Tuesday, June 30, 2009

आज पहली तारीख़ है...

आज पहली तारीख़ है। दिन है सुहाना आज पहली तारीख़ है। ख़ुश है ज़माना आज पहली तारीख़ है। कैडबरी का ये विज्ञापन आजकल टीवी पर बहुत दिखाई देता है। अजीब से कॉन्सेप्ट पर बना ये विज्ञापन पहली नज़र में ऊलजलूल लगता है। लेकिन, होंठों पर एक हंसी ला देता हैं। आज सुबह से ये विज्ञापन टीवी पर लगातार आ रहा है। खैर, इसे देखने के बाद मेरे एक मित्र का भोपाल से फ़ोन आया वो एक स्थानीय अख़बार में काम करता हैं। कहने लगा कि आज हमारे दफ़्तर के टीवी दिनभर बंद रहेंगे। मैंने पूछा क्यों। तो बोला कि पिछले दो महीने से हमें तनख्वाह नहीं मिली हैं और मालिक नहीं चाहता कि हम ऐसे विज्ञापनों को देखकर भ्रमित हो जाए और तनख़्वाह मांगने लगे...

हड्डियों का ढांचा...


माइकल जैक्सन की मौत की बाद उसके बारे में बाहर आ रही ख़बरें चौंकानेवाली हैं। माइकल जैक्सन गंजे थे या फिर दवाइयों पर ज़िंदा थे बात कोई बड़ी नहीं लेकिन, ये कि वो ऑक्सीज टेंट में सोते थे या फिर उनकी नाक गायब हो चुकी थी या फिर कि सीने को दबाने बस से उनकी पसलियां टूट गई आश्चर्यजनक बातें हैं। एक इतना सफ़ल इंसान इतना कमज़ोर कैसे हो सकता है। हमेशा से ये माना जाता है कि एक गरीब जिसके पास खाने को पैसा ना हो वो भूख से हड्डियों का ढांचा बन जाता है। लेकिन, एक अरबपति इंसान जिसके क़दमों में सफ़लता पड़ी रहती थी और पुरी दुनिया जिसे चाहती थी उसकी ये हालत कैसे हो सकती है। माइकल जैक्सन को स्कीन का कैंसर हो गया था। अपनी नाक को सुडौल और सुडौल बनाने के चक्कर में वो गायब ही कर बैठे थे। सच में सुन्दर दिखने की चाहत इंसान को कहीं का नहीं छोड़ती। कोई आखिर एक बार माइकल से पूछता कि भाई मेरे आवाज़ को चेहरे से क्यों जोड़ते हो। क्या पंडित भीमसेन जोशी ने ये कभी सोचा होगा कि मैं दिखता कैसा हूँ। मैं तो बचपन से लेकर आजतक लता मंगेशकर को बड़े से बड़े समारोह में सिर में तेल चुपड़े दो चोटी किए देख रही हूँ। क्या इससे उनकी गायकी पर कोई असर पड़ा या क्या हमारी चाहत कभी कम हुई। दरअसल पाश्चात्य में शायद ऊपरी आवरण ही सबकुछ है। जो सुन्दर नहीं वो किसी काम का नहीं और समस्या ये है कि अब हम भी इसे अपनाते जा रहे है। आम जनता के बीच लोकप्रिय हो रही प्लास्टिक सर्जरी इसी का उदाहरण है। फ़ेयरनेस क्रीम की बिक्री और किशोरों में जिम और डाइडिंग का बढ़ाता क्रैज़ भी यही बताता है। आज हर चीज़ की पैकेजिंग होती है। हरेक को सुन्दर बनाया जाता है फिर वो कोई भी क्यों न हो। लेकिन, ये सुन्दर पैकेजिंग हमें अंदर से कैसे तिल-तिलकर ख़त्म कर देती है इसका उदाहरण है माइकल जैक्सन। ऐसा नहीं है कि हम भारतीय स्वस्थ और सुन्दर नहीं होते या रहना नहीं चाहते। लेकिन, हमारे तरीक़े अलग है ऐसे है जो हमें ख़त्म नहीं करते हैं। योग इसी का उदाहरण है। ये आपको नुक्सान नहीं पहुंचाता। ऐसी ही होम्योपैथी जोकि केवल आपके मर्ज़ को ख़त्म करती हैं न की आपको। मुझे लगता है माइकल जैक्सन मरने के बाद हर उस युवा का आदर्श बन चुकें हैं जो कि सुन्दर और सुडौल होना चाहता है। एक ऐसा आदर्श जो कहता है कि मेरी तरह मत होना, जो मैंने किया वो ग़लती से भी मत दोहराना...

Monday, June 29, 2009

नज़रें चुराकर टीवी देखते दर्शक...

