवर ब्रिज पर कई बार मुझे लगता है मैं अकेली ही चढ़ती हूँ। ऊपर से जब नीचे देखती हूँ तो कई ऑफ़िस और कॉलेज जानेवाले सड़क को कूद-फांदकर पार करते दिखाई देते हैं। इसके बाद मैट्रो में कई ऐसी बातें होती देखती हूँ जिन्हें देख मन कचवा जाता है। आज सुबह ही लगभग 20 या 21 साल के एक लड़के से मैंने जबरन बात की। ये लड़का देखने में किसी दुकान या फिर ऑफ़िस में चपरासी या ऐसी ही कोई नौकरी करता होगा। लड़का ज़ोर-ज़ोर से मोबाइल पर गाने सुन रहा था। मेट्रो में संगीत बजाना मना है। क्योंकि, गाड़ी में लगातार वो सूचना देते रहते हैं जिसे सुनकर ही यात्रियों को आगे की सही जानकारी मिलती हैं। ऐसे में गाड़ी में जो़र से संगीत बजाना मना है। इसके बावजूद वो लड़का पूरे आराम से गाने सुन रहा था। लड़का बैठा हुआ था और मैं खड़ी। मैं बिल्कुल लड़के के आगे खड़ी हो गई और उसे घूरना शुरु कर दिया। लड़का कुछ परेशान होने लगा। मुझे लगा कि शायद वो अपनी ग़लती मेरे बिना कहे समझ जाएगा। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। वो कुछ असहज तो हुआ लेकिन, उसने अपने मोबाइल पर बज रहा वो गाना बंद नहीं किया। बाराखंबा आते-आते मुझे लगा कि राजीव चौक पर तो मैं उतर जाऊंगी और ये तो यूँ गाने बजाता रहेगा। फिर मैंने उस गर्दन ज़मीन में घुसाए हुए लड़के के कंधे पर हाथ रखा वो घबरा गया। मैंने उससे पूछा कि क्या आप मेट्रो में पहली बार चढ़े हैं। वो कुछ नहीं बोला। मैंने फिर वही सवाल किया। इस बार उसने कहा कि नहीं। तो मैंने कहा- तो क्या आपको ये मालूम नहीं कि यूँ मेट्रो में लाउडस्पीकर पर संगीत चलाना मना हैं। लोग इस गाड़ी में हो रही घोषणाओं को सुन रहे हैं उन्हें परेशानी होगी। आपके पास इतना महंगा और सुन्दर मोबाइल है तो इयरपीस भी होगा। वैसे भी वो तो मुफ़्त में मिलता है। आपको इतनी तो समझ होनी चाहिए। मैं बोलती रही और वो चुपचाप सुनता रहा। मेरा स्टॉप आ गया और मैं उतर गई। मैं परेशान हूँ ऐसे लोगों से जोकि एक समाज का हिस्सा होकर भी अकेले अपनी सोचते हैं। खैर, वो अकेला नहीं हैं उसकी पूरी एक जमात हैं। जोकि हम जैसे नियम माननेवालों से बड़ी है। इस जमात में फ़ुट ओवर की जगह सड़क कूदनेवाले, मेट्रो के फ़्लोर पर बैठनेवाले, संगीत सुननेवाले, उतरनेवालों को रास्ता ना देनेवाले और उन्हें धक्का देनेवाले, स्टेशन पर चुपचाप फ़ोटो खिंचनेवाले शामिल हैं। मेट्रो में चलनेवाले भले ही पढ़े-लिखे और कुछ एलीट लगे लेकिन, अंदर से वो भी बसों में आगे से चढ़नेवाले और स्टॉप के पहले या रेड पर चढ़ने-उतरनेवाले ही हैं...

Saturday, December 5, 2009

चौंचलेबाज़ी...

आज सुबह-सुबह मैं अपनी कैमरा टीम के साथ यमुना किनारे गई। यमुना दिल्ली के अंदर बहनेवाली थी इसलिए अगर कोई बताता नहीं तो लगता कि कोई नाला बह रहा है। आज वर्ल्ड वॉलेन्टियर डे है। माने कि आप किसी अच्छे काम के लिए श्रमदान करें। यही वजह थी कि कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने कुछ स्कूली और कॉलेज के बच्चों को इकठ्ठा किया था। यमुना की सफाई कर रहे ये लोग कुछ-कुछ अंग्रेज़ लग रहे थे। हालांकि वहाँ कुछ अंग्रेज़ भी मौजूद थे जिनसे मैने पूछा था कि इस सब क्या औचित्य। खैर, इन एडिडास और नाइकी पहने बच्चों को हावड़ा, ग्लवज़, रबर के जूते और टी-शर्ट सबकुछ दिया गया था। ये सभी यमुना के किनारों से गंदगी निकाल रहे थे और एक जगह इकठ्ठा कर रहे थे। कुछ भारतीय एनजीओ और ख़बरिया चैनलों के साथ कुछ अंग्रेज़ी एनजीओ की इस मुहिम में सरकारी स्कूल के और आश्रय सेन्टरों में रहनेवाले बच्चे भी आकर मिल गए थे। ऊपरी तौर पर ये पूरी मुहिम एक सार्थक प्रयास लग रही थी लेकिन, अंदर ही अंदर वहाँ मौजूद भारत में रहनेवाले और केवल अंग्रेज़ी बोलनेवाले और पहननेवालों को देखकर खोखलापन महसूस हो रहा था। आधे से ज़्यादा युवा वहाँ फ़ोटो खिंचावाने आए थे। कुछ वहाँ होनेवाले अंग्रेज़ी गानों के कॉन्सर्ट को सुनने के लिए रूके लग रहे थे। ये युवा पीढ़ी की वो जमात दिख रही थी जो घर में शायद ही कभी अपना कमरा साफ करती हो या फिर वो जोकि कार से कोल्ड ड्रिंक का केन यूँ ही सड़क पर फेंक देती है। मैं जानती हूँ कि इस तरह के प्रयासों को सिरे से नकारना ग़लत होगा लेकिन, इस अभियान में इमानदारी मुझे कुछ कम लगी। आते समय देखा कि यमुना के किनारे पर खाने-पीने का सामान और पन्नियों और बोतलों का कचरा पड़ा हुआ था। साथ ही मेरे ड्राइवर को अफसोस था कि बैन्डवाले सरदारजी(रॉक बैन्ड के लीड सिंगर) ने केवल अंग्रेज़ी में गाने गाएं पंजाबी या हिन्दी में एक तो गा देता।

जाते-जाते इतना कि यमुना की सफाई करनेवालों के सामन ही कइयों ने उसमें पन्नियाँ फेंकी। युवाओं ने उन्हें समझाने की कोशिश की। वो उनके सामने हाँ- हाँ करके निकल गए। जाते-जाते इतना बोल कि इनके एक दिन के चौंचले में हम रोज़ का काम छोड़ दे क्या...

Tuesday, December 1, 2009

लिजलिजी कौम

कल मम्मी, मैं और भुवन लक्ष्मी नगर तक गए। यूँ ही थोड़ा बहुत घूमने के लिए। कल मंगलवार तो सो पूरा लक्ष्मी नगर खचाखच भरा हुआ था। घूमने फिरने के बाद जब हम लोग वहाँ से बाहर की सड़के ले लिए बढ़े तो पीछे से किसी ने मेरी कमर पर हाथ मारा। मैं पलटकर देखती तब तक वो आदमी आगे बढ़ गया। मैं उस पर चिल्लाई। देखने में वो आदमी पूरी तरह से नशे में लग रहा था। ऐसे में मम्मी ने कहा उसे क्या कहोगी वो ख़ुद ही होश में नहीं हैं। भुवन हमसे कुछ दूरी पर था। जब उसे ये बात मालूम हुई उसने कहा कि मुझे उसे मारना चाहिए था। मैंने मम्मी की दलील उसके आगे रख दी कि वो नशे में धुत था। हम जब मुख्य सड़क पर पहुंचे तो देखा कि वही आदमी किसी और लड़की के पीछे चल रहा है। लड़की को उसने उसी तरह पीछे से मारा और लड़की अकेली थी सो घबराकर आगे बढ़ गई। इसके बाद नशे में धुत वो आदमी एक दम आराम से चलता हुआ किसी और लड़की की तलाश में निकल पड़ा। ये देखकर मुझे अपनी बेवकूफी पर अफसोस हुआ। खैर, मैं उस लड़की तरह अकेली नहीं थी। हम तीनों उस आदमी की ओर बढ़े और जैसे ही भुवन ने उसे पकड़कर दो थप्पड़ मारे उसका पूरा नशा पेशाब के रास्ते बाहर निकल गया। उस आदमी ने पलटकर किसी तरह की कोई हाथापाई नहीं की चुपचाप मार खाता रहा। मुझे ये देखकर आश्चर्य हुआ कि वो आदमी कितना लिजलिजा है। कोई औकात नहीं है उसकी, कोई दम नहीं है उसमें। ऐसे में मैं अगर अकेली होती तो ज़रूर उससे डर जाती और उसे कुछ ना कहती जैसा कि उस लड़की ने किया। मुझे अफसोस के ही रोज़ाना इस तरह के लिजलिजे और गंदी मानसिकतावाले लोगों से दो-चार होने के बावजूद मैं इन्हें कुछ नहीं कह पाती हूँ। मैं डर जाती हूँ। मुझे अपने आसपास मौजूद भीड़ पर यकीन नहीं है कि वो मेरी मदद को आगे आएगी। मैं ख़ुद शारीरिक रूप से सक्षम भी नहीं हूँ कि उससे अकेले ही निपट लूं। मैंने अपनी आनेवाली ज़िंदगी के लिए इतना तो तय कर ही लिया है कि मेरे जब भी बच्चे होगे मैं उन्हें शारीरिक रूप से इतना तो सक्षम बनाऊंगी ही कि वो ऐसी लिजलिजी कौम से ना डरे...

Saturday, November 28, 2009

मेरा एक तरफा होना ग़लत था...

मेरी पिछली पोस्ट पर आई प्रतिक्रियों से मुझे ये तो समझ आया ही कि सिर्फ़ महिलाओं के साथ शादी के मामलों में अन्याय नहीं होता है बल्कि पुरुषों के साथ भी होता है। लेकिन, साथ ही ये भी महसूस हुआ कि पुरुष किसी भी सूरत पर महिलाओं को समाज की ग़लत हरक़तों के लिए ज़िम्मेदार मानने में कोताही नहीं बरतना चाहते हैं। अपने लेख में मैंने केवल महिलाओं के दुख को लिखा लेकिन, मैं ये स्वीकार करती हूँ कि इस तरह के धोखे किसी के भी साथ हो सकते हैं। लेकिन, एक बात ये भी है कि पुरुष के पास अपनी जीवन साथी की कमी को कही न कही जाकर पूरा करने के साधन स्त्रियों से ज़्यादा हैं। खैर, मैं कल से कुछ परेशानी में हूँ। जोकि आज ब्लॉग पर एक सज्जन की पोस्ट को पढ़कर और बढ़ गई। कुछ दिनों पहले ख़बर मिली कि मेरे पहचान क्षेत्र की एक लड़की ने अपने प्रेमी को धोखा दिया। लड़की उस लड़के से पिछले 5 सालों से प्यार कर रही थी और उनकी जल्द ही शादी होनेवाली थी। बावजूद इस सबके लड़की ने किसी और लड़के से संबंध रखे। मेरी मित्र मंडली में उस लड़की की बेवफ़ाई के किस्से तैर रहे हैं। मैं भी उसे ग़लत मानती हूँ। लेकिन, एक बात से मुझे एतराज है। वो लड़का जिससे लड़की के बाद में संबंध बने वो ये जानता था कि इसका प्रेमी है और वो पूरे तरीक़े से मन बहला रहा था। इसके बावजूद कोई लड़के को ग़लत नहीं मान रहा हैं। सभी का कहना है कि लड़की उत्तेजित करे तो लड़का बेचारा क्या करें। यही बात आज सुबह पढ़ी पोस्ट में थी जहाँ सज्जन लड़कियों पर पूरे समाज की ज़िम्मेदारी डाल रहे थे। वो भी सिर्फ़ बच्चे पैदा करने के रूप में। समस्या ये है कि हम जब भी किसी विशेष लिंग से जुड़े मुद्दों पर बात करते हैं। तो हम ख़ुद का फ़ेवर करने लगते हैं और दूसरे को ग़लत मान लेते है। इतनी समझ रखनेवाले हम लोग शायद बिना किसी कि ओर झुके कोई बात तय नहीं कर सकते हैं।

Wednesday, November 25, 2009

झूठ की बुनियाद पर खड़े रिश्ते...

