Showing posts with label जीवन जीने का तरीक़ा.... Show all posts
Showing posts with label जीवन जीने का तरीक़ा.... Show all posts

Saturday, February 25, 2012

लिखे-पढ़े तो बहुत है लेकिन, लिखना-पढ़ना नहीं चाहते....






ऐसा सामान्यतः मान लिया जाता है कि जो पढ़ा-लिखा होता है वो ज्यादा सलीकेदार और नियम-क़ानून माननेवाला होता है। हालांकि ऐसा माननेवालों में, मै ख़ुद को शामिल नहीं करती हूँ। पढ़े-लिखे क्या पढ-लिख रहे युवाओं में भी सलीकों का अभाव खलता है। दिल्ली में आज से दो हफ्ते तक चलनेवाला अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला शुरु हो चुका है। पुस्तक मेला एक ऐसा मेला जहां गुब्बारे भले ही ना मिलते हो लेकिन, फिर भी उसमें रोज़ाना पहुंच जाना मुझे बहुत भाता है। दो हफ्ते तक चलनेवाले मेले में भी पढ़े-लिखे पढ़ने-लिखनेवालों की भीड़ आप देख सकते हैं। भारी-भरकम किताबों को झोलाभरकर लोग खरीदते हैं। उम्मीद करती हूँ कि पढ़ते भी होगे। लेकिन, फिर भी सामाजिक तौर पर मुझे पढ़ने- लिखनेवाले लोग कम ही नज़र आते है। या फिर ये कहूँ कि जो पढ़ना और लिखना चाहिए उसे पढ़ते लिखते नज़र नहीं आते है। दिल्ली की धड़कन मैट्रो की ही अगर बात की जाए तो इसमें आपको ऐसे कई लोग दिखाई दे जाएगे जो हाथों में अंग्रेज़ी का अख़बार या उपन्यास थामे सफर करते है। इत्मिनान से बैठना तो अलग सलीके से खड़े होने की जगह भी कई बार नसीब नहीं होती है। ऐसे में भी ये हाथ में अंग्रेज़ी उपन्यास थामे, उसमें नज़रें गड़ाए गड्ड-मड्ड होते रहते हैं। लेकिन, जब मैट्रो स्टेशन से बाहर निकलना हो तो इनमें से कुछ आपको बाहर जानेवाले एएफसी गेट में टोकन को जबरन घुसेड़ते हुए भी दिखाई दे जाएगे। कई बार मुझे पीछे से टोकना पड़ता है- ज़रा पढ़ भी लिजिए साफ-साफ लिखा है केवल कार्ड का प्रयोग करें....। यहां थूकना मना है को तो लोग सालों से वो जगह मानते ही है जहां थूकना है। या फिर जहां पेशाब करना मना लिखा होता है वो लिखाई ही लोग धो डालते हैं....। यही हालत लिखने की आदत के साथ भी है। जहां ज़रूरत हो और जहाँ ज़रूरी हो वहाँ कभी नहीं लिखा मिलेगा। कुछ साल पहले की ही बात है मेरी दोस्त की गाड़ी न्यू मार्केट से ट्रैफिकवाले उठा ले गए। वो जब उसे छुड़ाने पहुंची तो उसने कहा कि वहाँ नो पार्किंग नहीं लिखा था। तो ट्रेफिकवाला तपाक से बोला पार्किंग भी तो नहीं लिखा था....। बात को तोड़ने और मरोड़ने की हद है। अरे, कोई नियम है तो उसे लिखने में क्या समस्या है। यहीं हाल चिठ्ठियों के साथ भी है। लोग अब एक दूसरे को लिखने से कतराते हैं। हम अपनी लिखाई का उपयोग केवल तब तक करते है जब तक हमें उस लिखाई पर अंक मिलते हो। सुन्दर लेखनी और हम बात का विवरण लिखना आम जीवन में लोगों को गैर ज़रूरी महसूस होता है। ऐसा लगता है मानो लिखने का केवल एक ही उद्देश्य है- परीक्षा में अच्छे अंक पाना। बाक़ी तो सब कुछ मौखिक होता जा रहा हैं। हम लिखे-पढ़े तो बहुत है लेकिन, हम लिखना और पढ़ना नहीं चाहते हैं। अगर पुस्तक पढ़ने का शौक है और पुस्तक मेले जा रहे है तो बिना किसी से पूछे साइन बोर्ड और लिखी हुई सूचनाओं को पढ़ते हुए वहां पहुंचने की और घूमने की कोशिश करके देखिएगा..... अच्छा ही लगेगा....

Thursday, April 28, 2011

सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है...

शुरुआत से ही विज्ञान की छात्र होने के बावजूद कभी भी इंजीनियर बनने के बारे में नहीं सोचा। विज्ञान और गणित दोनों ही ऐसे विषय रहे हैं जोकि मुझे नबंर ज़्यादा पाने के लिए आसान लगे हैं। इसमें आपको अपनी कोई ख़ास क्रिएटिविट नहीं दिखानी होती है। लेकिन, जिस चीज़ से इंसान भागता है वो उसके सामने कभी न कभी आ ही जाती है। मेरा भी यही हाल है। आज जो काम कर रही हूँ उसका पूरा सत्व ही क्रिएटिविट में झुपा हुआ है। खैर, पिछले शनिवार को ये समझ में आया कि विशुद्घ विज्ञान या गणित किस हद तक क्रिएटिव हो सकते हैं। आईआईआईटी दिल्ली में लगे ओपन हाउस में पहुंचकर मालूम चला कि कैसे समीकरण ज़िंदगी में घुल मिलकर कुछ अनोखा बना सकते हैं। सबसे पहले ही सामना हुआ एक ऐसी साइकल से जोकि खुद ब खुद टायरों में हवा भर सकती है। सोच सचमुच अच्छी थी क्योंकि साइकल में हवा कम होने पर उसे पंचरवाले तक लेकर जाना बड़ा कड़ा काम है। लेकिन, छात्रों की इस सोच को परिपक्व होने में वक़्त लगेगा। आगे बढ़े तो कुछ छात्र एक अजीबों गरीब बैक पैक के साथ मिले। पास जाने पर मालूम चलाकि ये मज़दूरों को ज्यादा भार आसानी से उठा लेने के लिए तैयार किया गया है। विशुद्ध वैज्ञानिक नियमों के ज़रिए सबसे बड़ी समस्या का निदान। ये प्रयोग मुझे अच्छा लगा हालांकि जिस देश में हाड़ तोड़ मज़दूरी करनेवालों को जहां ठीक से खाना नहीं मिलता उन्हें ये बैक पैक कहां नसीब। कुछ मॉडल ऐसे भी थे जिन्हें छात्रों ने बनाया तो था कि बेहतरीन सोच के साथ लेकिन वो उसे समझा नहीं पा रहे थे। कुछ-कुछ ऐसा ही था एक जूट का गिटार। जोकि छात्रों के मुताबिक़ इको फ्रेन्डली और सस्ता था लेकिन, छात्र ये नहीं बताया कि कैसे वो इसे एम्लिफाय कर सकता है। कुछ छात्राओं ने कपड़े सुखाने की मशीन बनाई थी तो कुछ ने एक समान प्लटों को धोने की। कुछेक सार्वजनिक स्थलों से कचरा हटाने में जुटे थे। सभी छात्रों की सोच तो काबिल-ए-तारीफ़ लगी लेकिन, साथ में ये भी ये भी लगाकि ये सोच दुनियादारी से बहुत दूर है। जब असल में इन्हें उपयोग में लाने की बात होगी तो हो सकता है कि कई रुकावटें आएं। कुछ भी हो लेकिन ये सोचकर एक सूकून मिला कि देश का ये भविष्य समाज के लिए सोच रहा है।

अंत में- आईआईटी में छात्रों को इन प्रयोगों के साथ देखकर जितना अच्छा लगा उतना ही दुख हुआ दिल्ली के स्कूली छात्रों को देखकर। एक भी छात्र इन प्रयोगों को देखने के लिए आया हो ऐसा नहीं महसूस हुआ। सभी बस झुण्ड बनाकर इधर-उधरकर हंसी हंगामा करते नज़र आए। कुछेक तो बदतमीज़ी से बात करते भी दिखे। आईआईटी में आकर महसूस हुआ कि सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है।

Monday, April 18, 2011

समझ ज़रूरी है...