अपनी ग्रेजुएशन तक मैंने फ़ीजिक्स पढ़ी है। उसमें कई ग्राफ़ भी पढ़े हैं। पढ़ा है कि कैसे विद्धुत से लेकर कई चीज़ें ऊपर नीचे होती है। लेकिन, कभी ये नहीं पढ़ा कि एक ही जैसी चीज़ें एक ही वक़्त पर ऊपर भी हो सकती है और नीचे भी। फ़िलहाल छोटा पर्दा यानी कि टीवी मुझे ऐसा ही लग रहा है। कइयों की नज़र में ये डूबता हुआ सूरज है तो कइयों की नज़र में जान अभी कुछ बाक़ी है। टीवी पर एकता कपूर का राज अब विघटन की स्थिति में है। एनडीटीवी इमेजिन पर चल रहा कितनी मोहब्बत है... इसी का एक उदाहरण है। लेकिन, वही उसी एकता कपूर का बंदिनी (जोकि क अक्षर से शुरु नहीं होता है) एक अच्छा धारावाहिक माना जा सकता है। शायद एकता को भी ये मालूम चल गया है कि धारावाहिक के नाम से ज़्यादा कहानी महत्वपूर्ण होती है। धारावाहिकों की इस रेलम-पेल में सब टीवी सबसे अलग है। इस चैनल पर हास्य परोसा जाता है। जब सब को हास्य के लिए समर्पित किया गया था सभी के मन में ये शक़ था कि क्या ये चल पाएगा। लेकिन, आज ये अच्छा खासा चल रहा है। इस चैनल का सकारात्मक प्रभाव ती जांच इस बात से हो सकती है कि मेरी बुआ जोकि मंदसौर में अकेली रहती है केवल सब टीवी देखती है। उनका कहना है कि दिनभर ऑफ़िस में काम करके घर आकर टीवी पर उदासी और रोना धोना मैं नहीं देख सकती हूँ। सब पर कुछ धारावाहिक सच में खूब हंसाते हैं जिनमें पुराना श्रीमान श्रीमती शामिल है। वही जोर शोर से शुरु हुआ कलर्स भी अब धीरे-धीरे अपने रंग खोता जा रहा है। बालिका वधू के कई प्लॉट्स से लोगों को एतराज़ होने लगा है और वही लाडो कन्या भ्रूण हत्या के विषय से भटक गया लगता है। वही विशुद्ध रूप से मसाला धारावाहिक भाग्य विधाता लोगों को पसंद आ रहा है। उतरन भी एक बच्ची की मासूमियत के लिए कम बच्ची के मुंह से निकल रहे बड़े-बड़े डायलॉग और बच्ची की कुटिल नीति के लिए ज़्यादा याद रह रहा है। टीआरपी का ये खेल शुरु करनेवाला चैनल स्टार प्लस आज खुद किसी कोने में खड़ा हुआ है। इसी के साथ शुरु हुआ चैनल स्टार वन भी एक ताज़गी लिए आया था लेकिन, उस चैनल पर आज साराभाई वर्सेस साराभाई के रीपीट टेलीकास्ट के अलावा कुछ भी ताज़गी देने लायक़ नहीं है। शायद आयडियाज़ की कमी के चलते ही रीयलिटी शोज़ की शुरुआत हुई होगी। हालांकि, ये सभी पूरी तरह विदेश आयडियाज़ है लेकिन, हमारे लिए नए थे। यही वजह थी की चोरी का आयडिया होने पर भी कौन बनेगा करोड़पति के लिए हमारा समय रूक जाता था। हालांकि राखी का स्वयंवर जोकि आज से शुरु होनेवाला है विशु्द्ध भारतीय आयडिया लग रहा है। रीयलिटी शो को कोई कितनी भी गाली दे लेकिन, फिर भी हम में से सभी ने कभी न कभी इसमें हिस्सा लेने के बारे में ज़रूर सोचा होगा। या फिर एक एसएमएस तो ज़रूर किया ही होगा। किसी के बाहर हो जाने पर अफ़सोस और किसी नॉट सो डीज़र्विंग के जीत जाने पर गुस्सा भी ज़ाहिर किया होगा। आम दर्शकों का ऐसे धारावाहिकों और रीयलिटी शोज़ के लिए गुस्सा कुछ ऐसा ही है जैसे कि इंडिया टीवी के लिए... कोई भी ये स्वीकार नहीं करता कि वो इंडिया टीवी देखता है फिर भी टीआरपी में वही अव्वल है...

Monday, June 22, 2009

सीटी बजाते लोग...