कल कुरबान फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी। समीक्षा पढ़ने के बाद जो बात मन में आई जो वो थी महिलाओं की स्थिति। हर किसी ने फ़िल्म की समीक्षा में आंतकवाद की चर्चा की और यही विषय भी था। लेकिन, मेरा मन इस बात पर टिक गया कि- कैसे एक लड़की को शादी के बाद ये बात मालूम चलती है कि उसका पति आंतकवादी है। असलियत भी यही है कि लड़कियों को ससुराल के बारे में और अपने पति के बारे में कई बातें शादी के बाद ही पता चलती है। कुछ बातें छोटी होती हैं तो कुछ बड़ी। लेकिन, शादीशुदा लड़कियाँ जिन्हें माँ-बाप सर से उतरा हुआ बोझ समझते हैं और ससुरालवाले अपनी जायदाद कुछ कहने की हैसियत नहीं रखती हैं। मेरी मम्मी को शादी के बाद मालूम हुआ कि मेरे बाबा नॉनवेज खाते थे। बाबा अंग्रेज़ों की सेना में थे और चार गोलियाँ खाकर बर्मा (शायद) से पैदल आए थे। ऐसे में उन्हें जो मिल जाता था वो खा लेते थे। बहुत मुश्किल से वो ये खाना छोड़ पाए थे। हो सकता है किसी को ये बात बहुत बड़ी ना लगे। लेकिन, एक विशुद्ध शाकाहारी ब्राह्मण परिवार में पली बढ़ी लड़की के लिए ये चौंकानेवाला था। मेरी एक भाभी को शादी के बाद ये मालूम हुआ कि भैया के आगे दे दो दांत नकली हैं। ये पता चलने पर जब भैया ने पूछा कि क्या तुम्हें बुरा लगा? तो भाभी ने जवाब में ना कहा। वो और क्या कहती? अगर कहती कि लगा तो क्या हो जाता। ऐसा ही कोई सच अगर लड़की के बारे में शादी के बाद पता चलता तो क्या वो बात भी इतने सामान्य रूप से दब जाती। ऐसे कई किस्से हमारे आसपास हमें मिल जाएगे। ऐसा कई बार सुनने को मिल जाता हैं कि झूठ बोलकर शादी कर दी गई। कुछ साल पहले की बात है मेरी एक मौसी के लिए रिश्ता आया था। बातचीत आगे बढ़ी तो मालूम चला कि लड़का विधुर है। मौसी तब तक उस लड़के से एक दो बार मिल चुकी थी और शायद सपने संजोना भी शुरु कर चुकी थी। लेकिन, सब कुछ ख़त्म हो गया था। उन्होंने किसी से कुछ नहीं बोला। बोलती भी क्या। लड़के की शारीरिक बनावट या मानसिक कमियों से लेकर उसकी नौकरी-चाकरी और पिछली ज़िंदगी की बातें परिवार हमेशा ही छुपाता है। ये सोचकर कि शादी के बाद अगर लड़की को मालूम भी चला तो वो और उसका परिवार क्या कर पाएगा। वैसे ही लड़कियों की परवरिश ही कुछ ऐसी होती है कि वो सामाजिक रूप से पंगु हो जाती है। अपनी परेशानी लड़की माँ-बाप को अगर बताती भी है तो वो उसे एडजस्ट करने की सलाह दे देते हैं और अपने पति से किसी भी तरह की उम्मीद उसके लिए बेवकूफी से ज़्यादा कुछ नहीं होगी। अगर वो इतना समझदार होता तो शादी से पहले ही अपने घरवालों के झूठ उसे बता देता। शादी एक इंसान की ज़िंदगी का सबसे अहम बंधन है खा़सकर हमारे समाज में जहाँ उसे किसी भी तरह निभाना ही होता हैं। लेकिन, फिर भी इस बंधन में झूठ और फ़रेब की इतनी गांठे होती हैं कि लड़की चाहे भी तो उन्हें खोलकर ख़ुद को आज़ाद नहीं कर सकती हैं।

कुरबान में करीना का किरदार शायद आसपास फैले हुए आंतकवाद को देखकर सकते में होगा लेकिन, अगर उस जगह मैं होती तो शायद आंतकवाद से ज़्यादा उस इंसान के झूठ से सकते में होती जिसके भरोसे मुझे ज़िंदगी बितानी थी...

Saturday, November 21, 2009

बिना शादी किए प्रेमी के साथ रह रही प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ भाग गई...

हरेक इंसान अपनी ज़िंदगी में एक ना एक बार ये ज़रूर बोलता है- ज़माना बदल गया है। हमारे वक़्त में तो सब कुछ कितना अच्छा था और ऐसी ही कई बातें। हरेक इंसान ये जानता हैं कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अपनी सुविधा के अनुसार हर कोई बदल जाता हैं। पहले बस से चलनेवाला कुछ दिनों बाद ऑटो की सवारी करता हैं और फिर ख़ुद की कार की। ऐसे ही परिवर्तन हमारी सोच में होते हैं और रिश्तों में भी। पुराने वक़्त में शादी से पहले लड़का-लड़की एक दूसरे को देखते भी नहीं थे और आज के समय में माँ-बाप खु़द उन्हे कहते हैं घूमने फिरने के लिए। प्रेम विवाह भी अब बीती बात हो गई। अब तो ज़माना है लीव इन रिलेशनशीप का। मैंने कइयों को ये बोलते सुना है कि लव मैरिज़ भी टिकती नहीं हैं। प्यार में अंधे होकर शादियाँ करनेवाले जब परिवार के बोझ से दबते हैं तो टूट जाते हैं। बात शायद ठीक हो क्योंकि जब बात प्यार की होती हैं तो बस दो इंसान को आपसी तालमेल की ज़रूरत पड़ती हैं लेकिन, शादी के बाद दो परिवारों का तालमेल शुरु होता हैं। लेकिन, लीव इन में तो वो भी ज़िम्मेदारी नहीं। इसमें तो आप बिना किसी उम्मीद के बिना किसी ज़िम्मेदारी के सामनेवाले के साथ रहते हैं। जब लगे कि अब निभानी मुश्किल है आगे बढ़ जाओ। कई बार ये महसूस होता हैं कि ऐसे रिश्तों से जन्मे बच्चों का भविष्य क्या होगा। बच्चा बड़ा होगा और कहेगा कि मेरे मम्मी और पापा मेरे जन्म से लेकर आज तक कुछ 10 साथी बदल चुके हैं। मेरे पापा की और मेरी मम्मी की ओर अलग-अलग हम कुछ 10 भाई-बहन हैं। सबुकछ आधुनिक हो जाएगा। बच्चों और माँ-बाप के बीच का अंतर ख़त्म हो जाएगा। जो आज एक परिवार का हिस्सा नहीं बनना नहीं चाहते हैं। हर तरह की ज़िम्मेदारी से दूर रहना चाहते हैं। बिना किसी परेशानी के संबंध चाहते हैं वो क्या बच्चे चाहेंगे। मूंगफली की तरह आई-पिल खानेवाली, हर हफ्ते वीक एंड पर सबसे दूर भागनेवाली, ऑफ़िस के बाद मोबाइल स्विच ऑफ़ करनेवाली इस जनरेशन से क्या बच्चों को पालने और बड़ा करने की फुल टाइम जॉब हो पाएगी। मैं भी इसी पीढ़ी की हूँ और जब भी मेरी शादी के बारे में बातचीत होती हैं तो मुझे मेरा बुरा स्वभाव, लोगों से दूर भागने का स्वभाव और जल्दी से खीज जानेवाला स्वभाव डराने लगता हैं। इन सब बदलावों के बीच भी कुछ ऐसा है जो आज भी वही हैं और वो है इंसान की नीयत। पिछले कई दिनों से ये ख़बरें आ रही है कि लव मैरिज में भी अब दहेज मांगा जाने लगा है। शायद लड़केवालों को ये समझ में आ गया कि लड़का तो अब वही करेगा जो वो चाहेगा ऐसे में इसी रिश्ते का दोहन करना सीखना होगा। साथ ही साथ लड़कियों के माँ-बाप का ये भ्रम भी टूट गया कि अगर लव मैरिज हुई तो दहेज नहीं लगेगा। कुछ 10 दिन पहले की ख़बर और चौंकानेवाली थी। एक लड़के ने लड़की की हत्या कर दी मामला बना दहेज का। लड़का-लड़की लीव इन में रहते थे। याने कि अब हम ज़िम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हैं लेकिन, फ़ायदों को छोड़ना भी नहीं चाहते हैं। ये कहानी यही ख़त्म नहीं होती हैं। लीव इन में रहनेवाले जोड़े अब बेवफाई भी करते हुए दिखाई देते हैं। मेरे आसपास ही मुझे कुछ ऐसे जोड़े दिखे जो कि लीव इन में रहते हैं और साथ ही में छुपकर रिश्ता भी रखते हैं। मुझे ये समझ नहीं आया कि जब आप एक नो प्रॉफ़िट नो लॉस के रिश्ते में हैं तो दूसरे को छुपकर क्यों निभा रहे हैं। बिंदास छोड़कर जाइए और रहिए दूसरे के साथ। कुछ ही दिनों में ये सुनने को मिलेगा कि बिना शादी किए प्रेमी के साथ रह रही प्रेमिका अपने प्रेमी के साथ भाग गई...

Monday, November 16, 2009

मैडम आप प्लीज़ लेडीज़ सीट पर बैठ जाइए

मैडम आप प्लीज़ लेडीज़ सीट पर बैठ जाइए। अभी भीड़ बढ़ेगी और महिलाएं आकर हमें उठा देगी। मैं बिना कुछ कहे अनारक्षित सीट से उठकर महिला सीट पर बैठ गई। वो दोनों सज्जन पुरुष मेरे पीछे कि अनारक्षित सीट पर बैठ गए। इसके बाद उनके बीच बातचीत की शुरुआत हुई। मुद्दा बनी वो महिलाएं जोकि बसों में अनारक्षित सीटों पर बैठती हैं। सज्जन पुरुषों को समस्या थी कि आखिर क्यों वो सामान्य सीटों पर बैठती हैं उन्हें सिर्फ़ महिला सीट पर बैठना चाहिए। कैसे वो महिला सीट पर बैठे पुरुषों को यूँ ही उठा देती हैं। सीधे कहे तो सीट पाने के लिए महिलाओं की कुटिलता पर सज्जन विचार कर रहे थे। बसों में होनेवाली ऐसी बातों को सामान्यतः मैं सिर्फ़ सुनती हूँ। जवाब नहीं देती हूँ। पहली वजह कि सामनेवाला मुझे संवेदनहीन लगता है और दूसरी कि अकेली होती हूँ सो डर भी लगता है। खैर, इस बार मैं बोल उठी। पहले तो उन्हें ये समझाया कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के होने का अर्थ ये नहीं है कि महिलाएं सामान्य सीटों पर नहीं बैठ सकती हैं। इसका अर्थ ये है कि पुरुष महिला सीट पर तब ही बैठ सकते हैं जब तक कि कोई महिला उन्हें उठने के लिए ना कहें। दूसरा कि ये व्यवस्था इसलिए है कि अधिकांश पुरुषों इस विवेक की कमी होती हैं कि वो किसी महिला को देख सीट छोड़ दें। (हालांकि महिलाओं में भी इस विवेक की कमी देखी गई हैं कि वो किसी वृद्ध या विकलांग को देख सीट छोड़ दें)। महिलाओं की सीट की मांग हरेक पुरुष को तब तक नाज़ायज़ लगती है जब तक कि वो महिला उसकी रिश्तेदार ना हो। नहीं तो सीट न देने के लिए सोने या फिर अगले स्टॉप उतरने के कई बहाने जानते हैं। मेरे उन्हें इतना कहने से ही वो दोनों सज्जन बैचेन हो चुके थे। कुछ जैसा कि हमेशा होता है बात को बस सुन रहे थे। किसी ने न तो मेरा साथ दिया और न ही विरोध किया। कई बार पुरुषों को लगता है कि महिलाओं की सीट खाली करने की मांग ग़लत है जब वो हर काम में बराबरी करती हैं तो इसमें क्यों नहीं। बात सही भी है। लेकिन, ऐसी कई बातें हैं जो कि दोनों में अलग है। महिलाएँ हर महीने माहवारी को झेलती बिना किसी परेशानी के। दर्द और उस परेशानी को झेलते हुए भी वो महीनेभर एक सा काम करती हैं। शायद ही कोई पुरुष किसी महिला को देखकर ये बता सकता हैं कि उसकी माहवारी चल रही हैं। या फिर ऐसे कई शारीरिक अंतर महिलाओं को पुरुषों से एक हाथ नीचे करने की कोशिश करते हैं। फिर भी महिला कभी ये कहकर कि मेरी माहवारी चल रही हैं या फिर मैं गर्भवती हूँ कहकर सीट खाली नहीं करवाती हैं। कई बार तो अगर बस में खड़े होने की ठीक से जगह हो तो उठाती भी नहीं। इसके बाद मैं एकदम चुप हो गई। उन सज्जनों ने भी कुछ नहीं किया। मैंने एफ़एम की आवाज़ बढ़ाई और बस से बाहर देखने लगी।
आखिर में सिर्फ़ एक बात लड़का जब दिनभर ऑफ़िस से काम करके आता हैं तो माँ हर चीज़ उसके हाथ में रखती हैं। वही जब लड़की (बेटी या बहू) काम करके आती हैं तो कानों में सिर्फ़ एक बात सुनाई पड़ती है- चलो अब हाथ मुंह धोकर किचन में आ जाओ...

