Friday, December 11, 2009

इकोनोमी मील या हैप्पी मील...

रॉकेट सिंह देश के युवाओं के उस अस्सी फ़ीसदी हिस्से को दर्शाता है जोकि सपनों में भी किसी कंपनी में किसी ठीक-ठाक पोस्ट पर होने के सपने देखता हैं। वो पैसे जोड़ता भी है तो स्कूटर या बाइक के लिए। ऐसा ही था सिड- जोकि एमटीवीनुमा युवा को दर्शाता है। जोकि सपने देखते ही नहीं है दरअसल वो रातभर मस्ती में जो रहते हैं। दोनों ही एक ही देश में रहते हैं। एक ही हवा में कभी-कभी सांस लेते हैं (कभी-कभी इसलिए क्योंकि एसी की हवा अस्सी फ़ीसदी के हिस्से नहीं आती है)। मैक-डी में बर्गर भी दोनों ही खाते हैं भले ही एक इकोनामी मील खाए और दूसरा हैप्पी मील। खैर, मुद्दा ये है कि फ़िल्म एक ऐसा ज़रिया है जिससे कि हम दोनों ही तरह के युवाओं को देख सकते हैं। ये समझ सकते हैं कि हम कहाँ हैं और हम कैसे हैं। कुछ दिन पहले ही एक ख़बरिया चैनल पर रॉकेट सिंह के प्रमोशन के लिए इकठ्ठा हुए फिल्म से जुड़े लोगों का इंटरव्यू देखा। लेखक का ये दावा था कि ये उन अस्सी फ़ीसदी युवाओं के लिए हैं। ये फ़िल्म उन्हें अपनी सी लगेगी। रणबीर कपूर जोकि ख़ुद ओरिजनल नाइकी पहननेवाले हैं फिलहाल डुप्लीकेट नाइकीवाले बने हुए है। मैं ख़ुद इकोनोमी मील खानेवाली जमात में शामिल हूँ। मैं इस बात से खुश हूँ कि इस तरह की फिल्में बन रही है। नहीं तो हमारी सिनेमा या तो लंदन घूमनेवाले और कार में चलनेवाले यूथ की होती है या फिर धारावी की गंदगी में सने हुए लफंगों की। रॉकेट सिंह को देखकर मैं ये उम्मीद करती हूँ कि चश्मे बद्दूर के ओमी, बोजो और नेहा जैसे हम युवाओं की बदलती कहानी भी फिल्मवालों को भाने लगेगी। उम्मीद है फिल्म को अधिक से अधिक युवा देखेंगे। फिल्म महज मल्टीप्लैक्स के आंकड़ों में हिट होकर नहीं रह जाएगी...

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