स्कूली दिनों को हम लोग मौज मस्ती के लिए ही ज़्यादातर याद करते हैं। पढ़ाई भी याद आती है तो किसी शिक्षक की बातों से या किसी शरारत से। ऐसा शायद ही किसी के साथ होता हो कि वो स्कूल को वहाँ की बेहतरीन पढ़ाई के लिए याद करता हो या ये याद कर रहा हो कि उसके स्कूल में जो उसे पढ़ाया वो आज काम आ गया। स्कूल एक ऐसी जगह बन गई है जहाँ जाना आपके पढ़े लिखे होने का सबूत है। लेकिन, स्कूल में मिलनेवाली शिक्षा इतनी ज़्यादा एक ढर्रेवाली और निरस होती है कि उसे पढ़ने के बाद न तो वो हमें वो आनेवाले समय के लिए बहुत लाभदायक लगती है और न ही एक सुखद याद की तरह हमारे साथ रहती है। शिक्षा पद्धति को रोचक बनाने के लिए आज के वक़्त में बहुत से काम हो रहे है। ख़ासकर गणित और विज्ञान जैसे विषयों को लेकर। यही ऐसे दो विषय रहे हैं जिनसे बच्चे सबसे ज्यादा भयभीत रहे हैं। इन विषयों को सरल बनाने के लिए जोड़ो ज्ञान नाम की संस्था भी काम रही है। ये संस्था गणित और विज्ञान को लेकर कई किट बना चुकी है। इस संस्था का मानना है कि किसी भी विषय को व्यवहारिक रूप से समझाया जाना ज़रूरी है। प्रायोगिक तौर पर बातों को सिखाने की शुरुआत बचपन से ही होनी चाहिए। अपने कार्यक्रम के सिलसिले में जब मैं इस संस्था के एक केन्द्र पर पहुंची तो मुझे तीन क्लास नज़र आई। क्लास के नाम चमकता सूरज और टिमटिमाते तारे और कुछ ऐसे ही थे। पहली क्लास में नन्हे मुन्ने ब्लॉक्स छुपा रहे थे। ये केवल उतने ही ब्लॉक छुपाते हैं जितने कि मैडम के बड़े से डायस को उछालने पर आते हैं। बच्चे अंकों को समझते है वो जानते हैं कि दो क्या है और चार क्या। हां लेकिन, वो अभी लिखना नहीं जानते हैं। यहां अमूर्त गणित को मूर्त रूप से दिमाग़ में सहेजने का काम चल रहा है। स्कूल एक सीधी खड़ी बिल्डिंग में था, सो ऊपर पहुंचने पर हमने देखा कि अलग-अलग उम्र के बच्चे एक साथ काम कर रहे हैं। एक बच्चा स्कैच कर रहा है तो दूसरा उसमें रंग भरेगा और तीसरा उसके बारे में लिखेगा। अलग-अलग उम्र के बच्चों को यूं एक साख देखकर आश्चर्य हुआ। मुझे स्कूल की एक शिक्षक ने समझाया कि इनमें शामिल बड़े बच्चे स्कूल ड्रॉप आउट है। और, यहां सामान्य स्कूलों से इतर साथ काम करना सिखाया जाता है। उनका मानना है कि हमें आगे चलकर साथ मिलकर ही काम करने होते हैं लेकिन, स्कूलों में सिखाया जाता है कि कैसे अलग और अकेले काम किए जाए। प्रतिस्पर्धा इतनी ज़्यादा होती है कि हम साथ काम करना भूल ही जाते है। जबकि यही वो समय है जब साथ रहना आसानी से सीखा जा सकता है। इसके बाद हम पहुंचे सबसे ऊपर बड़े बच्चों की क्लास में जहां बच्चे एक ऐसा प्रयोग कर रहे थे जोकि साल भर तक चलेगा। दिन और रात के अनुपात को समझने का प्रयोग। इसके लिए उन्हें साल भर तक सुबह उठकर सूरज के उगने का समय और शाम को ढलने का समय नोट करना था। इस प्रयोग से जो वो सीखेंगे वो उसे ज़िंदगीभर याद रखेंगे। और, यही तो होती है असल शिक्षा। जोड़ो ज्ञान अपने स्तर पर ज्ञान को सरल और सुगम तरीक़े से जोड़ने का काम कर रहा है। वो सरकारी स्कूलों में इस तकनीक को लागू करवाना चाह रहा है। ये सब बस इसलिए कि बच्चे पढ़े आगे बढ़ने के लिए, ज़िंदगी में उसे ढालने के लिए। ना कि बस रटने के लिए...

Wednesday, April 13, 2011

जब साइकल से नापा दिल्ली को...