आप सभी ने सड़क किनारे सीटी बजाते हुए लड़कों को देखा होगा। मोहल्ले की पुलिया पर बैठे हुए इन लड़कों को हर कोई लफंगा और लोफर कहकर पुकारता है। ऐसे में शायद किसी ने ये कभी नहीं सोचा होगा कि यही सीटी एक कला का रूप भी हो सकती है। जी हाँ, सीटी बजाना भी एक कला है और हमारे बीच ऐसे कुछ लोग मौजूद भी हैं जो इसे कला के रूप में विकसित करने में जुटे हुए हैं। ये सभी तरह-तरह से सीटी बजाना सीख रहे हैं। इन सभी ने मिलकर एक association की स्थापना भी की है जिसमें ऐसे लोग शामिल है जिन्हें सीटी बजाने का शौक़ हैं। indian whistler's association इनकी इस संस्था का नाम हैं। ये सभी पूरे देश में फैले हुए है और हर महीने अपनी बैठके करते हैं। एक जगह इकठ्ठा होकर ये सभी सीटी बजाने के नए तरीक़े, कैसे इसे और बेहतर किया जाए इन सब मुद्दों पर विचार करते हैं। चार साल पहले गठित ये association कई जगह अपनी इस कला का प्रदर्शन भी कर चुकी हैं। इन लोगों का नाम लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी शामिल हो चुका हैं। internet पर एक community group के रूप में शुरु हुई ये संस्था दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। अगर आप भी चाहे तो इस संस्था के सदस्य बन सकते हैं। अगर आप इस संस्था के बारे में ज़्यादा जानना चाहते हैं तो लोकसभा टीवी पर मंगलवार रात साढ़े आठ बजे सुर्खि़यों से परे देखें...

माँ के बिना...

मैं 25 साल की हूँ और पिछले 3 साल से दिल्ली में अकेली रह रही हूँ। आज भी जब ऑफ़िस से रूम जाती हूँ तो रूम का ताला खोलने में रुलाई आती है। आज भी जब थकी हुई हालत में खाना बनाती हूँ तो mummy की गर्म रोटियाँ याद आती हैं। घर पर रहते हुए आज तक मैंने कभी ख़ुद से खाना तक नहीं परोसा था। हर बार mummy ही खाना देती थी...

वही, मेरे ऑफ़िस में मेरी एक सहकर्मी अपनी चार साल सात महीने की बेटी के लिए एक बोर्डिंग स्कूल खोज रही हैं। मेरी सहकर्मी और उसका पति दोनों ही नौकरी पेशा हैं और मीडिया में होने के कारण उनकी शिफ़्ट भी लगातार बदलने वाली है। ऐसे में बेटी को स्कूल छोड़ना, फिर लाना, फिर किसी झूलाघर में छोड़ना संभव नहीं है। मेरी सहकर्मी इस बात से फ़िलहाल बेहद परेशान है और दिनभर वो इसी विषय में बातें करती रहती हैं। वो बताती है कि उसकी बेटी को पहले वो दो साल के लिए अपनी माँ के घर रख चुकी है, लेकिन अब वो वहाँ भी नहीं रख सकती क्योंकि माँ की ज़िम्मेदारियाँ (भाई के बच्चे) बढ़ गई हैं और फिर उड़ीसा वो साल में एक बार ही जा पाती हैं। ऐसे में बेटी से केवल एक बार मुलाक़ात होती थी। अब वो दिल्ली में ही एक अच्छा-सा बोर्डिंग खोज रही है जिससे हफ़्ते में एक बार मिल सके उससे। उसके ससुराल में भी ऐसा कोई नहीं जो उनके साथ रह सके और सास की तबीयत ऐसी है कि उन्हें सेवा की ज़रूरत है। मेरी सहकर्मी परेशान है।

मेरी सहकर्मी से ज़्यादा मैं परेशान हो रही हूँ। मुझे लगातार ये बात लग रही है कि मैं इतनी बड़ी और परिस्थितियों को समझने वाली लड़की जब पिछले तीन सालों में ख़ुद को इस अकेलेपन में ढाल नहीं पाई है, तो कैसे वो चार साल सात महीने की लड़की यूँ अकेले रह पाएगी। कॉलेज के दिनों तक मैं ख़ुद से चोटी नहीं कर पाती थी। दिल्ली आकर मैंने रोटी बनाना और कपड़े धोना सीखा। कैसे वो बच्ची माँ और पापा के बिना कुछ भी कर पाएगी। जिस उम्र में उसे नई बातें सीखना चाहिए कैसे वो हर काम खु़द से करना सीखेगी। कैसे रहेगी वो माँ के बिना। मेरी नज़रों के सामने उस बच्ची का चेहरा घूम रहा है। अगर मैं उसकी जगह होती तो शायद अपनी माँ से इतना ज़रूर पूछती कि- जब वक़्त नहीं था मेरे लिए तो जन्म ही क्यों दिया मुझे...