Friday, November 13, 2009

चोर-चोर कज़िन हो गए

बात बहुत बड़ी नहीं है। फिर भी मज़ेदार है और बदलाव की सूचक है। कल रोज़ाना की तरह 10 बजते ही सब टीवी ट्यून किया। लापतागंज जो देखना था। इतने से ही दिनों ये मेरा पसंदीदा हो गया है। कसी स्क्रीप्ट, बेहतरीन संवाद और बढ़िया एक्टिंग के चलते ये मुझे पसंद हैं। खैर, कल के एपिसोड का छोटा-सा संवाद मेरे दिमाग़ में अभी तक घूम रहा है। सीन कुछ यूँ था कि गांव का रहनेवाला दूसरे से पूछता है कि- भैया आपका हमारी मौसी से रिश्ता क्या है। जवाब में गांववाले का भांजा बोलता है- कि मामाजी आपकी मौसी की मामी की चाची की.... तब ही उसका मामा चुप करवाकर बोलता है कि- हम उनके कज़िन हैं... इसके बात आगे बढ़ जाती हैं। लेकिन, मेरा दिमाग़ वही अटका हुआ है। ये संवाद जताता है कि कैसे गांव में भी शहरी या कहे विदेशी कल्चर को अपनाया जा रहा है। कैसे ममेरा भाई भी कज़िन है और चाचेरा भाई भी कज़िन हैं। कई बार मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि किसी को भाई या बहन बोलने में जो महसूस होता है वो कज़िन बोलने में नहीं। खैर, अब मैं इस चिंता में हूँ कि चोर-चोर मौसेरे भाई अगर कल को चोर-चोर कज़िन हो गए तो किसी को कैसे मालूम चलेगा कि चोर का बाप मामा है या चाचा...

Sunday, November 8, 2009

दया का थप्पड़...


पिछले बाहर सालों से हर शुक्रवार की रात दस बजे मुझे क्या करना है ये तय है। दस बजते ही मैं टीवी के सामने बैठ जाती हूँ। चैनल होता है सोनी और सीरियल होता है सीआईडी। साल 1997 में शुरु हुआ ये सीरियल आज तक चल रहा है। आज भी उसे देखना उतना ही रोमांचकारी है जितना कि 12 साल पहले था। अंतर इतना है कि पहले ये आधे घंटे का आया करता था और आज ये एक घंटे का है। आज मैं इसे अकेले बैठकर देखती हूँ और 12 साल पहले पापा से लड़ झगड़कर देखती थी। उस वक़्त दस बजे ही डीडी मैट्रो पर आज तक आया करता था। पापा देखते थे आज तक और मैं और भैया बैचेन रहते थे सीआईडी के लिए। इस सीरियल में मुझे जो सबसे ज़्यादा पसंद है वो है दया। कुछ हफ़्ते पहले दिखाया कि दया मर गया मैं इतनी उदास हो गई कि पूछिए मत। जो मिले उसे कहूँ कि दया मर गया ये कैसे हो गया। कुछ ने मुझे पागल कहा और कुछ मुझ पर हंसने लगे। खैर, वो सही सलामत हैं। दया का थप्पड़ ऐसा है कि एक बार में अपराधी तोते की तरह बोलने लगता है और तो और दया ने अगर जंगल में भी अगर थप्पड़ मारा तो अगले ही शॉट में अपराधी सीआईडी के ऑफ़िस में। सीआईडी अपना-सा लगता है। ऐसा लगता है कि बस ये सब कुछ असल है और ये सभी पात्र मेरे दोस्त है। पिछले हफ़्ते ही शनिवार को मुझे सुबह 6 बजे ऑफ़िस पहुंचना था फिर भी मैं 12 तक जागी सिर्फ़ दया का थप्पड़ देखने के लिए...

Friday, November 6, 2009

बिना शादी किए दिल्ली में रहना...

मौसी दिल्ली में क्यों रहती है? क्या उनकी शादी हो गई हैं?
ये मासूम से सवाल मेरी भांजी ने मेरी मम्मी से पिछले दिनों पूछे। मेरी मौसेरी बहन कुछ दिन पहले भोपाल गई थी। जब मम्मी ने उनकी बेटी को ये बताया कि दीप्ति मौसी दिल्ली में रहती है, तो उसने ये सवाल कई बार मम्मी से पूछा कि बिना शादी के कैसे वो दिल्ली चली गई। मेरी भांजी की उम्र 5 साल है। जब मम्मी ने ये बात मुझे बताई तो मैं खूब हंसी। लेकिन, इस सवाल के पीछे एक बहुत अहम बात छुपी हुई है। आखिर 5 साल की बच्ची के दिमाग़ में ये कैसे आया कि लड़कियां केवल शादी के बाद ही घर से बाहर जाती हैं। आज से वक़्त में तो ये बात और अखरती हैं। पहले के समय की बात और थी कि लड़कियाँ शादी करके ही बाहर निकलती थी लेकिन, आज तो नौकरी से लेकर पढ़ाई तक के लिए लड़कियाँ घरों से बाहर आ रही हैं। लेकिन, शायद आगर गिनती की जाए तो आज भी घरों में ही रह जानेवाली लड़कियों की संख्या ज़्यादा होगी। परिवार के माहौल का बच्चों पर कितना असर होता हैं ये इस बात से भी समझा जा सकता हैं कि जब मैं छोटी थी अपनी मौसियों की शादियाँ होते देखती थी लेकिन, मेरी एकमात्र बुआ की शादी नहीं होती थी। मैं पापा से कहती थी कि- मौसी की शादी होती है, बुआ की नहीं। मेरे पापा बस हंसकर रह जाते थे। मैं ये समझ ही नहीं पाती थी कि किसी की मौसी किसी और की बुआ भी तो होती है। खैर, मेरी बुआ ने शादी क्यों नहीं कि ये बात मुझे बहुत साल बाद समझ आई। लेकिन, मुझे लगता है कि इन बातों को हंसकर नहीं टालना चाहिए। ज़रूरत है उस बच्ची को ये समझाने कि आखिर क्यों दीप्ति मौसी बिना शादी किए दिल्ली में रह रही हैं...

Tuesday, October 27, 2009

दोहरे मापदंड...


आज सुबह के अखबार में ख़बर पढ़ी कि कैसे एक उत्तर-पूर्वी लड़की की एक लड़के ने हत्या कर दी। हर अख़बार ने इस बात पर ज़ोर दिया कि वो लड़का एक सभ्रांत परिवार का था और ख़ुद भी बहुत पढ़ा लिखा था। आईआईटी से पीएचडी कर रहे इस 34 वर्षीय लड़के की इसी पढ़ाई की दुहाई दी जा रही थी कि कैसे पढ़ाई तक एक मनुष्य को सभ्य नहीं बना सकती है। ख़बर विचलित करनेवाली है। ये सच है कि हमारी सोच यही है कि एक अच्छे परिवार के पढ़े लिखे युवा ग़लत हरकतें कम करते हैं। जबकि शायद ऐसा नहीं है क्योंकि सभ्रांत परिवार और पढ़ाई सभ्य होना कुछ हद तक ही सिखाती है। ये बातें इंसान व्यवहारिकता से आती है। घर में माता-पिता क्या सिखा रहे हैं, आपको किस दह तक आज़ादी मिल रही हैं और आपके दोस्त कैसे हैं। ये सब पढ़ाई लिखाई से भी ज़्यादा मायने रखता है। खैर, सुबह से इन्हीं सब मुद्दों पर बहस के साथ-साथ लड़की का उत्तर-पूर्व का होना भी बहस का मुद्दा था। अख़बार में भी ये लिखा था कि इन क्षेत्र की रहनेवाली लड़कियों का दोस्ताना स्वभाव और पहनावा यहां के लोगों के लिए अजूबा होता है। पुलिस तक इन्हें अंग्रेज़ी मैडम कहते हैं। इन ढेर सारी बातों के बीच कई बातें हुई लेकिन, जो मन को चुभी वो बात थी मेरे एक सहयोगी की। उसके मुताबिक़ लड़कियों को पहनावे और स्वभाव को मर्यादा में रखना चाहिए इनसे ही लड़के उत्तेजित होते हैं और ऐसी हरक़तें करते हैं। सिर्फ़ इस एक लाइन ने लड़की को भी अपराधी बना दिया। दोहरे मापदंडों का हमारे समाज में कोई अंत नहीं...

Wednesday, September 16, 2009

पढ़ना ज़रूरी है...

इंटरनेट की दुनिया में घूमते हुए आज एक ऐसी रिपोर्ट देखी जिसे देखकर लगाकि मेरी दुखती रग पर किसी ने हाथ रख दिया। अमेरिकन पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेस के चैनल NOW की वेबसाइट पर बेनिफ़िट्स डिनाईड के नाम से एक रिपोर्ट मौजूद है। एक साल पहले की आधे घंटे की ये रिपोर्ट अमेरिका के सर्विस सेक्टर में फ़्री लान्सर के रूप में काम कर रहे लोगों के अधिकार के बारे में बात करती हैं। इस रिपोर्ट का सार है कि कैसे फ़्री लान्सर के रूप में या फिर कॉन्ट्रेक्ट के रूप में लोगों से काम करवाया जा रहा है। ये काम उतना ही होता है जितना कि संस्था का कोई कर्मचारी करता होगा लेकिन, क्योंकि ये फ़्री लान्सर के रूप में काम करते हैं इसलिए उन्हें सुविधाओं से वचिंत रखा जाता है। हमारे देश का हाल भी कुछ ऐसा ही है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि हाल अमेरिकन पत्रकारों का ज़्यादा है। जैसा कि हमारे देश में भी है। हमारे देश में यही सूरते हाल हैं। मीडिया में काम करनेवालों को न तो किसी तरह का हेल्थ कवर मिलता है और न ही कोई और सुविधा। जहाँ कर्मचारियों को समय पर तनख्वाह न मिलती हो वहाँ इन सब की बात ही बेमानी है। जितनी भी लिखा पढ़ी होती है वो पूरी तरह से संस्था के हक़ की होती है। आप भी ज़रूर देखे इस रिपोर्ट को जाने कि क्या है हमारे हक़ और कहाँ खड़े है हम...

Friday, September 11, 2009

ये जीना भी क्या जीना है लल्लू...