कई बार ऐसा होता है कि नौकरी करते-करते एक ऐसा वक़्त आ जाता है कि हम कुछ नए की तलाश में लग जाते हैं। वही कुछ ना मिल सकें तो कही और खोजना शुरु कर देते है। परिवर्तन की चाह स्थाई भाव की तरह हमारे साथ चिपका रहता है। लेकिन, मैं हमेशा से यथास्थिति को बनाएं रखने में यक़ीन रखती हूँ। जो जैसा है वैसा ही रहे कुछ ना बदले। जैसे ही कुछ बदलाव होते हैं मैं बैचैन होने लगती हूँ। दरअसल ये मेरे अंदर का डर और आत्मविश्वास की कमी है जोकि मुझे परिवर्तन के प्रति पहले से ही डरा देती हैं। खैर, नौकरी के मामले में मेरी राय बदलाव न होने के मामले में कुछ ज्यादा है। लेकिन, न चाहते हुए भी हर बार, हर नए हफ्ते में किसी नई परिस्थिति में पड़ जाती हूँ। मेरे साप्ताहिक कार्यक्रम सुर्खियों से परे के लिए मुझे ऐसी-ऐसी ख़बरें खोजनी और करनी पड़ती है जो मुझे कुछ नया अनुभव मुफ्त ही दे जाती है। कभी मुझे संसद भवन की रखवाली में लगे लंगूर से हाथ मिलाने पड़ता है, तो कभी गधों के लिए काम करनेवाले अंग्रेज़ जोड़े के साथ घूमना और कभी तो कपड़ों की धुलाई के नए तरीक़ों की छानबीन करनी पड़ जाती हैं। कइयों को लगता है कि मैं भाग्यशाली हूँ कि मुझे ऐसे मौक़े मिलते हैं लेकिन, मुझ जैसी आलसी के लिए ये मौक़े बहुत ही भारी होते हैं। और, आसली होने के बावजूद मेरे कामचोर न होने की वजह से हर बार ऐसी स्टोरी से मुझे दो चार होना ही पड़ता हैं। बात कुछ 15 दिन पहले की है जब मुझे डेल्ही बाय सायकल के बारे में जानकारी हुई। कुछ विदेशी जो कुछ साल से दिल्ली में रह रहे हैं, दिल्ली की सैर करवाते हैं। सैर का तरीक़ा ऐसा जो कोई भी पारंपरिक भारतीय पर्यटक कभी ना अपनाएं। साइकल पर सवार होकर ये लोग पर्यटकों को दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों की सैर करवाते है। जैसे कि पुरानी दिल्ली का वो इलाक़ा जिसे शाहजहां ने बसाया था या फिर यमुना के किनारे बसी दिल्ली या फिर अंग्रेज़ों के समय बसी दिल्ली। ये सभी सुबह-सुबह एक निश्चित समय पर पहुंचकर पर्यटकों को साइकल थमा देते हैं और आगे-आगे साइकल चलाते जाते हैं और पीछे पर्यटक। मैं भी इस टूर को शूट करने के लिए सुबह 6 बजे पहुंच गई पुरानी दिल्ली के डिलाइट सिनेमा के सामने। वहां मिली स्तासा। स्तासा इस ग्रुप की एक गाइड है। उसने हमें बताया कि कैसे वो पिछले पांच महीने से भारत में केवल इस ग्रुप के साथ इंटर्नशीप के लिए है। इसकी शुरुआत जैक ने की है जोकि नीदरलैण्ड से है। वो दिल्ली में नीदरलैण्ड के एक अखबार के संवाददाता के रूप आए थे। लेकिन, कुछ नए की चाह में उन्होंने दिल्ली को साइकल पर घुमाने की शुरुआत की। सुबह-सुबह पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में मैं साइकल चलाऊंगी ये मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन, मैं चला रही थी। जिस दिल्ली में 6 साल से कुछ नहीं चलाया और शूट के चक्कर में उसे पूरा नाप लिया। उस दिल्ली में मैं साइकल चला रही थी, वो भी कुछ 15 साल बाद। मैं और मेरा कैमरामैन हम दोनों ने पूरे 11 किलोमीटर के टूर में कभी उनका पीछा किया तो कभी उनके आगे चले। मेरे कैमरामैन साइकल से ही ऑफिस आते हैं, तो साइकल नहीं लेकिन उसे चलाते हुए कैमरा हैंडल करना ज़रूरत भारी पड़ा होगा। पुरानी दिल्ली की गलियों में यूं साइकल पर देखकर लोग तो हमें कम चौंके मैं खुद ही अपने आपमें चौंकी हुई सी थी। स्तासा ने हमें तुर्कमान गेट, पुराने घर और मंदिर दिखाए। हालांकि इनके बारे में उसकी जानकारी मुझे कुछ कम लगी। कई बार मुझे उसे सही करना पड़ा। कामकाज स्पष्ट बोलना कितना ज़रूरी और हिम्मतवाला काम है ये मैंने उससे सीखा। स्तासा ने हमारे टूर के दो पर्यटकों को आधे टूर से ही लौटा दिया क्योंकि वो साइकल नहीं चला पा रहे थे। बिना किसी लाग लपेट के उसने कहां और वो दोनों चले भी गए। कोई भारतीय होता तो पैसे देने का रौब जमाते और साइकल ना आने की बात को छुपाने के पीछे दलील देते और वही झगड़ने लगते। स्तासा ने चांदनी चौक, फतेहपुरी मस्जिद, लाल किला और जामा मस्जिद भी दिखाई। इन्हें कई लोगों ने कई बार देखा होगा। लेकिन, जैसे मैंने देखा और जैसा महसूस किया वो यूनिक था। चांदनी चौक पर साइकल चलाना या फिर लाल किले के सामने भीड़ भाड़वाली सड़क को साइकल से क्रास करना। इस टूर में हमने नई दिल्ली को भी देखा और बदहाल यमुना नदी के साथ गंदी गौशालाओं को। इस सबके बीच कई बार ये महसूस हुआ कि अंग्रेज भारत गंदगी देखने ही आते हैं। इन टूर में भी अधिकतर अंग्रेज़ होते हैं। क्योंकि उन्हीं को भारत के इस चेहरे में दिलचस्पी है और वही है जोकि घूमने के उद्देश्य से लगातार तीन घंटे साइकल चला सकते हैं। हमारे लिए तो घूमने का अर्थ ही आराम होता है। मेरे लिए इस टूर को शूट करने से बड़ा अनुभव रहा यूं साइकल चलाना और दिल्ली के गली कूचों से गुज़रना। जहां कुछ लोग मुस्कुराते मिले तो कुछ छेड़ते और फब्तियाँ कसते। दो दिन तक उनका पीछा करने के बाद तीसरे दिन सुबह-सुबह में जल्दी ही उठ गई और लगा कि जैसे फिर चली जाऊं। मेरी यही तो परेशानी है बदलाव से डरती हूँ और अगर कुछ बदल जाएं तो बस उसी में ढल जाती हूँ...

Monday, March 7, 2011

मरने का हक़...

इंसान का स्वभाव एक मुश्किल पहेली है। कौन, कब, कैसे, क्या करेगा कोई नहीं कह सकता है। एक भी ऐसा मुद्दा नहीं जिस पर सबकी राय एक सी हो। कुछ लोग अतिवादी होंगे तो कुछ उदारवादी। अरुणा शानबाग के लिए इच्छा मृत्यु सही है या ग़लत इस पर भी लोगों की कई तरह की राय है। हालांकि अपने जीवन पर अरुणा कोई राय व्यक्त करने लायक़ नहीं। अरुणा को सालों से संभाल रहे अस्पताल के कर्मचारी उसे ज़िंदा देखना चाहते हैं, तो दूसरी ओर उसके जीवन को शब्दों में उकेर चुकी लेखक उसे पीड़ा से मुक्ति दिलाना चाहती है। अरुणा की ख़बर सुनकर गुज़ारिश याद आ गई। फ़िल्म में ईथन मैक्सरेगस ख़ुद अपने लिए मृत्यु मांगता है जोकि उसे नहीं दी जाती हैं। अपनी ज़िंदगी शान से जी चुके ईथन को ये महसूस होता है कि कोई नहीं है जो उसके दर्द को समझता हो। ईच्छा मृत्यु एक ऐसा विषय है जिस पर कभी एक राय तो क्या किसी एक व्यक्ति की हमेशा एक राय नहीं हो सकती हैं। इंसान अगर ख़ुद किसी असह्य पीड़ा से गुज़र रहा हो तो वो रोज़ाना यही प्रार्थना करता है कि हे ईश्वर ! मुझे उठा ले। लेकिन, वही अगर उस जगह उसका बच्चा हो तो वो पूरे समय ईश्वर से उसकी सलामती और बेहतरी की दुआ मांगता हैं। एक भी बार उसके मुंह से उसके लिए मौत की बात नहीं निकलती हैं। वैसे भी हमारी ईच्छाएं समय और परिस्थितियों पर सौ फ़ीसदी निर्भर करती हैं। आज हम जिसे चाहते हैं कल उसे नकारते हैं। या आज जो हमें नापसंद है, कल वो ही हमारा चहेता होता हैं। ऐसे में मौत की कामना करना कहाँ तक सही होगा। मेरे चाचा की दो हफ्ते पहले कैंसर से मौत हो गई। भाई-बहनों में सबसे छोटे वो पिछले पाँच साल से पल-पल मर रहे थे। मन ही मन उनकी इस परिस्थिति से दुखी होकर हर कोई उनके स्वस्थ होने की कामना करता था। लेकिन, अंतिम समय में बदतर हो चुकी उनकी हालत को देखकर सभी उनके लिए मौत ही मांग रहे थे। अपने अंत समय तक इंसान के मन में जीने की प्रबल इच्छा होती है। आखिरी सांस तक हम जीना चाहते हैं। लेकिन, कई बार ये जीवन मौत से बदतर हो जाता है। ऐसे में जीने के अधिकार के साथ क्या मरने के अधिकार का भी होना ज़रूरी नहीं है? ये कहा जा सकता है कि इसका ग़लत इस्तेमाल भी हो सकता है लेकिन, फिर बस वही बात कि ऐसी कौन सी चीज़ है जिसका सही और ग़लत दोनों तरीक़ों से इस्तेमाल न हो रहा हो। मेरी एक सहकर्मी की दलील है कि जो लोग इलाज कराने में अक्षम है उन्हें इस बात की छूट होनी चाहिए कि अपने या अपने परिवार के किसी सदस्य के लिए इच्छा मृत्यु मांग सकें। लेकिन, क्या पैसे की कमी किसी की ज़िंदगी तय कर सकती है? क्या इसका मतलब ये हुआ कि पैसा है तो जीओ नहीं तो मर जाओ। इन सबके बीच एक और बात सामने आई। मेरे एक ऐसे ही बिस्तर पर पिछले कई साल से पड़े लड़के के उदाहरण पर मेरी सहकर्मी ने झट से कहा कि- उसके परिवारवाले उसे इसलिए नहीं मार रहे है कि वो परिवार का एकमात्र लड़का हैं। मेरा खून खौल गया। मुझे लगा कि जैसे उस लड़के माता-पिता के प्यार पर मतलब का चांटा पड़ गया हो। वही ये भी हुआ कि बच्चियों की जन्म लेते ही हत्या कर देना भी फिर मर्सी किलिंग के तहत आने लगेगा। क्या मर्सी किलिंग की आड़ में छुपकर लोग हत्याएं भी कर सकते हैं। अरुणा के मामले में ही अरुणा की ये हालत करनेवाला इंसान सात साल जेल में बिताकर कही आराम की ज़िंदगी जी रहा है। अपनी कुछ सेकेंड की हवस को शांत करने के लिए उसने एक पूरी की पूरी ज़िंदगी को बर्बाद कर दिया। गुनाह करनेवाला तो आसानी से छूट गया लेकिन, जिस पर बीती वो आज तक सज़ा भुगत रहा हैं। मर्सी किलिंग एक ऐसा विषय है जिस पर किसी एक या दो या एक दर्जन केस के ज़रिए भी फैसला या एक नियम बनाना असंभव है। क्योंकि हर इंसान के लिए ज़िंदगी और मौत दोनों के प्रति सोच अलग-अलग समय पर अलग-अलग है...

Tuesday, February 8, 2011

स्त्रीलिंग होने का अर्थ...

दिल्ली में चलनेवाली मैट्रो ट्रेन में महिलाओं के लिए आरक्षित अलग कोच कई पुरुषों को ग़लत लगता है। पुरुषों की दलील है कि महिलाएं तो कंधे से कंधा मिलाकर चलती है। तो फिर क्यों अब वो अलग कोच चाहती है। महिलाओं की बराबरी पुरुषों को कितनी पसंद है और कितनी नापसंद इसका जवाब तो कोई पुरुष ही दे सकता है लेकिन, महिलाओं की हिम्मत को उनकी अकड़ और उनकी परेशानियों को उनकी ढाल माननेवाले पुरुषों के लिए ही एक सर्वे हुआ है। अगर वो चाहे तो इस लेख को पढ़ने के बाद महिलाओं की तकलीफ़ों को समझने और सही मानने की एक नए सिरे से कोशिश शुरु कर सकते हैं...

गैर सरकारी संगठनों की ओर से हुए एक सर्वे के मुताबिक़ भारत में केवल 12 फ़ीसदी महिलाओं को ही माहवारी के दौरान साफ़-सुथरे नैपकिन उपयोग के लिए मिल पाते हैं। ये आंकड़ा चौंकानेवाला है। कम से कम मेरे लिए। शहरों में रहनेवाली और जीने के लिए ज़रूरी चीज़ों को आसानी से पा लेनेवाली मुझ जैसी लड़की के लिए ये आंकड़ा चौंकाने के साथ डराने का भी काम कर रहा है। देश की मात्र 12 फ़ीसदी महिलाएं नैपकिन का इस्तेमाल कर पाती है। संभव है कि ये महिलाएं मुझ जैसी शहरी ही हो। मतलब कि गांव और कस्बों में हर महीने महिलाओं को चार से पाँच दिन बद से बदतर हालात में गुजारने होते होंगे। बेहतरीन क्वालिटी और हाईजीनिक नैपकिन्स के इस्तेमाल के बाद भी कई बार दर्द और परेशानी जब सहन नहीं होती है तब उनकी क्या हालत होगी जो कपड़े या फिर पॉलीथीन का इस्तेमाल करती हैं। इन दिनों में साफ सफाई के साथ शारिरीक तौर पर आराम बेहद ज़रूरी माना जाता है। ऐसे में सर्वे के मुताबिक़ कई महिलाएं इस दौरान राख या रेत का भी प्रयोग करने के लिए मजबूर है और काम उतना ही जितना रोज़ाना होता है। राख या रेत के इस्तेमाल से कई महिलाओं को घाव हो जाते हैं और कई तरह की बीमारियाँ भी हो जाती हैं। गांवों में महिलाओं को इस दौरान अछूत मान लिया जाता है। कोई उन्हें छूता तक नहीं है और न ही उन्हें किसी मंगल कार्य में शामिल होने दिया जाता हैं। माहवारी के दौरान घर के काम या किचन में घुसने की मनाही के पीछे मूल वजह महिला को आराम देना और स्वच्छता को बनाए रखना ही होगी, जो आगे चलकर रूढ़ीवादी सोच में बदल गई। गांवों से इतर शहर में रहनेवालों के लिए तो टीवी पर हर ब्रेक के दौरान आनेवाले सैनेटरी नैपकिन के विज्ञापन को देखकर तो ये आभास होता है कि अब तो ये एक बेहद सामान्य सी बात है कि सभी को इसके बारे में मालूम है और महिलाएं अब इसका इस्तेमाल भी करती हैं। लेकिन, सच तो ये है कि महिला के लिए नैपकिन खरीदना परिवार के अन्य सदस्यों को एक खर्चा लगता है, उसकी मूल ज़रूरत नहीं। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने मिलकर पुराने कपड़ों को जोड़कर नैपकिन बनाने की शुरुआत की है जिसकी क़ीमत 1 रुपए प्रति नैपकिन पड़ेगी। लेकिन, जहाँ महिला को पहनने को कपड़े और खाने के लिए पैसे ना हो वहाँ एक रुपए का नैपकिन भी बहुत बड़ी और मंहगी बात हैं। कई बार मुझे लगता है हम सच में आगे बढ़ रह रहे हैं। देश की महिलाएं पुरुषों से कन्धा मिलाकर चल रही है। बैंकों की सीईओ महिलाओं की मुस्कुराती तस्वीरों को देखकर लगता है कि महिलाएं अब किसी बात में पीछे नहीं। लेकिन, इन्हीं ख़बरों के बीच छुपी ये एक कॉलम की ख़बर सर से पैर तक एक झुरझुरी फैला देती है।

Wednesday, January 26, 2011

अपना इंसाफ, अपने हिसाब...

lH; lekt esa fgalk dk dgha dksbZ LFkku ugha gS! ysfdu blh lH; lekt esa xqukgxkjksa dh Hkh dksbZ txg ugha gS! eSa ckr dj jgk gwa eaxyokj dks xkft;kckn dh fo”ks’k vnkyr esa gq, ?kVukdze dh! vk#f’k ekeys dh Dykstj fjiksVZ ij lquokbZ ds fy, tk jgs jkts”k ryokj ij tkuysok geyk gqvk! ryokj ds flj vkSj maxfy;ksa esa pksV yxh! ysfdu ftl rjg ls geyk fd;k x;k------ ;s dguk T;knk lgh gksxk fd oks cky&cky cp x,! irk pyk fd geykoj cukjl dk ogh mRlo “kekZ gS ftlus #fpdk fxjgks=k ls NsM+NkM+ ds nks’kh ,lih,l jkBkSM+ ij geyk fd;k Fkk! xkft;kckn esa gq, okd;s ds ckn lcds fnekx esa cl ,d gh ckr Fkh fd vkf[kj mRlo us ,slk D;ksa fd;k! mRlo ds firk dk dguk gS fd oks cpiu ls fnekxh :i ls chekj gS! fdlh Hkh yM+dh ;k efgyk ds lkFk dqN xyr gksrs ns[k oks viuk vkik [kks cSBrk gS! b/kj mRlo us dgk fd ekeys ds QSlys esa gks jgh nsj dh otg ls mlus ;s geyk fd;k gS! bl lcds chp gesa ;s le>uk gksxk fd mRlo dksbZ vijk/kh ugha gS! gka mlus fgalk dk jkLrk t#j vf[r;kj dj fy;k ysfdu u rks mldh jkBkSM+ ls vkSj uk gh ryokj ls dksbZ futh nq”euh Fkh!