दिल्ली कभी-कभी सुन्दर शहर लगता है। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि अधिकतर यहाँ की अव्यवस्थाएं मुझमें खीज पैदा कर देती हैं। मुझे लगता है कि क्या यार क्या शहर है ज़रा-सी बारिश से थम जाता है। किराए पर चढ़ कमरे ऐसे बने हैं कि मुर्गी के दबड़े ज़्यादा अच्छे होंगे। खैर, जब भी मैं दिल्ली के इस हाल से और खा़सकर अपने ही बेहाल से दुखी हो जाती हूँ चश्मे बद्दूर देख लेती हूँ। फ़िल्म एक क्लासिक है और कहानी से लेकर अभिनय तक सबकुछ बेहतरीन है। लेकिन, उससे भी बेहतरीन है दिल्ली... चौड़ी-चौड़ी खाली सड़कें, किराएदारों के लिए ही सही लेकिन अच्छे फ़्लैट, मिलनसार लोग और हवा में घुला हुआ एक इत्मीनान। किसी का भी ऐसे शहर में रहने के लिए जी मचला जाए। चश्मे बद्दूर साल 1981 में आई थी। संई परांजपे के निर्देशन में बनीं ये एक बेहतरीन कॉमेडी थी। दिल्ली में बेचलर्स की ज़िंदगी बिता रहे तीन दोस्तों के आगे पीछे बुनी हुई ये फ़िल्म आपके मूड को कभी भी फ़्रेश कर सकती है। फ़ारुख शेख, रवि वासवानी, दीप्ति नवल, दीना पाठक, सईद जा़फ़री सभी का अभिनय बेहतरीन। कई बार इस फ़िल्म को देखते हुए मन में आया कि काश ज़िंदगी एक फ़िल्म की ही तरह होती हमेशा हैप्पी एंडिंग। असलियत इतनी सुन्दर नहीं है। यहाँ तो रोज़ाना मकान मालिक से लेकर बस के कन्डक्टर तक, ऑफ़िस से लेकर दुकानदार तक से बकझक होती ही रहती है। यहाँ बने दोस्तों को मैं अंगुलियों पर गिन सकती हूँ और अपने आप बन गए दुश्मनों की तो लिस्ट बन चुकी हैं। ज़िंदगी इतनी भी बुरी नहीं... ये कह कर मैं दिल को बहला लेती हूँ।









फिर भी फ़िल्म और असलियत के इस अंतर को समझने के बाद भी जब भी चश्मे बद्दूर देखती हूँ एक टीस-सी उठती है कि काश मैं होती ओमी, बोजो और सिद्धार्थ में से एक...

Wednesday, September 9, 2009

मेरा दिल्ली में रहना...

तू तो दिल्ली में रहती हैं, तुझे क्या परेशानी है। यार काश मैं भी दिल्ली में रहती...
ऐसा कहते ही उनसे एक आह भरी और आज उस पर जो बीती वो मुझे सुना दी। मैं बात कर रही हूँ, मेरी उस दोस्त की जिसने अपनी ज़िंदगी में कुछ भी अपने मन से नहीं किया है। हरेक काम वो अपने माता-पिता की मर्ज़ी से करती आई हैं। उसे इस बात का बहुत कोफ़्त है कि उसके माता-पिता को उस पर बिल्कुल यक़ीन नहीं है। ये सच भी है कि स्कूल या कॉलेज के दिनों में वो कभी हमारे साथ भी कही घूमने नहीं जाती थी। उसके माता-पिता उसे कभी नहीं जाने देते हैं। इसके पीछे शायद ये भावना हो कि उन्हें बेटी पर यक़ीन न हो लेकिन, मुझे ऐसा लगता है कि शायद उन्हें इस दुनिया पर यक़ीन नहीं हैं। खैर, माता-पिता और बच्चों के बीच के मनमुटाव नअ नहीं लेकिन, जो नया है वो ये कि - तू तो दिल्ली में रहती हैं, तुझे क्या परेशानी है। यार काश मैं भी दिल्ली में रहती... मैं तब से इस बात का मतलब खोज रही हूँ...

Saturday, September 5, 2009

मोरा संईया मो से बोले ना...

पिछले कुछ दिनों से मेरा पुरानी दिल्ली में आना जाना कुछ ज़्यादा ही हो रहा है। अपने कार्यक्रम के सिलसिले में मैं दिल्ली की इन तंगों से होकर कई दिलचस्प लोगों से मिल चुकी हूँ। निचली बस्तियों में रहनेवाले बच्चों के लिए काम करनेवाली संस्थाओं में काम करनेवालों से यहाँ रहनेवाले बच्चे सभी से मिलकर हर बार एक नया अनुभव होता हैं। हालांकि कइयों को इन एनजीओ की नीयत पर शक़ होता हैं लोगों को लगता हैं कि ये लोग पैसों के चक्कर में ये सब करते हैं और सरकार से मिलनेवाला पूरा पैसा खा जाते हैं। असलियत कुछ भी हो, ये लोग कुछ भी करते हो फिर भी कुछ तो फ़ायदा इन बच्चों को मिलता ही होगा। कल मैं ऐसे ही कुछ नौजवानों से मिल जोकि बच्चों के लिए काम करते हैं। हालांकि ये उनका मुख्य काम नहीं हैं। इनमें से कुछ छात्र थे तो कुछ संगीतकार। ये सभी निचली बस्तियों में काम करनेवाले एनजीओ से जुड़े हुए हैं। ये सभी बच्चों को कुछ सिखाते है। पढना-लिखाना या फिर कोई काम काज़ से जुडी़ बात नहीं। बल्कि ये युवा बच्चों की इन निचली बस्तियों को म्यूज़िक बस्ती में तब्दील करने का काम करते हैं। ये युवा बच्चों को संगीत सिखाते हैं। हर तरह का संगीत शास्त्रीय से लेकर जेज़ तक... साथ ही साथ संगीत की धुन को पकड़ना और उस पर थिरकता भी... बच्चे इन्हें देखते से ही इन पर झूम जाते हैं। खुश होकर उनके गले लग जाते हैं। मंत्र मुग्ध से जो ये कहते हैं वो वैसा ही करते हैं। इतना ही नहीं ये इन बच्चों को वो सभी वाद्ययंत्र दिखाते हैं जो उन्होंने शायद ही कभी देखे हो। लेकिन, आखिर संगीत की इन्हें क्या ज़रूरत... इन्हें तो ज़रूरत है शिक्षा की, ऐसे काम को सीखने की जो आगे चलकर दो पैसा कमाने में मदद कर सकें। लेकिन, म्यूज़िक बस्ती से जुड़े सुहैल और फ़ेथ की सोच अलग हैं। इनका मानना हैं कि संगीत वो ज़रिया है जो इन्हें ख़ुद को समझने में मदद करता हैं। दोस्ती करना सिखाता हैं। अपनी इस ज़िंदगी से ऊपर उठकर कुछ करने की हिम्मत देता हैं। बात कुछ अलग है और कुछ अटपटी भी हैं। लेकिन, जब इन छोटे-छोटे बच्चों को - मोरो संईया मोसे बोले ना... गाते और फिर खिलखिलाकर हंसते देखा तो ये अटपटा सा आइडिया भी बढ़िया ही लगा...

Thursday, September 3, 2009

ख़त्म होनेवाला है मुश्किल दौर...

ख़त्म होनेवाला है मुश्किल दौर। ये वो लाइन है जो अनिकेत ने कई बार लिखी थी और अब वो उसे बोलना सीख रहा था। अनिकेत की उम्र 19 साल है लेकिन, दिमागी रूप से वो 10 साल का भी नहीं है। मानसिक रूप से विकलांग अनिकेत दिल्ली के विशेष स्कूल मासूम दुनिया में पढ़ता है। ये स्कूल उसके मम्मी और पापा मिलकर चलाते है। दिल्ली के द्वारका इलाके में निचली बस्तियों में रहनेवाले मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए स्कूल चलानेवाली ये दंपति ख़ुद को ख़ास मानती हैं। श्री और श्रीमती न्याल का मानना है कि वो ख़ास है इसलिए ही भगवान नो उन्हें इतना ख़ास बच्चा दिया है। अपने एक शूट के सिलसिले में जब मैं वहां पहुंची तो उस वक़्त सभी बच्चे पढ़ाई कर रहे थे। यहां पढ़ाई उम्र के मुताबिक़ नहीं दिमागी समझ के मुताबिक़ तय होती है। इस मासूम दुनिया में अलग-अलग तरह के मानसिक विकलांगता से जुड़े बच्चे पढ़ते हैं। ऐसा नहीं है कि यहां ये बच्चे माता-पिता के साथ आते हो। अधिकतर माँ-बाप तो इन बच्चों को बोझ समझते है। ऐसे में इन दोनों ने मिलकर इन बस्तियों में जाकर ऐसे बच्चों इकठ्ठा किया था। यहाँ पढ़ रहे ये मासूम बच्चे अपने घरों से दुत्कारे हुए हैं। कुछ के माँ-बाप रिक्शा चलाते हैं तो कुछ के मजदूरी करते हैं। कई बच्चे ऐसे हैं जो उम्र में तो 30 साल के है लेकिन, ख़ुद से खाना तक नहीं जानते हैं। ऐसे में न्याल दपंत्ति इन्हें इतना सक्षम बना देते हैं कि ये बच्चे अपने बुनियादी कामों के लिए किसी पर निर्भर ना हो। श्री न्याल बताते है कि जब उन्हें ये मालूम चला था कि उनका छोटा बेटा मानसिक रूप से विकलांग है वो खूब रोए थे। लेकिन, उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने बच्चे पर पूरा ध्यान दिया उसे विशेष स्कूल में पढ़ाया और उसकी परवरिश पूरे इत्मिनान और ध्यान से की। अपने बड़े बेटे को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक़ कर देने के बाद न्याल ने तय किया कि वो सिर्फ़ अनिकेत के लिए ही कुछ नहीं करेंगे बल्कि उसके जैसे और भई बच्चों को पढ़ाएगे। इसके लिए उन्होंने कई निचली बस्तियों का दौरा किया, कई गालियाँ खाई लेकिन, हिम्मत नहीं हारी। जब भी वो ऐसे बच्चों के माता-पिता से बात करते वो इनका मज़ाक बनाते कहते कि कलेक्टर बना दोगे क्या इस पागल को। लेकिन, इनका जवाब एक ही होता कि- वो उन्हें इस समाज में जीना सिखा सकते हैं। अनिकेत अददान सामी का फ़ेन हैं और उसके गाने गाता हैं। ऐसे ही अखिल बहुत बेहतरीन माऊथ ऑर्गन बजाता है। अनिल ख़ूबसूरत पेंटिंग बनाता हैं। हरेक में एक खूबी है जो हमें नज़र नहीं आती हैं। न्याल दंपत्ति का मानना है कि ये बच्चे हमें सिखाते है कि हरेक काम आराम से करना चाहिए हमेशा भागते नहीं रहना चाहिए...

Monday, August 31, 2009

घिन की हद...


पहले पान को चबाओ और फिर उसकी पीक को थूको और फिर उसे पी जाओ...

अपने साथी प्रतियोगी को गंदी से गंदी गाली दो और फिर उसके पैर पड़ो...

अगर अपने आत्मसम्मान को दांव पर लगाते हुए आप ये सब करते जाएगें तो आप जीत सकते है कुछ लाख़ या करोड़ रुपए। ये है आज के जमाने का छोटा रास्ता पैसे कमाने का। जैसे कि शाहिद कपूर का कमीने में एक संवाद है- कि शार्ट कट या छोटा शार्ट कट। तो मेहनत आज के वक़्त में आऊट डेटेड हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि पुराने वक़्त में इंसान को शार्टकट पसंद नहीं थे। लेकिन, उन छोटे रास्तों के भी अपने नियम थे जोकि आज नहीं रह गए हैं। बदतमीज़ी की हदों को जो जितनी बदतमीज़ी से पार कर लेगा वो पैसा कमा जाएगा। निजी टीवी चैनलों पर इन शार्ट कट्स की भरमार हैं। बिंदास पर आनेवाला शो दादागीरी इतना वाहियात है कि जिसकी कोई हद नहीं। प्रतियोगियों से इतनी बदतमीज़ी की जाती हैं और प्रतियोगी आपस में इतनी गंदगी भरी बातें करते हैं कि कई बार लगता हैं कि इन्हें वयस्क प्रमाण पत्र देना चाहिए। रोडीज़ हो या फिर मुझे इस जंगल से बचाओ हर शो सबसे बड़ा बदतमीज़ खोजता है। जो सबसे बड़ा होता हैं वो जीत जाता हैं। पिछले कुछ सालों में टीवी ने अपनी शक्ल-सूरत बदल ली है या फिर ये कहे कि समाज ने बदल ली। बुनियाद और हम लोग को याद करनेवाले टीवी के साफ-सुथरे स्वरूप को बहुत मिस करते हैं। सच भी है कि समाज का रूप बदला तो है लेकिन, क्योंकि सास भी कभी बहू थी जितना नहीं। आज के धारावाहिकों में कोई भी गरीब कोई नहीं, आम परेशानियों से जूझता हुआ कोई नहीं। परेशानियाँ अगर है भी तो लार्ज़र देन लाइफ़ है। ऐसे में इनसे मन उचटना स्वाभाविक है और इस उचटे मन के लिए ही भारतीय टीवी के पर्दे पर आए ये शो। लेकिन, मन जोकि चंचल है और एक जगह ज़्यादा देर तक ठहरता नहीं है साफ-सुथरे रीयलीटी शो पर भी नहीं ठहरा। ऐसे में शुरु हुए ये घिन पैदा करनेवाले शो जिन्हें देखकर आप आसानी से गालियाँ सीख सकते हैं। ये शो गालियों के इनसाक्लोपीडिया होते हैं। इन्हें देखकर आप अपने दुश्मनों को ज़लील करना और दोस्तों को दुश्मन बनाना सीख सकते हैं।

Friday, August 21, 2009

बच्चों की बड़े होने में मदद करें...