vc ckr djrs gSa fcgkj ds iwf.kZ;ka dh tgka ds chtsih fo/kk;d jktfd”kksj dsljh dh pkj tuojh dks gR;k dj nh xbZ! #ie ikBd ftlus fo/kk;d ds lhus esa [kqdjh ?kqlsM+ nh mlus dqN eghus igys fo/kk;d ij cykRdkj dk vkjksi yxk;k Fkk! ekewyh tkap&iM+rky ds ckn fo/kk;d ij yxs vkjksi >wBs lkfcr gq, Fks! ;gka rd dh vnkyr esa [kqn #ie us Hkh vkjksi okil ys fy, Fks! fQj ,slk D;k gqvk fd #ie us fo/kk;d dh gR;k---- oks Hkh ljsvke djus dk nq%lkgl fd;k! loky ;s mBrk gS fd vxj fo/kk;d csdlwj Fks rks ukScr mudh gR;k djus rd D;ksa igqaprh! ekeyk vnkyr esa gS vkSj ogh QSlyk djsxh fd fo/kk;d dh gR;k ds ihNs ewy otg D;k Fkh! ysfdu bu rhuksa ?kVukvksa ls ,d ckr rks lkeus vk jgh gS! oks ;s fd turk dk Hkjkslk dkuwu vkSj iqfyl ls mBrk tk jgk gS! mRlo us nks’kh dks ltk nsus esa gks jgh nsjh dh otg ls jkBkSM+ ij geyk fd;k! “kk;n oks Hkh lhchvkbZ vkSj lSdM+ksa&gt+kjksa fganqLrkfu;ksa dh rjg ryokj dks gh vk#f’k dk dkfry ekurk gks--- vkSj mls yx jgk gks fd lcwrksa ds vHkko esa oks cp tk,xk! ogha ;s Hkh gks ldrk gS fd pkj ckj ls yxkrkj fo/kk;d jgs jktfd”kksj dsljh ds ncko esa #ie ikBd us eqdnek okil fy;k gks! ckr ;s Hkh lkeus vk jgh gS fd fo/kk;d dh utj mldh csfV;ksa ij Fkh! vkSj tc #ie dks ;s yxk fd mlds lkFk rks ukbalkQh gqbZ gh vc mldh csfV;ka Hkh [k+rjs esa gSa rks mls iqfyl vkSj dkuwu ls csgrj fo/kk;d dh gR;k dk jkLrk gh utj vk;k gks! dgus dk ewy Hkko ;s gS fd ns”k ds lkaoS/kkfud uk gksxk fd vkf[kj bu ?kVukvksa ds ihNs otg D;k gS! vxj vnkyr vkSj iqfyl ij ls yksxksa dk de gksrk fo”okl bu ?kVukvksa dh otg gS rks ;s ns”k ds vfLrRo ds fy, cM+k [krjk cu ldrk gS! ,sls esa gj dksbZ viuk balkQ [kqn djus ds fy, [kM+k gks tk,xk vkSj iwjs eqYd esa vjktdrk dk ekgkSy cu tk,xk! blds fy, vijkf/k;ksa dks tYn ls tYn ltk nsus dh t#jr gS pkgs oks fdlh Hkh in ij D;ksa uk gks!

Wednesday, January 19, 2011

जेसिका, सबरीना या मैं...

नो वन किल्ड जेसिका देखी। फ़िल्म अच्छी थी लेकिन, देखते वक़्त उत्साह की कमी रही। केस के बारे में सब कुछ मालूम था और फ़िल्म का अंत फ़िल्म शुरु होने के पहले से मालूम था। विद्या बालन, रानी मुकर्जी, मायरा सभी की एक्टिंग बढ़िया रही। रानी मुकर्जी के किरदार से एक पत्रकार होते हुए भी रिलेट नहीं कर पाई। महिला टीवी पत्रकार को जिस ढर्रे पर हमेशा हर फ़िल्म में बताया जाता हैं वैसी शायद पांच प्रतिशत ही होती हैं। मैं उन पांच प्रतिशत में नहीं हूँ, शायद इसलिए भी मज़ा नहीं आया। खैर, फ़िल्म में जो मुझे ख़ास लगा वो था सबरीना का संघर्ष। सबरीना को मैं जेसिका की बहन के रुप में ही जानती हूँ, जैसे कि सब जानते हैं। ऐसे में फ़िल्म में दिखाई दी सबरीना अगर असल से दस फ़ीसदी भी मिलती जुलती है तो सच में उसका संघर्ष दिल दहला देनेवाला है। पूरी फ़िल्म में मुझे यही लगता रहा कि जेसिका या सबरीना की जगह मैं या मेरी दोस्त या बहन भी हो सकती थी या हो सकती हैं। ऐसे में इस समाज में रहना और सच और इंसाफ के लिए लड़ना कितना मुश्किल हैं। सच कहूँ तो मुझे इस फ़िल्म को देखकर डर लगा। जो डर पिछले पाँच साल से इस महानगर में रहते और काम करते हुए नहीं लगा। हर क़दम, हर मोड़ पर आपको शातिर होना ज़रूरी हैं। हार ना मानने से ज़्यादा ज़रूरी वही है। फ़िल्म में भी यही दिखा। सबरीना ने हार नहीं मानी लेकिन, उससे कुछ नहीं हुआ। मीडिया के शातिरपन ने ही अपराधियों को पकड़वाया और इंसाफ दिलवाया। सच कहूँ तो फ़िल्म के अंत में मेरे कई बार आंसू बहे। ये आंसू फ़िल्म की कहानी या कलाकारों की एक्टिंग के लिए न होकर उस डर के थे जो बार-बार मुझे ये सोचने पर मजबूर कर रहे थे कि सबरीना या जेसिका की जगह मैं भी हो सकती थी या हो सकती हूँ। मैं फ़िल्म देखकर भी फ़िल्म की समीक्षा नहीं कर सकती हूँ। क्योंकि फ़िल्म को मैं फ़िल्म के नज़रिए से देख ही नहीं पाई। अंत में बस इतना कि सबरीना वाकई हिम्मती हैं और उन्होंने जो किया सबके बस की बात नहीं।

Wednesday, January 12, 2011

माँ से मायका...

आई के बारे में मेरा एक बहुत बड़ा भ्रम आज टूट गया। अपनी 78 साल की लंबी ज़िंदगी में लगातार बीमारियों से लड़नेवाली मेरी आई को देखकर मुझे हमेशा यही अहसास होता था कि उनमें जीवन को जीने की ललक बाकियों से कहीं ज़्यादा हैं। ना जाने कितने ऑपरेशनों से गुज़र चुकी मेरी आई हमेशा खुश रहती। समय पर दवाई खाती, डॉक्टर के पास जाती और अपनी हरेक छोटी से छोटी परेशानी को गंभीरता से लेती। इतना ही नहीं अपनी इन बीमारियों के लिए लोगों को भी गंभीर बनाए रखती। मैंने अपनी इस 27 साल की ज़िंदगी में उनसे ज़्यादा ख़ूबसूरत महिला नहीं देखी। एकदम बेदाग गोरे चेहरे पर कुमकुम की बड़ी-सी लाल बिन्दी और उल्टी गूंथी चोटी। हमेशा कॉटन की साड़ी में लिपटी मेरी आई को देखकर हमेशा मैं यही कहती थी कि जवानी में तो कहर ही बरपाती होगी। मेरी आई हमेशा मुस्कुरा कर रह जाती। मेरी आई मेरे दादा की चिंता भी करती और उन्हें ताने भी सुनाती रहती। मेरे पापा की माने तो उनकी सभी बेटियों ने उनके इस गुण को आत्मसात् किया है। हरेक गलती के लिए तुम्हारे दादा ही ज़िम्मेदार हैं। आई अपने उसूलों की पक्की थी। हद से ज़्यादा प्यार करनेवाली मेरी आई महीने के उन पाँच दिनों में जल्लाद बन जाती थी। किसी को नहीं छोड़ती। ऐसे में तो देवास जाने में ही जान सूख जाती थी मेरी। मेरी मम्मी मेरी आई की फोटो कॉपी है हर मामले में। भयानक रूप से डायिबटीज़ से पीड़ित मेरी आई को हमेशा याद रहता था कि कौन सी मिठाई घर में बची हुई और कहाँ रखी हुई हैं। उनकी एक बात जो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद थी वो थी उनका चीज़ों, लोगों और परिस्थितियों को स्वीकार कर लेना। वो बहुत ही आसानी से ढल जाती थी। समय के साथ चलना वो जानती थी। मुझे लगता था कि यही वो वजह है जो आई को ज़िंदा रखे हुए हैं। लेकिन, मैं ग़लत थी। आई को दादा ने ज़िंदा रखा था। दादा के जाने के चार दिन बाद ही आई भी चली गई। चार दिन भी इसलिए क्योंकि शुरुआती तीन दिनों तक तो वो समझ ही नहीं पाई कि दादा चले गए हैं। आईसीयू में ऑक्सीजन मास्क लगाए पड़ी आई को बस यही लगता कि दादा घर पर हैं। बार बार पूछती कि दादा ने रोटी खाई कि नहीं या वो मुझे देखने आए थे क्या। वो शायद ज़िंदा ही दादा के दम पर थी। वो जीना ही चाहती थी दादा के लिए। दादा अंतिम समय में चाहते थे कि वो आई को मरते देखे। वो नहीं चाहते थे कि आई कष्ट अकेले भुगते। लेकिन, वो ये नहीं जानते थे कि वो ही थे जिनमें आई की जान बसती थी। आई-दादा जीवनभर साथ रहे और आज भी साथ ही हैं। आखिर में बस मम्मी कि एक बात याद आती हैं जो वो हमेशा बोलती रहती थी - माँ से ही मायका है। जिस दिन वो गई मायका गया। आज मुझे भी यही महसूस हो रहा है कि देवास मेरा ननिहाल मेरी आई यानि कि मेरी नानी से ही था...

Monday, January 10, 2011

इस्तीफ़ा...

ज़िन्दगी के चार दशक परिवार के मुखिया के पद पर बिताकर अंततः उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अपने दो सौ साल पुराने घर में 83 साल तक रहनेवाले उस वृद्ध ने अपनी हरेक ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया। बचपन में ही पिता की मौत के बाद अपनी माँ के साथ मिलकर उन्होंने अपने सात भाई बहनों की पढ़ाई से लेकर शादी तक की ज़िम्मेदारी निभाई। अपने दादाजी को भी सालों तक संभाला। अपनी नौकरी में मिले हेडमास्टर के पद को पूरी ज़िम्मेदारी से निभाया। इन ज़िम्मेदारियों को निभाने में उनकी पत्नी ने उनका पूरा साथ दिया। ये बात अलग है कि मानसिक रूप से उनकी सहभागी उनकी पत्नी जीवनभर शारिरीक रूप से बीमार ही रही। अंतिम समय में भी संयोग कुछ ऐसा बना कि आईसीयू में भर्ती अपनी पत्नी के साथवाले बिस्तर पर आकर लेटने के बाद ही उन्होंने प्राण त्यागे। ये पति-पत्नी का जोड़ा मेरे मन में ऐसा था जो कभी बिछड़ नहीं सकता था। जो कभी मर नहीं सकता था। सच में, मैं हमेशा यही सोचती थी कि आई-दादा को कभी कुछ नहीं होगा। खैर, वो चले गए। अपने पीछे पाँच बेटियों और एक बेटे को उनके भरे-पूरे परिवार के साथ। उन्होंने न सिर्फ़ अपने नाती- नातिनों और पोते-पोतियों को बढ़ते देखा बल्कि उनकी शादियाँ और उनके बच्चों को स्कूल कॉलेज जाते भी देखा। हेडमास्टर की कमाई में पाँच बेटियों की शादी की। अमीर तो नहीं लेकिन, सुयोग्य वर उनके लिए खोजे। पैसे से ज़्यादा प्राथमिकता व्यवहार और स्वभाव को दी। उनके ही एक दामाद को पूरे खानदान ने इसलिए पसंद किया क्योंकि वो इनकम टेक्स में नौकरी करता था। लेकिन, शादी से पहले उसके नौकरी छोड़ देने और एक पीआरओ की नौकरी करने पर भी वो विचलित नहीं हुए। उन्हें दामाद की ईमानदारी दिखी कि उसने नौकरी छोड़ने की बात को छुपाया नहीं। हाँ वो कई बार समाज के आगे झुके भी। कई बार समाज के दबाव में आकर बच्चों की मर्ज़ी के खिलाफ फैसले भी लिए जोकि उनके बच्चों ने माने भी। शायद ऐसे में नई पीढ़ी की मन मर्ज़ी ने उन्हें बहुत दुखी कर दिया। हमेशा मुखिया होने के ताने फैसले करने और उन्हें सुनानेवाले को ये बर्दाश्त नहीं हुआ कि कोई उनके आगे बोले या उनकी बात ना माने। यही वजह है कि अपने अंतिम दिनों में वे बहुत दुखी रहने लगे थे। मन ही मन किसी शोक में घुलने लगे थे। वही जीवनभर बीमार रही उनकी पत्नी शरीर से भले ही कमज़ोर हो लेकिन मन की पक्की निकली। आज सोचती हूँ तो लगता है कि अगर ऐसा ना होता तो इतनी बीमारी के साथ कोई जी ही नहीं सकता हैं। दादा जहाँ मन के विपरीत होनेवाले हरेक परिवर्तन से विचलित और परेशान रहने लगे, वही आई उस हरेक परिवर्तन के साथ खुद को भी बदलती गई। जो जैसा मिला उसमें खुश होती गई। पिछले तीन साल से मैं आई और दादा को आसपास बिस्तर डाले बीमार एक दूसरे को ताकते हुए देख रही थी। हर सांस पर दादा को इस बात की चिन्ता सताती की साथवाले बिस्तर पर पड़ी उनकी पत्नी तो ठीक है ना। कुछ दिनों से उन्होंने आई (उनकी पत्नी) के मरने के लिए दुआएं मांगनी शुरु कर दी। वो नहीं चाहते थे कि वो उन्हें यूँ ही बीमार छोड़ अकेले चले जाए। मैंने उन्हें जब भी देखा एक रिटायर हेडमास्टर की ठसक के साथ देखा। मेरे जीवन के वो एकमात्र इंसान जिन्हें मैंने लंगोट बांधते देखा हैं। हमेशा सफारी में रोज़ माता की टेकरी चलकर जाते। एक दम फीट। किसी तरह की कोई बीमारी नहीं कोई परेशानी नहीं। शायद नई पीढ़ी की मनमर्ज़ी और अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीने की जिद के आगे वो झुक नहीं पाए। अपने छोटे भाई-बहनों से लेकर अपने बच्चों तक किसी के मुंह से जिसने अपने लिए ऊंची आवाज़ नहीं सुनी वो अंदर ही अंदर घुटने लगे थे। दादा के जाने की ख़बर सुनकर मैं भी रोई। जब मालूम चलाकि उनकी अंतिम यात्रा में इतने लोग उमड़े थे कि मोहल्ले में पैर रखने की जगह नहीं थी तो मन ही मन गर्व भी महसूस हुआ। दादा के जाने का दुख तब सबसे ज़्यादा होता है जब मैं आई के बारे में सोचती हूँ। ऑक्सीजन मास्क पहने बिस्तर पर पड़ी दुनिया की सबसे सुन्दर मेरी आई कभी दादा की याद में रोती हैं तो कभी सब कुछ भूलकर दादा के रोटी खाने की चिंता करने लगती है। कभी दादा से गुस्सा हो जाती हैं कि मुझसे मिलने क्यों नहीं आए। अब ऐसा लगता है कि दादा को आना चाहिए और आई को ले जाना चाहिए। मैं हमेशा से ही आई की इस बात की कायल रही हूँ कि उनमें जीवन को जीने की ललक सामान्य से ज़्यादा है। लेकिन, अब लगता है कि आई तो तब तक ही आई थी जब तक दादा थे। मेरे दादा ने अपना जीवन पूरा जिया। एक आत्मसम्मान और ठसक के साथ जिया। लेख का अंत कैसे करूँ मुझे समझ नहीं आ रहा है। बस इतना ही कहूंगी कि मेरे दादा यानी कि नानाजी दयाशंकर रामनारायण शुक्ल ने अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक़ जी और जब लगा कि अब उन्हें नहीं जीना वो चले गए। और, अब मैं बस इतना चाहती हूँ कि मेरी आई यानि कि मेरी नानीजी श्रीमती अन्नपूर्णा दयाशंकर शुक्ला को हम उनके दादा के बिना भी संभाल पाए।