क्या आपके बच्चे या छोटे-भाई बहन ने आपसे कभी किसी तरह के घरेलू शोषण की शिकायत की है? हो सकता है कि कभी की हो लेकिन, क्या आपने आपने बच्चे की इस बात को गंभीरता से लिया? उस इंसान से क्या कभी कोई बात की? असल में हमारा समाज ख़ुद को एकदम साफ सुथरा बनाए रखना चाहता है जोकि अच्छी बात है। लेकिन, इसके लिए समाज उपने अंदर की गंदगी को साफ नहीं करता है, बल्कि उसे चादर के नीचे ढ़क देते है। एक औसत भारतीय घर में ऐसी घटनाएं होती ही रहती है। अगर इन घटनाओं का सही आंकलन हो तो संभव है आंकड़ों और इन घटनाओं के दुष्प्रभावों को देखकर आप चौंक जाए। ये मुद्दा मैं इसलिए उठा रही हूँ क्योंकि कल ही मैंने एक कॉमिक पढ़ी। इसमें कहानी तो बच्चों की थी लेकिन, इसे पढ़ना हरेक इंसान के लिए ज़रूरी है। इसकी कहानी एक स्कूल के कुछ बच्चों की है ख़ासकर लड़कियों की जिनका उनके ही स्कूल का एक शिक्षक यौनशोषण करता है। डर के मारे बच्चियों किसी को कुछ नहीं बता पाती हैं लेकिन, इसका असर उनके व्यवहार और पढ़ाई पर साफ नज़र आता है। क्योंकि ये एक काल्पनिक कहानी है इसलिए किसी तरह से बच्चियों के माता-पिता को बात मालूम चल जाती हैं और उनके माता-पिता उन पर विश्वास करके उस इंसान के ख़िलाफ कार्रवाई भी करते है। जैसा कि हमेशा होता है हैप्पी एण्डिंग। लेकिन, इस अंत से मैं खुश नहीं हूँ। क्योंकि ये असलियत नहीं है। असलितय तो ये है कि सौ में से निन्यान्वे बार बच्चे माता-पिता तक ये बात लेकर ही नहीं जाते हैं। वजह सिर्फ़ इतनी कि हमारे घरों में आज भी अभिभावकों और बच्चों के बीच एक दूरी है। कई ऐसी बातें है जिनके बारे में हम बात नहीं कर सकते, कई बातें हैं जो माता-पिता हमसे नहीं कहते। सबकुछ रहता है पर्दे के पीछे। दूसरी वजह जोकि बच्चों को इन बातों की शिकायत से रोकती है वो है माता-पिता का अविश्वास और किसी तरह की कोई कार्रवाई न करना। कई बार माता-पिता अपने ही बच्चों की बातों को गंभीरता से नहीं लेते हैं और अगर ऐसी कोई बात हो तो उन्हें चुप करके बात को दबा देते है। अगर आप एक अभिभावक है तो ध्यान दे अपने बच्चे के दोस्तों पर, अपने रिश्तेदारों पर, उनके व्यवहार में अचानक आए किसी भी बदलाव पर। बच्चों के मामले में किसी पर भी यक़ीन न करें बले ही आपका रिश्तेदार या दोस्त हो। बच्चे कहाँ जाते हैं, कब आते हैं, किससे मिलते हैं, इन सब पर नज़र रखें। बच्चों से उनके शारीरिक बदलावों और यौन क्रियाओं के बारे में उनके मुताबिक़ बात करें।

Wednesday, August 19, 2009

मैट्रो की ट्रैन के बाहर फैली अव्यवस्थाएं...

दिल्ली मैट्रो को लेकर पिछले कुछ समय से कई तरह की बातें चल रही हैं। ख़ासकर सुरक्षा को लेकर हरेक चिंतित दिख रहा हैं। जो चिंता में है, जो इस पर विरोध दर्ज़ करवा रहा हैं वो भी सफ़र करना मैट्रो में ही पसंद करता है। मैं कुछ ज़्यादा चिंतित नहीं हूँ। मेरे पास चिंतित न होने की कोई ख़ास वजह भी नहीं है। अपने ऑफ़िस आने के लिए मैं मैट्रो को प्राथमिकता देती हूँ। लेकिन, ऑफ़िस से जाते वक़्त मैं बस से ही सफ़र करती हूँ। सुबह मुझे मैट्रो स्टेशन तक पहुंचने में बड़ी मुश्किल होती है। मैट्रो फ़ीडर इतनी भरी हुई होती है कि लटकने को जगह न मिले। ऐसी सूरत में मैं सामान्य आरटीवी से यमुना बैंक के बाहर उतरती हूँ और वहाँ से रोज़ाना लगभग एक किलोमीटर पैदल चलकर स्टेशन पहुंचती हूँ। पैदल इसलिए कि, वहाँ खड़े रिक्शा इतनी सी दूरी के दस से पन्द्रह रुपए लेते हैं, जोकि मैं दे नहीं सकती। आते वक़्त मैट्रो स्टेशन तक पहुंचना मेरे लिए आसान है क्योंकि वो मेरे ऑफ़िस के सामने हैं। फिर भी मैं बस से आती हूँ। वजह फिर मैट्रो फ़ीडर। यमुना बैंक पर फ़ीडर के लिए इतनी लंबी लाइन होती हैं कि एक-एक घंटे तक का इंतज़ार करना पड़ जाता हैं। स्टेशन के बाहर खड़े रिक्शा और ऑटोवाले इस तरह से मुंह खोलते हैं कि जिसका कोई पार नहीं। मैट्रो बहुत ही आरामदायक है। मैट्रो ने सफर को आसान बना दिया है। लेकिन, सफर इतना भी आसान नहीं हुआ है कि रूम से निकलते हुए ये विश्वास हो कि मैं आराम से ऑफ़िस पहुंच जाऊंगी। मैट्रो फ़ीडर को लेकर मेरी ये शिकायत हो सकता है कि नाजायज़ हो। लेकिन, मैट्रो स्टेशन पर फैली अव्यवस्था एक गंभीर मुद्दा है। ख़बरनवीसों और मैट्रो के पुरोधाओं को मैट्रो के खंभे में पड़नेवाली दरारों के साथ-साथ इस तरह की अव्यवस्थाओं पर ध्यान देना चाहिए।

Friday, August 7, 2009

सब्र रखे इतना वक़्त कहाँ...

आज हर कोई भाग रहा हैं। किसी को ऑफ़िस पहुंचने की जल्दी हैं, तो किसी को घर। हर कोई अपने आप में व्यस्त हैं। किसी के पास एक मिनिट शांति से बैठने की फ़ुर्सत नहीं हैं। हमारे जीवन की ये ज़िंदगी हमारे स्वभाव में भी नज़र आती है। किसी भी बात पर चिढ़ जाना, जल्द पहुंचने की हड़बड़ी में दूसरे को पीछे धकेलना आम बात हो गई हैं। हमारे इसी सब्र और सभ्यता का एक नमूना मैंने कल देखा। आईटीओ से लक्ष्मी नगर की तरफ़ जाते हुए ललिता पार्क बस स्टॉप के पास सड़क से नीचे पूरी एक कॉलोनी बसी हुई हैं। ये शायद लक्ष्मी नगर का ही हिस्सा है। इस कॉलोनी के एक मकान की दीवार पर लिखा हुआ है कि - यहाँ कचरा डालना मना है। जो भी यहाँ कचरा डालेगा उसका सर फोड़ दिया जाएगा।
पहली बार जब मैंने ये पढ़ा तो मैं चौंक गई। मैंने सोचा ये कौन सी सभ्यता है। कचरा डाल देने पर सीधे सर फोड़ देने की धमकी। लेकिन, शायद हमारे अंदर आज सब्र और सभ्य इन दोनों शब्दों के लिए कोई जगह नहीं रह गई हैं। यही वजह है कि आए दिन मोहल्लों में पानी की लाइन और एक दूसरे के आंगन में कचरा फेंक देने पर होनेवाली लड़ाइयाँ अख़बारों के साइड कॉलम में पढ़ने को मिल जाती हैं। हालांकि दुकानों के आगे- पता बताने के पाँच रुपए और गाड़ी खड़ी करने पर उसकी हवा निकाल दी जाएगी, जैसी चेतावनियाँ कई बार पढ़ी हैं। लेकिन, सर फोड़ देनेवाली धमकी पहली बार पढ़ने को मिली। मै कल से इस चेतावनी को लिखनेवाले की मनोदशा की कल्पना कर रही हूँ। क्या वो कचरा फेंकनेवालों से इतना परेशान हो चुका होगा कि अब किसी ने ये हरक़त की तो वो सीधे मार पीट पर उतर आएगा। क्या कभी उसने ऐसे लोगों को समझाने की कोशिश की होगी। यही सोचते-सोचते मुझे मुन्नाभाई पार्ट टू का वो दृश्य याद आ गया जहाँ गांधीजी मुन्ना के ज़रिए उस लड़के को शांत रहने की सलाह देते हैं जिसके घर के आगे एक दंबग आदमी रोज़ाना थूकता था। उस धमकी को पढ़ने के बाद एक बात तो तय है कि आज लोगों के पास किसी और को सुधारने का वक़्त और सब्र नहीं...

Thursday, August 6, 2009

अनोखी दोस्ती...

कौवा-कौवा... कौवा-कौवा...
दादा और पोते की ये पुकार सुनते ही सैकड़ों कौवे उनके आसपास इक्ठ्ठे हो जाते हैं। चुपचाप सब आकर बैठ जाते हैं। दादा और पोते मिलकर कौवों को खाना खिलाने लगते हैं। पनीर के छोटे-छोटे टुकड़े हवा में उड़ते हैं और कौवे उसे मुंह में डाल लेते हैं। ये वर्णन किसी पंचतंत्र की कहानी का नहीं बल्कि दिल्ली के विकासपुरी इलाके़ में रहनेवाले खन्नाजी के घर का हैं। खन्नाजी दिल्ली के ही रहनेवाले हैं और पिछले 40 सालों से वो कौवों के दोस्त हैं। उनकी एक आवाज़ पर सैकड़ों कौवे उनके आसपास आ जाते हैं। नवीन खन्ना का नाम तीन बार लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज़ हो चुका हैं उसके इन्हीं दोस्तों की वजह से। खन्नाजी बताते हैं कि जब वो कालकाजी इलाक़े में रहते थे वो रोज़ाना पक्षियों को खाना डालते थे। एक दिन उन्होंने खाना नहीं डाला तो छत पर एक कौवे ने उन्हें अपनी मधुर आवाज़ से पुकारा और फिर जो उनकी दोस्ती हुई वो 20 साल तक बरक़रार रही। खन्नाजी कौवों पर कई शोध कर चुके हैं। कौवों के ज़रिए ही उन्हें दिल्ली में आए भूकंप का पूर्वानुमान लग पाया था। मैंने जब ये पूछा कि कौवों को तो हम अपशगुन मानते हैं तो वो हंस पड़े। उन्होंने कहा कि कौवे उनके ही नहीं उनके परिवार के हर सदस्य के दोस्त हैं और कौवे अपने आप में बेहद शांत जीव हैं। कौवा कभी लड़ता नहीं हैं । लड़ाई हुई भी तो जो उम्र में बड़ा होता है वो चुप हो जाता हैं। खन्नाजी का ये कोवा प्रेम उनके बच्चों से होकर उनके पोते तक पहुंच गया हैं। खन्नाजी का पोता शौर्य सुबह उठते से ही कौवों के पास जाने की ज़िद्द करता हैं। खन्नाजी रोज़ाना इनसे मिलने और उन्हें खिलाने के लिए पार्क में जाते हैं और दादा पोते को देखकर उनसे मिलने दूर-दूर से कौवे आते हैं...