Friday, October 22, 2010

रिश्वत देना और लेना एक कला है !

भगवान की पूजा नहाने के बाद ही की जाती है। मंदिर में जाने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारे जाते हैं। रात में सोने से पहले भगवान का नाम लेना चाहिए। या फिर रात को दही नहीं खाना चाहिए। ये कुछ ऐसी बातें हैं जो कि मैं पूरी तरह से निभाती हूँ। भले ही मैं इसे करने की वजहों के बारे में कुछ ना जानती हूँ। दरअसल मैंने कभी ये जानना ही नहीं चाहा कि हम ऐसा क्यों करते हैं। शायद यही हालत दुखुराम की भी होगी या फिर कहा जाए कि मुझसे भी बुरी होगी। क्योंकि अपनी ऐसी सोच और आदतों में ही उसने ये भी जोड़ रखा है कि कोई भी काम बिना रिश्वत दिए बिना नहीं होता हैं। दुखुराम छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले का रहनेवाला है। और, एक ख़बर के मुताबिक़ उसने भरी अदालत में जज को तीन सौ रूपए की रिश्वत देकर केस का फैसला जल्दी करने को कहा। दुखुराम की इस हरकत के चलते अदालत में मौजूद सभी लोग सकते में आ गए और जज ने उसे रिश्वत देने के जुर्म में जेल की सज़ा सुनाई। बाद में ये मालूम चला उस भोले से गांववाले को उसके साथियों ने समझाईश दी थी कि, बिना रिश्वत के कोई काम नहीं होता है। इसी के चलते दुखुराम ने दुखी होते हुए अपने कुल जमा जेब के पैसे जज साहब के सामने रख दिए। छह साल से सम्पत्ति के मामले में उलझे हुए दुखुराम की ये छोटी सी हरकत हमारे देश के भ्रष्ट तंत्र को दर्शाती है। जहां हमने रिश्वत देने और लेने को कुछ इस तरह से अपनी ज़िंदगी में समाहित कर लिया है जैसे कि सांस लेते हैं। दुखुराम ने बढ़े ही अफसोस के साथ ये कहा कि पैसे देने पर भी हमारा काम नहीं हुआ। दरअसल दुखुराम ये तो समझ गया कि पैसे के बिना फैसला नहीं आया है लेकिन, वो ये नहीं समझ पाया कि पैसे दिए कैसे जाते है। रिश्वत देना ही केवल काम को करवाने के लिए काफी नहीं है। असल में रिश्वत देना और लेना दोनों ही एक कला है। एक ऐसी कला जिसे सालों की मेहनत से तराशा जाता हैं। साथ ही ये एक ऐसा गुण भी है जो कि आपके खून में होना ज़रूरी हैं। बहुत आश्चर्य की बात है कि ये कला और इससे जुड़े कलाकार हमारे बीच में मौजूद हैं लेकिन, फिर भी इसे व्यवस्थित रूप से सिखाने के लिए कोई संस्था नहीं हैं। ये एक ऐसी कला है जो कि फिलहाल घराना पंरपंरा के अनुसार चल रही है। बाप से बेटे को और सीनियर से जूनियर को। लेकिन, ऐसे में इसे ना समझनेवाले दुखुराम जैसे लोग पिस जाते हैं। जोकि रिश्वत कला के बारे में अपनी अधकचरी जानकारी के चलते पैसा भी गंवा देते हैं और ऊपर से सज़ा भी भुगतते हैं। अब ज़रूरत है कि रिश्वत की कला की बारीकियों को आम जनता को भी सिखाया जाए...

Monday, October 4, 2010

लेडीज़ ओनली...

सुरक्षा की भावना इंसान में एक अलग तरह की ऊर्जा का संचार कर देती है। आज़ादी के सही मायने शायद तब ही समझ में आते है जब हमें उस आज़ादी में इस बात की ग्यारंटी मिल जाए कि हम सुरक्षित हैं। आज सुबह जब रूम से ऑफिस जाने के लिए निकली तो मैट्रो की भीड़ और परेशानी से मन परेशान नहीं था। दो अक्टूबर से दिल्ली मैट्रो में पूरी एक बोगी महिलाओं के आरक्षित की गई हैं। फिलहाल ये ट्रायल है। महिलाओं की बोगी में पुरुष न चढ़ पाए इसके पूरे इंतज़ाम भी है। बोगी में भीड़ इतनी ही थी जिसमें आप आसानी से खड़े हो सकें। अगर भीड़ बढ़ी भी तो इस बात को लेकर मैं निश्चिंत हूं कि इस भीड़ में भी मुझे जो धक्का लग रहा है वो जानबूझकर मारा गया या फिर कोई भीड़ में मजे लेने के लिए मेरे पास नहीं खड़ा हुआ हैं। हालांकि, मैट्रो में ये भीड़ कुछेक समय पहले सी ही बढ़ी हैं। और आज तक मैट्रो में इस तरह की घटना की कोई ख़बर भी नहीं आई हैं। फिर भी मैट्रो की ओर से भीड़ में महिलाओं को सुरक्षित करने के लिए शुरु की गई ये पहल स्वागत योग्य है। इस अलग बोगी के होने से केवल मेरे लिए भीड़ का डर तो खत्म हुआ ही है लेकिन, जो सबसे बड़ी बात है वो है सुरक्षा की भावना। सोचिए कैसी विडम्बना है कि जिस समाज में हम महिला पुरुष मिलकर रहते हैं उसी समाज में हम पुरुषों से अलग होकर सुरक्षित महसूस करती हैं। हमारे घर में, ऑफिस में, स्कूल में, कॉलेज में हर जगह पुरुष मौजूद हैं। हम उनके साथ पढ़ते हैं, काम करते हैं, जीवन के दुख से लेकर खुशी तक के लम्हों को साझा करते हैं। फिर भी हम उन्हीं के बीच कई बार असुरक्षित महसूस करते हैं। उम्मीद है कि हमारी आनेवाली पीढ़ी में महिलाओं के लिए कही से अलग कोई बोगी न हो। आनेवाली पीढ़ी की शिक्षा ही ऐसी हो कि पुरुष महिला को और महिला पुरुष को हौव्वा न समझकर अपना साथी समझे। उम्मीद है, आनेवाले समय में महिलाओं के लिए अलग बोगी न हो, एक ही साझा बोगी में महिलाएं सुरक्षित महसूस करें...

Wednesday, September 22, 2010

कृप्या यहां न थूके...