Tuesday, July 28, 2009

बेमेल के बीच होती प्रतियोगिता...

टीवी पर क्या दिखाया जा रहा हैं, क्यों दिखाया जा रहा हैं, जो दिखाया जा रहा है उसका स्तर क्या हैं। इश सब पर लगातार बहस चल रही है। सच का सामना और इस जंगल से मुझे बचाओ इस बहस के केन्द्र बिन्दु है। हालांकि राखी का स्वयंवर भी ख़ासी चर्चा में है लेकिन, अब जल्द ही उसका अंत होनेवाला है और अब दर्शकों को इतंज़ार है शादी के बाद होनेवाली नौंटकी का। इस सब के बीच पुराने फ़ार्मेट पर आगे बढ़ रहे कुछ रीयलीटी शो भी जारी है जैसे कि लिटिल चैम्प। वही कलर्स पर चल रहा इंडियाज़ गॉट टैलेन्ट पुराना कॉन्सेप्ट होने के बाद भी ताज़गी भरा है। वजह है उसके जज और उनकी पसंद की प्रतिभा। पिछले शुक्रवार को इस शो के सेमिफ़ाइनल शुरु हुए। नौ अलग-अलग प्रतिभाओ को एक साथ मंच पर उतारा गया और अब फ़ैसला जनता के हाथ में हैं कि वो किसे फ़ाइनल में पहुंचाती हैं। हालांकि मैं अलग-अलग तरह की प्रतिभाओ के एक साथ प्रतिस्पर्धा के विरुद्ध हूँ। कई साल पहले एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में मेरी कविता को दूसरा पुरस्कार मिला था मैं जब दिल्ली उसे लेने आई तो मैंने निर्णायक मंडल से सिर्फ़ एक सवाल पूछा था कि आपने ये कैसे तय किया कि मेरी कविता प्रथम पुरस्कार वाली कहानी से कमतर थी। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया बस एक बच्ची की बात पर सब मुस्कुरा दिए। आज इंडियाज़ गॉट टैलेन्ट को देखकर मेरे मन में वही सवाल एक बार फिर खड़ा हो गया हैं। आखिर जनता ये कैसे तय करेगी कि एक 15 साल की बच्ची के गाने से बेहतर एक आदिवासी बच्चे का ब्रेक डांस है या फिर राजस्थानी गायकों से बेहतर पैर में स्टील की छड़ डाली सालसा डांसर हैं। यहाँ हरेक प्रतियोगी बेहतरीन है लेकिन, सभी की विधाएं अलग-अलग हैं। कई बार जो दिखने में अच्छा हो वो उतना अच्छा होता नहीं है और कई बार कुछ देखने तो बहुत आकर्षक नहीं होता लेकिन, असल में उस प्रतिभा को विकसित करने में बहुत मेहनत लगती है। कई लोग होंगे जो राजस्थानी लोक संगीत को बचाना चाहेंगे, तो कई लोग ऐसे होंगे जो कि एक 12 साल के आदिवासी बच्चे जिसने नाचने की कही कोई ट्रैनिंग नहीं ला फिर भी हूबहू माइकल जैक्सन की तरह नाचता है, को बचाना चाहते होंगे। हालांकि पहले सेमीफ़ाइनल के नतीज़े अभी आएं नहीं हैं लेकिन, मैं उत्सुक हूँ ये जानने के लिए कैसे जनता ये तय करती हैं कि नाचना बेहतर है या गाना....

Friday, July 24, 2009

जो पैदल चलते हैं उन्हें इज़्ज़त नसीब नहीं...

इस महानगर में रहते हुए इस बात का अंदाज़ा हो गया है कि सड़क पर चलनेवालों की कोई क़ीमत नहीं है। यहाँ सड़क पर इज़्ज़त तब तक ही है जब तक कि आप किसी गाड़ी पर सवार है और अगर वो गाड़ी चार पहिए की हुई थी तो शान से आपकी गर्दन ऊंची हो जाएगी इतनी कि आसामान में नज़रें गड़ जाएगी। ये मैं इसलिए नहीं कह रही हूँ क्योंकि मैं पैदल या बस की सवारी करती हूँ। सड़क पर चलते हुए ये मैं रोज़ाना महसूस करती हूँ। मेरे मोहल्ले में यूँ तो एक ही बस स्टॉप है वो भी ऐसा कि अगर चार लोग खड़े हो जाए तो पाँचवे के लिए जगह नहीं। बस स्टॉप लगभग सड़क पर बना हुआ है ऐसे में सवारियाँ वही खड़ी रहती है। बसवाले कही भी बस रोकते है। ऐसे में सड़क पर चल रही हरेक गाड़ी बस के इंतज़ार में खड़ी सवारी पर चिल्लाती रहती है। इतना ही नहीं दूसरी सड़कों पर तो बस स्टॉप भी नहीं है और सड़क किनारे पैदल यात्रियों के लिए कोई रास्ता भी नहीं है। ऐसे में सड़क पार करने में ही पाँच से दस मिनिट तक लग जाते है और सड़क पर गाड़ियाँ दौड़ा रहे लोगों की गालियाँ और खाओ। कई बार तो मेरी सड़क पर ही लड़ाई हो जाती है मैं चिल्ला उठती हूँ कि क्या तुम लोगों के लिए जन्मों तक यही खड़ी रहूँ। सच में इस शहर में पैदल चलनेवालों के लिए कोई जगह नहीं है। सड़क पर भले ही कितना भी जाम लग जाए लेकिन, चलना किसी गाड़ी में ही चाहिए। कुछ भी ये सड़कें केवल गाड़ीवालों के लिए ही तो चौड़ी हो रही हैं। आप लाख़ ये सोचते रहे कि ट्रैफ़िक जाम करने के लिए प्रदूषण रोकने के लिए पब्लिक ट्रान्सपोर्ट का उपयोग करना चाहिए लेकिन, असलियत यही है कि चार क़दम की दूरी भी यहां गाड़ी से ही सम्मानजनक होती है। यहाँ पाँव के सहारे चलनेवालों के लिए न तो इज़्ज़त है और न ही जगह है...

Monday, July 20, 2009

ये जीना भी कोई जीना है लल्लू...

मेरा सप्ताहांत टीवी देखकर ही बीतता है। फ़िलहाल टीवी के ट्रेन्ड के मुताबिक़ ये दिन पूरी तरह से टेलेन्ट शो के लिए समर्पित रहते हैं। ऐसे में मैं पूरे वक़्त यही देखती रहती हूँ। हालांकि ऐसे शो की समीक्षक आए दिन बखिया उखाड़ते रहते हैं, फिर भी मुझे इन्हें देखने में आनंद आता है। कइयों में सचमुच कई प्रतिभाशाली लोग आते हैं लेकिन, चैनल की नौंटकी के चलते ही मन कचवा जाता है। मम्मी के सुपर स्टार में भी यही हाल था। इसमें बच्चों के गाने पर कम और मम्मी के झगड़ों पर ज़्यादा ध्यान जाता था। ऐसा ही हाल है लिटिल चैम्प का है। इस शो में आए बच्चे इतना बढ़िया गाते है कि क्या कहने। उम्र 7 साल और गायकी ऐसी कि रोंगटे खड़े हो जाए। लेकिन, जजों की किचकिच और बच्चों के क्रिएट किए हुए मस्ती के पल देखकर मज़ा ख़त्म होने लगता है। लेकिन, फिर भी इन सारे सीरियलों को देखकर कभी-कभी मुझे ख़ुद पर शर्म आने लगती है। ऐसा लगता है कि इतनी बड़ी हो गई, पढ़ाई-लिखाई भी कर ली। लेकिन, फिर क्या। कुछ तो ऐसा किया ही नहीं मैंने कि कोई मुझे जाने। मुझमें तो ऐसी कोई प्रतिभा नहीं जिसका प्रदर्शन मैं भी कर सकूं। टीवी पर पसरे इस टेलेन्ट को देखकर लगता है कि मेरा ये जीना भी कोई जीना है... नौ साल की बच्ची स्टेज पर ऐसा भरतनाट्यम दिखाती है कि जज शेखर कपूर आंखें फाड़-फाड़कर बस देखते ही रह जाते हैं। या फिर 12 साल के अमरीक को जज कहते है कि ऐसा गाना गाओ कि जान पर बनी हो और बस यही बचने का रास्ता है। अमरीक ऐसा गाता है कि शेखर रो देते हैं और सोनाली अपनी ना को हाँ में बदल देती हैं। ये सब देखकर याद आया कि मैंने भी कभी शास्त्रीय नृत्य और संगीत सीखना शुरु किया था। चार साल सीखकर सब छोड़ दिया पढ़ाई के नाम पर। लेकिन, क्या हुआ पढ़ाई में भी तो मैं कोई तीर नहीं मार पाई। टेलेन्ट के इन शो देखकर अंदर ही अंदर खु़द पर गुस्सा आने लगता हैं। लगता है कि कितनी औसत हूँ मैं। मुझमें तो कोई हुनर ही नहीं है। तारे ज़मीन पर फ़िल्म की याद आ जाती है। लेकिन, उसके अंत में भी दिखाते है कि बच्चा चित्रकला प्रतियोगिता जीत जाता है। लेकिन, मुझे तो वो भी नहीं आती है...

Saturday, July 18, 2009

सिक्कों के शौकिन...


आज दिल्ली के राजेन्द्र नगर इलाक़े में रह रहे विशुद्ध दिल्लीवाले परिवार के घर जाना हुआ। मेरे कार्यक्रम के सिलसिले में वहां गई थी। यहाँ रहनेवाले सुमित एक कॉइन कलेक्टर है। उनके पास कई विरले सिक्के और नोट है। सुमित अपने बड़े भाई और दो दोस्तों के साथ मिलकर दिल्ली कॉइन सोसायटी नाम की एक संस्था चला रहे हैं। चार लोगों के साथ शुरु हुई ये सोसायटी अब तीन सौ लोगों का परिवार बन गई है। जब मैं उनके घर अपनी कैमरा यूनिट के साथ पहुंची तो प्यारी-सी तीन साल की द्ध्रति (सुमित की बेटी) ने हमारा स्वागत किया। सुमित एक ग्राफ़िक्स डिजाइनर हैं और एक एमएनसी के लिए काम करते हैं। मैंने पूछा कि महानगर की भाग-दौड़वाली ज़िंदगी में जहाँ इंसान को खु़द को ज़िंदा रखना दुभर लगता है ऐसे में इस शौक को कैसे ज़िंदा रखा है आपने। बेहद ही सरल और शांत स्वभाव के सुमित ने कहा कि बस ज़िंदा रखा है हमने ये हमारी ज़िंदगी का हिस्सा है इसके बिना तो जीवन की ही कल्पना नहीं की जा सकती हैं। सुमित को ये शौक़ उनके बड़े भाई से मिला है। ये दोनों ही भाई बचपन से सिक्के और नोट को इकठ्ठा करने में लगे हुए हैं। इनके साथ जुड़े इनके दो और साथी भी इस शौक को पूरे मन से निभा रहे है। पेशे से वकील और बैंक मैनेजर ये दोनों सज्जन सुमित और उनके भाई ऋषि के साथ मिलकर हर साल सिक्कों की प्रदर्शनी भी लगाते हैं। इनके पास दुनिया के अलग-अलग देशों के, अलग और अनोखे नोट मौजूद है। पाकिस्तान में हज पर जानेवाले यात्रियों के लिए अलग से छपाए गए नोट भी इनके पास है जो कि केवल सऊदी अरेबिया में ही मान्य है। नेपाल नरेश की ओर से जारी नोट, बर्मा से लेकर सूडान तक के नोट और एक मुस्लिम देश में छपे वो नोट भी इनके पास है जिन पर गणेशजी की तस्वीर मौजूद है।

हमारे देश में आज़ादी से पहले चलनेवाले नोट, आज़ादी के बाद छपे नोट, कुछ मिसप्रिंट हो चुके नोट, यूनिक नंबरवाले नोट सब कुछ इनके पास है। ये चारों अपनी व्यस्त ज़िंदगी से अपने इस शौक के लिए वक़्त चुरा ही लेते है। इन सभी का मानना है कि आप अगर चाहे तो अपने शौक को पूरा कर सकते है। अगर आप में से कोई भी सिक्कों को संग्रहित करने का शौक रखते हैं, तो आप इनसे सलाह ने सकते हैं साथ ही इनसे जुड़ भी सकते हैं। बस यहाँ क्लिक कीजिए...

Wednesday, July 15, 2009

तिल देखा ताड़ देखा...

मध्यप्रदेश मेरा गृह राज्य है। यही वजह है कि प्रदेश के हर शहर, हर रीत, हर इंसान से मैं एक जुड़ाव महसूस करती हूँ। लेकिन, कुछ महीनों पहले ही मध्यप्रदेश पर्यटन निगम की ओर से जारी ये नया विज्ञापन देखा। ये एक बेहतरीन विज्ञापन है। आँखों के ज़रिए पूरे प्रदेश के बारे में बताता ये विज्ञापन एक अलग और कलात्मक सोच का बेहतरीन नमूना है। वैसे तो ये विज्ञापन अब कुछ पुराना हो चुका है और आप में से कइयों ने इसे कभी न कभी टीवी पर देख भी लिया होगा। लेकिन, फिर भी मैं इस विज्ञापन की लिंक यहाँ दे रही हूँ









एक बार इसे ज़रूर देखे...

Monday, July 13, 2009

सच का सामना करते हुए हम लोग...


कल एनडीटीवी इंडिया पर चक्रव्यूह देखा तो मालूम चला कि हम लोग को प्रसारित हुए 25 साल बीत गए है। स्टूटियो में और कॉन्फ़्रैन्सिंग से जुड़े हर शख्स को हम लोग और बुनियाद जैसे सीरियलों की कमी अखर रही थी। हालांकि स्मृति इरानी को छोड़कर कोई भी और कलाकार आज के वक़्त का नहीं था। फिर भी ये बात तो माननी ही पड़ेगी कि इन 25 सालों में हम लोग बहुत कुछ बदल गए हैं। ख़ास करके टेलीविज़न के मामले में। लेकिन, कई लोग इसे बदलाव नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ पतन ही मानते हैं। जोकि मेरे ख्याल से ग़लत हो जाता है। कई जगह मैंने ऐसे लेख पढ़े हैं जिनमें आज के बेहूदें सीरियल्स की दुहाई दी जाती है। लेकिन, क्या सच में ये सभी बेहूदें है। क्योंकि जब शुरु हुआ था तो लोगों की घड़ियों की सूइयां थम जाया करती थी या फिर आज चल रहा बालिका वधू एक बेहतर बचलाव की उम्मीद लेकर आया है। माना कि जब ये सीरियल रबर की तरह खींचने लगते हैं तो वो झिलाऊ बन जाते हैं। लेकिन, आज का वक़्त उतना भी बुरा नहीं है। साराभाई वर्सेस साराभाई या फिर खिचड़ी या फिर बा बहू और बेबी इसके कुछेक उदाहरण हो सकते हैं। पहले हमारे देश के लिए टीवी ही एक अनोखी चीज़ थी और फिर उसमें सिनेमा की तरह एक कहानी को दिखाना और बडा़ आश्चर्य था। ये कुछ ऐसा ही था कि पहले के जो लोग सिनेमा देखने जाते थे उनके लिए हर हफ़्ते एक ही कहानी को धीरे-धीरे बढ़ते देखना कौतूहल का विषय था। लेकिन, समय बदला या फिर कहे कि भागने लगा। अब लोग एक हफ़्ते का इंतज़ार नहीं कर पाते हैं यही वजह है कि हम अब रोज़ाना के सीरियलों पर उतर आए हैं। पहले की तरह आज केवल एक ही चैनल भी नहीं हैं। अब पता नहीं कि लोग एक हफ़्ते तक उस सीरियल के लिए इतंज़ार करे न करे। और, इस सबसे बड़ी बात जो आज के वक़्त में बदली है वो है एकल परिवार जोकि शहरों में आकर बस गए हैं। उन शहरों में जहां न तो शाम को टहलने के लिए पार्क है और नहीं ऐसे पड़ोस जिनके साथ खाना खाकर ओटले पर वक़्त बिताया जा सके। आज तो ऐसी नौकरियाँ भी नहीं जो कि 5 बजे ख़त्म हो जाएं और पूरा परिवार सात बजे तक खाना खाकर साथ बैठा हो। शायद यही वजह है कि आज टीवी दोस्त बनता जा रहा है। अब तो परिवार में कोई सुबह की शिफ़्ट करता है तो कोई रात की। अब पड़ोस जब बात करनेवाला न हो तो इंसान टीवी को ही दोस्त बना लेता है। आज के इस दौर में टीवी पर जब निर्भरता इतनी बढ़ी है तो चैनल भी बढ़े है। ऐसे में एक इसांन एकसे ही सीरियल हर चैनल पर नहीं देख सकता है। औऱ, यही से जन्म होता है अलग-अलग तरह के फ़ार्मेट का। कोई घर की कहानी दिखाता है तो कोई कॉलेज की। कोई अस्पताल में रोमांस दिखाता है तो कोई गांव का भारत। ऐसे में कुछ कामयाब हो जाते है तो कुछ पीछे छूट जाते हैं। रीयलिटी शो भी इसी प्रपंच का हिस्सा है। आज के वक़्त में टीवी के साथ मिलनेवाला रिमोट सबसे घातक है।

दर्शक अगर चैनल पर किसी इंसान के जीवन का बहुत ही निजी सच देखकर रुकता है तो चैनलवाले सच का सामना भी करवा सकते हैं। वैसे, इन सच्चाइयों का सामना भी हम जैसे ही कुछ लोग करते है। आखिर एक मोटी रकम मिलती है ऐसा करने के एवज में...

Wednesday, July 8, 2009

ग्लोबल विलेज का ग्लोबल शोक...

अख़बारों में ख़बरों के साथ-साथ निजी सुख-दुख की ख़बरें छपना एक बहुत ही सामान्य बात हैं। जन्मदिन की बधाई और मृत्यु के दुख में सभी को शामिल करने ये परम्परा अख़बारों तक ही सीमित लगती थी। लेकिन, फिर टीवी पर कुछ ऐसे मार्निंग शो शुरु हुए जिनमें कि जन्मदिन की बधाइयां दी जाने लगी। इसी तरह अख़बारों में शादी के लिए दिए जानेवाले विज्ञापनों को टक्कर दी मैट्रीमोनियल साइट्स ने जिसे अब टक्कर दे रहा है टीवी विवाह से जुड़े शो दिखाकर। लेकिन, आज नेट पर तफ़री करते हुए कुछ बेहद ही रोचक और नई चीज़ पर नज़र पड़ गई। भास्कर की वेब साइट पर पहली बार मैंने शोक समाचार देखे। मैंने आज से पहले कभी किसी साइट पर ऐसे समाचार नहीं देखे थे। मुझे ये अनोखे लगे। आखिर अख़बार तो किसी एक क्षेत्र विशेष में ही सर्कुलेट होता है। हाँ अगर अख़बार बहुत मशहूर हो तो एक दिन बाद भी कई शहरों में पहुंचता हैं और लोग उसे पढ़ते हैं। लेकिन, फिर भी वो ग्लोबल इंटरनेट पर चस्पा होकर ही बन पाता है। ऐसे में आप विश्व के किसी भी कोने में बैठकर अपने शहर की ख़बरों पर क्लिक करके उन्हें पढ़ सकते हैं। और, ऐसे में शोक को भी ग्लोबल कर देना एक नई पहल है। अब आप बर्घिंग्म में बैठकर भी ये जान सकते हैं कि भोपाल में किस के घर किसकी मृत्यु हो गई हैं। ग्लोबल विलेज का ग्लोबल शोक...

Tuesday, June 30, 2009

आज पहली तारीख़ है...

आज पहली तारीख़ है। दिन है सुहाना आज पहली तारीख़ है। ख़ुश है ज़माना आज पहली तारीख़ है। कैडबरी का ये विज्ञापन आजकल टीवी पर बहुत दिखाई देता है। अजीब से कॉन्सेप्ट पर बना ये विज्ञापन पहली नज़र में ऊलजलूल लगता है। लेकिन, होंठों पर एक हंसी ला देता हैं। आज सुबह से ये विज्ञापन टीवी पर लगातार आ रहा है। खैर, इसे देखने के बाद मेरे एक मित्र का भोपाल से फ़ोन आया वो एक स्थानीय अख़बार में काम करता हैं। कहने लगा कि आज हमारे दफ़्तर के टीवी दिनभर बंद रहेंगे। मैंने पूछा क्यों। तो बोला कि पिछले दो महीने से हमें तनख्वाह नहीं मिली हैं और मालिक नहीं चाहता कि हम ऐसे विज्ञापनों को देखकर भ्रमित हो जाए और तनख़्वाह मांगने लगे...

हड्डियों का ढांचा...


माइकल जैक्सन की मौत की बाद उसके बारे में बाहर आ रही ख़बरें चौंकानेवाली हैं। माइकल जैक्सन गंजे थे या फिर दवाइयों पर ज़िंदा थे बात कोई बड़ी नहीं लेकिन, ये कि वो ऑक्सीज टेंट में सोते थे या फिर उनकी नाक गायब हो चुकी थी या फिर कि सीने को दबाने बस से उनकी पसलियां टूट गई आश्चर्यजनक बातें हैं। एक इतना सफ़ल इंसान इतना कमज़ोर कैसे हो सकता है। हमेशा से ये माना जाता है कि एक गरीब जिसके पास खाने को पैसा ना हो वो भूख से हड्डियों का ढांचा बन जाता है। लेकिन, एक अरबपति इंसान जिसके क़दमों में सफ़लता पड़ी रहती थी और पुरी दुनिया जिसे चाहती थी उसकी ये हालत कैसे हो सकती है। माइकल जैक्सन को स्कीन का कैंसर हो गया था। अपनी नाक को सुडौल और सुडौल बनाने के चक्कर में वो गायब ही कर बैठे थे। सच में सुन्दर दिखने की चाहत इंसान को कहीं का नहीं छोड़ती। कोई आखिर एक बार माइकल से पूछता कि भाई मेरे आवाज़ को चेहरे से क्यों जोड़ते हो। क्या पंडित भीमसेन जोशी ने ये कभी सोचा होगा कि मैं दिखता कैसा हूँ। मैं तो बचपन से लेकर आजतक लता मंगेशकर को बड़े से बड़े समारोह में सिर में तेल चुपड़े दो चोटी किए देख रही हूँ। क्या इससे उनकी गायकी पर कोई असर पड़ा या क्या हमारी चाहत कभी कम हुई। दरअसल पाश्चात्य में शायद ऊपरी आवरण ही सबकुछ है। जो सुन्दर नहीं वो किसी काम का नहीं और समस्या ये है कि अब हम भी इसे अपनाते जा रहे है। आम जनता के बीच लोकप्रिय हो रही प्लास्टिक सर्जरी इसी का उदाहरण है। फ़ेयरनेस क्रीम की बिक्री और किशोरों में जिम और डाइडिंग का बढ़ाता क्रैज़ भी यही बताता है। आज हर चीज़ की पैकेजिंग होती है। हरेक को सुन्दर बनाया जाता है फिर वो कोई भी क्यों न हो। लेकिन, ये सुन्दर पैकेजिंग हमें अंदर से कैसे तिल-तिलकर ख़त्म कर देती है इसका उदाहरण है माइकल जैक्सन। ऐसा नहीं है कि हम भारतीय स्वस्थ और सुन्दर नहीं होते या रहना नहीं चाहते। लेकिन, हमारे तरीक़े अलग है ऐसे है जो हमें ख़त्म नहीं करते हैं। योग इसी का उदाहरण है। ये आपको नुक्सान नहीं पहुंचाता। ऐसी ही होम्योपैथी जोकि केवल आपके मर्ज़ को ख़त्म करती हैं न की आपको। मुझे लगता है माइकल जैक्सन मरने के बाद हर उस युवा का आदर्श बन चुकें हैं जो कि सुन्दर और सुडौल होना चाहता है। एक ऐसा आदर्श जो कहता है कि मेरी तरह मत होना, जो मैंने किया वो ग़लती से भी मत दोहराना...

Monday, June 29, 2009

नज़रें चुराकर टीवी देखते दर्शक...

अपनी ग्रेजुएशन तक मैंने फ़ीजिक्स पढ़ी है। उसमें कई ग्राफ़ भी पढ़े हैं। पढ़ा है कि कैसे विद्धुत से लेकर कई चीज़ें ऊपर नीचे होती है। लेकिन, कभी ये नहीं पढ़ा कि एक ही जैसी चीज़ें एक ही वक़्त पर ऊपर भी हो सकती है और नीचे भी। फ़िलहाल छोटा पर्दा यानी कि टीवी मुझे ऐसा ही लग रहा है। कइयों की नज़र में ये डूबता हुआ सूरज है तो कइयों की नज़र में जान अभी कुछ बाक़ी है। टीवी पर एकता कपूर का राज अब विघटन की स्थिति में है। एनडीटीवी इमेजिन पर चल रहा कितनी मोहब्बत है... इसी का एक उदाहरण है। लेकिन, वही उसी एकता कपूर का बंदिनी (जोकि क अक्षर से शुरु नहीं होता है) एक अच्छा धारावाहिक माना जा सकता है। शायद एकता को भी ये मालूम चल गया है कि धारावाहिक के नाम से ज़्यादा कहानी महत्वपूर्ण होती है। धारावाहिकों की इस रेलम-पेल में सब टीवी सबसे अलग है। इस चैनल पर हास्य परोसा जाता है। जब सब को हास्य के लिए समर्पित किया गया था सभी के मन में ये शक़ था कि क्या ये चल पाएगा। लेकिन, आज ये अच्छा खासा चल रहा है। इस चैनल का सकारात्मक प्रभाव ती जांच इस बात से हो सकती है कि मेरी बुआ जोकि मंदसौर में अकेली रहती है केवल सब टीवी देखती है। उनका कहना है कि दिनभर ऑफ़िस में काम करके घर आकर टीवी पर उदासी और रोना धोना मैं नहीं देख सकती हूँ। सब पर कुछ धारावाहिक सच में खूब हंसाते हैं जिनमें पुराना श्रीमान श्रीमती शामिल है। वही जोर शोर से शुरु हुआ कलर्स भी अब धीरे-धीरे अपने रंग खोता जा रहा है। बालिका वधू के कई प्लॉट्स से लोगों को एतराज़ होने लगा है और वही लाडो कन्या भ्रूण हत्या के विषय से भटक गया लगता है। वही विशुद्ध रूप से मसाला धारावाहिक भाग्य विधाता लोगों को पसंद आ रहा है। उतरन भी एक बच्ची की मासूमियत के लिए कम बच्ची के मुंह से निकल रहे बड़े-बड़े डायलॉग और बच्ची की कुटिल नीति के लिए ज़्यादा याद रह रहा है। टीआरपी का ये खेल शुरु करनेवाला चैनल स्टार प्लस आज खुद किसी कोने में खड़ा हुआ है। इसी के साथ शुरु हुआ चैनल स्टार वन भी एक ताज़गी लिए आया था लेकिन, उस चैनल पर आज साराभाई वर्सेस साराभाई के रीपीट टेलीकास्ट के अलावा कुछ भी ताज़गी देने लायक़ नहीं है। शायद आयडियाज़ की कमी के चलते ही रीयलिटी शोज़ की शुरुआत हुई होगी। हालांकि, ये सभी पूरी तरह विदेश आयडियाज़ है लेकिन, हमारे लिए नए थे। यही वजह थी की चोरी का आयडिया होने पर भी कौन बनेगा करोड़पति के लिए हमारा समय रूक जाता था। हालांकि राखी का स्वयंवर जोकि आज से शुरु होनेवाला है विशु्द्ध भारतीय आयडिया लग रहा है। रीयलिटी शो को कोई कितनी भी गाली दे लेकिन, फिर भी हम में से सभी ने कभी न कभी इसमें हिस्सा लेने के बारे में ज़रूर सोचा होगा। या फिर एक एसएमएस तो ज़रूर किया ही होगा। किसी के बाहर हो जाने पर अफ़सोस और किसी नॉट सो डीज़र्विंग के जीत जाने पर गुस्सा भी ज़ाहिर किया होगा। आम दर्शकों का ऐसे धारावाहिकों और रीयलिटी शोज़ के लिए गुस्सा कुछ ऐसा ही है जैसे कि इंडिया टीवी के लिए... कोई भी ये स्वीकार नहीं करता कि वो इंडिया टीवी देखता है फिर भी टीआरपी में वही अव्वल है...

Monday, June 22, 2009

सीटी बजाते लोग...

आप सभी ने सड़क किनारे सीटी बजाते हुए लड़कों को देखा होगा। मोहल्ले की पुलिया पर बैठे हुए इन लड़कों को हर कोई लफंगा और लोफर कहकर पुकारता है। ऐसे में शायद किसी ने ये कभी नहीं सोचा होगा कि यही सीटी एक कला का रूप भी हो सकती है। जी हाँ, सीटी बजाना भी एक कला है और हमारे बीच ऐसे कुछ लोग मौजूद भी हैं जो इसे कला के रूप में विकसित करने में जुटे हुए हैं। ये सभी तरह-तरह से सीटी बजाना सीख रहे हैं। इन सभी ने मिलकर एक association की स्थापना भी की है जिसमें ऐसे लोग शामिल है जिन्हें सीटी बजाने का शौक़ हैं। indian whistler's association इनकी इस संस्था का नाम हैं। ये सभी पूरे देश में फैले हुए है और हर महीने अपनी बैठके करते हैं। एक जगह इकठ्ठा होकर ये सभी सीटी बजाने के नए तरीक़े, कैसे इसे और बेहतर किया जाए इन सब मुद्दों पर विचार करते हैं। चार साल पहले गठित ये association कई जगह अपनी इस कला का प्रदर्शन भी कर चुकी हैं। इन लोगों का नाम लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी शामिल हो चुका हैं। internet पर एक community group के रूप में शुरु हुई ये संस्था दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। अगर आप भी चाहे तो इस संस्था के सदस्य बन सकते हैं। अगर आप इस संस्था के बारे में ज़्यादा जानना चाहते हैं तो लोकसभा टीवी पर मंगलवार रात साढ़े आठ बजे सुर्खि़यों से परे देखें...

माँ के बिना...

मैं 25 साल की हूँ और पिछले 3 साल से दिल्ली में अकेली रह रही हूँ। आज भी जब ऑफ़िस से रूम जाती हूँ तो रूम का ताला खोलने में रुलाई आती है। आज भी जब थकी हुई हालत में खाना बनाती हूँ तो mummy की गर्म रोटियाँ याद आती हैं। घर पर रहते हुए आज तक मैंने कभी ख़ुद से खाना तक नहीं परोसा था। हर बार mummy ही खाना देती थी...

वही, मेरे ऑफ़िस में मेरी एक सहकर्मी अपनी चार साल सात महीने की बेटी के लिए एक बोर्डिंग स्कूल खोज रही हैं। मेरी सहकर्मी और उसका पति दोनों ही नौकरी पेशा हैं और मीडिया में होने के कारण उनकी शिफ़्ट भी लगातार बदलने वाली है। ऐसे में बेटी को स्कूल छोड़ना, फिर लाना, फिर किसी झूलाघर में छोड़ना संभव नहीं है। मेरी सहकर्मी इस बात से फ़िलहाल बेहद परेशान है और दिनभर वो इसी विषय में बातें करती रहती हैं। वो बताती है कि उसकी बेटी को पहले वो दो साल के लिए अपनी माँ के घर रख चुकी है, लेकिन अब वो वहाँ भी नहीं रख सकती क्योंकि माँ की ज़िम्मेदारियाँ (भाई के बच्चे) बढ़ गई हैं और फिर उड़ीसा वो साल में एक बार ही जा पाती हैं। ऐसे में बेटी से केवल एक बार मुलाक़ात होती थी। अब वो दिल्ली में ही एक अच्छा-सा बोर्डिंग खोज रही है जिससे हफ़्ते में एक बार मिल सके उससे। उसके ससुराल में भी ऐसा कोई नहीं जो उनके साथ रह सके और सास की तबीयत ऐसी है कि उन्हें सेवा की ज़रूरत है। मेरी सहकर्मी परेशान है।

मेरी सहकर्मी से ज़्यादा मैं परेशान हो रही हूँ। मुझे लगातार ये बात लग रही है कि मैं इतनी बड़ी और परिस्थितियों को समझने वाली लड़की जब पिछले तीन सालों में ख़ुद को इस अकेलेपन में ढाल नहीं पाई है, तो कैसे वो चार साल सात महीने की लड़की यूँ अकेले रह पाएगी। कॉलेज के दिनों तक मैं ख़ुद से चोटी नहीं कर पाती थी। दिल्ली आकर मैंने रोटी बनाना और कपड़े धोना सीखा। कैसे वो बच्ची माँ और पापा के बिना कुछ भी कर पाएगी। जिस उम्र में उसे नई बातें सीखना चाहिए कैसे वो हर काम खु़द से करना सीखेगी। कैसे रहेगी वो माँ के बिना। मेरी नज़रों के सामने उस बच्ची का चेहरा घूम रहा है। अगर मैं उसकी जगह होती तो शायद अपनी माँ से इतना ज़रूर पूछती कि- जब वक़्त नहीं था मेरे लिए तो जन्म ही क्यों दिया मुझे...

Friday, March 20, 2009

यूँ ही बीतते त्यौहार...

पिछले रविवार को भोपाल से मेरे एक दोस्त का फोन आया। वो भोपाल में ही एक हिन्दी अख़बार के साथ जुड़ा हुआ। कुछ दिन पहले जब दीक्षांत समारोह के दौरान भोपाल जाना हुआ था तो उससे भी मुलाक़ात हुई थी।
खैर, फोन पर ही यूँ ही बातचीत हो रही थी कि अचानक उसने पूछा - और, आज का क्या प्रोग्राम है?
मैंने कहा - कुछ खास नहीं छुट्टी है। कपड़े धोना हैं और रूम की साफ-सफाई।
वो बोला अरे - आज रंगपंचमी है। याद नहीं क्या?
मैं एक पल को चुप रह गई। फिर जवाब दिया - मैं तो पूरी तरह भूल गई थी। दिल्ली में तो कोई मनाता ही नहीं है।
बातचीत हुई और मैंने फोन रख दिया। इसके बाद शाम को दोस्तों के बीच बैठे हुए मैंने कहा - रंगपंचमी यूँ ही बीत गई। घर पर होती तो कोई कोई तो रंग ही जाता।
मेरे दोस्त जिनमें से कोई भी मध्य प्रदेश का नहीं हैं एक साथ बोले कि - ये क्या बला है? रंगपंचमी...
मैंने फिर उन्हें बताया कि क्या होती है रंगपंचमी। अगले दिन नेट पर घूमते हुए जागरण पर इंदौर में धूमधाम से मनाई गई रंगपंचमी की ख़बर पढ़ी। एक पल को लगा कि कितनी मस्ती हुई होगी वहाँ और यहाँ पता तक नहीं चला। इसके दो-तीन दिन बाद सुबह-सुबह मम्मी का फोन आया। मेरा हालचाल जानने के बाद उन्होंने बताया कि वो अभी पूजा करके लौट रही हैं। मैंने पूछा - आज कौन-सी पूजा?
वो बोली - आज सीतला सप्तमी है। याद नहीं क्या तुम्हें।
मैं कुछ नहीं बोली। तब से ही मन में ये बार-बार रहा है कि शायद मेरे अंचल में बननेवाले ये त्यौहार अब मुझसे दूर होते जा रहे हैं। यहाँ की भाग-दौड़ में जब होली-दीवाली यूँ ही बीत जाती हैं, तो ये त्यौहार मैं कैसे मना पाऊंगी। फिर लगता है कि शायद याद भी रख पाऊंगी...