मैं राजीव चौक मैट्रो स्टेशन पर ट्रेन के इंतज़ार में खड़ी हुई थी। मेरी साथवाली लाइन में एक अंकल खड़े हुए थे। उन्होंने एक बार इधर देखा फिर उधर देखा। जेब से गुटखे का पाऊच निकाला और धीरे से उसे फाड़ा। मुंह में गुटखा डाला और धीरे से खाली पाऊच वही फेंक दिया। इसके बाद नासमझी का कुछ ऐसा अभिनय शुरु किया कि अच्छे-अच्छे अनके सामने पानी भरे। मैं उनके पास गई उस पाऊच को उठाया और उन अंकल से मैंने कहा कि आपकी ओर से मैं इसे कचरे के डिब्बे में फेंक दूंगी। उन्होंने कुछ नहीं कहा। मैंने भी उसे जेब में रख लिया और वापस लाइन में लग गई। मेरा ऐसा करना कोई नई बात नहीं है। लेकिन, बस मुझे खुद पर अफसोस हुआ कि मैं क्यों मैट्रो को सभ्यता से जोड़कर देखने लगी थी। मैं ये सोचती थी कि इस तरह की विश्वस्तरीय सवारी में लोग उसकी और अपनी इज़्ज़त के लिए ही सही इसे साफ रखेंगे। मैट्रो में दिन रात सफाई करते कर्मचारियों को देखकर ही सही लेकिन, कचरा नहीं फैलाएगे। लेकिन मैं ग़लत थी...
मेरी मम्मी से अगर मुझे कुछ विरासत में मिला है तो वो है सफाई करने की आदत। मेरी मम्मी हद से ज़्यादा सफाई पसंद है। हमेशा उन्हें घर की सफाई की चिंता रहती हैं। बिना किसी और बात या सेहत की चिंता किए वो साफ सफाई में जुटी रहती हैं। मैं भी ऐसी हूँ ये बात मुझे तब समझ में आई जब मैं उनसे अलग होकर रहने लगी। दिल्ली में अकेली रहने के बाद मुझे ये समझ में आया कि मैं तो सफाई के बारे में सामान्य से ज़्यादा सोचती हूँ। खैर, मैं मम्मी जैसी होते हुए भी कुछ अलग हूँ। मेरी मम्मी घर की सफाई के लिए चिंतित ज़रूर रहती हैं लेकिन, घर के बाहर खासकर सार्वजनिक स्थलों की सफाई को लेकर उन्हें कोई चिंता नहीं हैं। वो कचरा नहीं फैलाती लेकिन, दूसरों के फैलाने पर उनसे लड़ती भी नहीं हैं। मैं इस मामले में कुछ संवेदनशील हूँ। जब भी किसी को ऐसी जगहों पर कचरा फैलाते देखती हूँ तो कुछ न कुछ बोल ही देती हूँ। अगर बोलने की परिस्थिति न हो तो मन मसोसकर रह जाती हूँ। नहीं तो वही करती हूँ जिसका मैंने शुरुआत में ज़िक्र किया। मेरे कई दोस्त मुझे चलता फिरता कचरे का डिब्बा बोलते है। मैं हमेशा से ही इस्तेमाल के बाद कचरे को डिब्बा न दिखाई देने पर बैग में भर लेती हूँ। दोस्तों को भी फेंकने नहीं देती हूँ, अगर फेंक भी दिया तो उठा लेती हूँ और अपने पास रख लेती हूं। कइयों के लिए मैं मज़ाक का विषय हूँ लेकिन, मुझे इस बात का अफसोस नहीं...

Monday, August 23, 2010

मम्मी के साथ मत देखना

शनिवार को टीवी पर एक नया शो देखा। नाम है - मीठी छुरी... कुछ टीवी की अभिनेत्रियां बैठी थी और दो पुरुष एंकर उनसे बातें कर रहे थे। शो की टैग लाइन है मम्मी के साथ मत देखना। मम्मी साथ रहती नहीं सो सोचा कि इसे भी देख लिया जाए। ये सभी महिलाएं यहां एक दूसरे का मज़ाक उड़ा रही थी। बीच-बीच में अपना भी। थोड़ी-थोड़ी देर में सौ पुरुषों से उनके बारे में राय भी ली जा रही थी। संक्षिप्त में कहा जाए तो एक महिलाओं की किटी पार्टी को दो पुरुष मिलकर होस्ट कर रहे थे और उसका प्रसारण टीवी पर हो रहा था। शो में होनेवाली बातें कुछ नई थी। कम से कम मेरे लिए जोकि एम टीवी रोडी और स्प्लिट्सविला और न जाने क्या-क्या देख चुकी हूँ। खैर, इसमें जो बात मुझे पते की लगी वो थी इन कलाकारों की इमेज। मुझे ये जानकर आश्चर्य हुआ कि उतरन में तपस्या कि माँ का किरदार निभा रही अभिनेत्री कुंवारी है। अगर मुझसे ही पूछा जाता तो मुझे लगता कि ये तो दो बच्चों की माँ होगी। लेकिन, वो तो कुंवारी है और खूब पार्टी करती हैं। ऐसी ही कई बातें कइयों के बारे में मालूम चली। यही वजह है कि सौ पुरुषों की महिलाओं के बारे में राय एकदम ग़लत साबित हो रही थी। दरअसल हम जो टीवी पर देखते हैं उसकी छाप हमारे मन पर इतनी गहरी होती है कि हम असलियत उसी को मान लेते हैं। इस शो को देखने के बाद कुछ नया नहीं लगा। आज के समय में हरेक इंसान ऐसा ही हैं कुछ खुलकर तो कुछ दबकर। लेकिन, एक बात तो है टीवी का हमारे मन पर असर आज भी उतना है जितना कि रामायण के वक़्त था। पहले लोग अरुण गोविल के पैर छूते थे और ये मानते हैं कि सुगना या गहना मिनी नहीं पहन सकती। कुछ को ये शो सामाजिक पतन लगे लेकिन, मुझे तो एक मौक़ा लगा टीवी के कलाकारों को जानने का...

Friday, July 30, 2010

चाबी से चलनेवाला गुड्डा

हमारे समाज में प्रतिष्ठा किसी भी दूसरी वस्तु या इंसान से बड़ी है। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है प्रतिष्ठा के नाम पर होनेवाली हत्याएं। हालांकि अब इस पर लगाम लगाने के लिए सरकार क़ानून बनाने के बारे में सोच रही है। इससे इतर समाज का एक तबका इससे निपटने के लिए कमांडो का गठन कर चुका है। नाम है- लव कमांडो। जी हाँ, लव कमांडो के नाम से शुरु हुई इस फोर्स में वकील से लेकर डॉक्टर तक हरेक तबके लोग शामिल है। ये वो लोग है जोकि समाज में हो रही ऐसी हत्याओं को रोकना चाहते हैं। जोकि एक ऐसे समाज कि स्थापना करना चाहते हैं जहाँ कोई जातिगत बंधन ना हो। इस कमांडो ने अब तक कई शादियां करवाई हैं, कइयों की जान बचाई है। इसी मुद्दे पर पिछले हफ्ते मैंने एक रिपोर्ट तैयार की। रिपोर्ट किसी एक कमांडो या फिर केवल ऑनर कीलिंग से कुछ आगे थी। मुद्दा था- एक ऐसा समाज जहाँ एक इंसान आज़ादी से जी सकें। जहां किसी भी बात पर खौफ इतना ना बढ़ जाए कि मरना या मारना ही अंतिम रास्ता रह जाए। दरअसल जब शूटिंग की शुरुआत की थी तो दिमाग में केवल ऑनर कीलिंग के नाम पर हो रही युवाओं की मौत और लव कमांडो जैसी संस्थाएं ही दिमाग में थी। लेकिन, एक दिन शूट के दौरान महिला आयोग के सामने एक ऐसे जोड़े से मुलाक़ात हुई जोकि घरवालों से छुपकर भाग रहा था। उनकी गलती उनका प्यार था। बातों बातों में ही उन्होंने बताया कि वो एक ही जाति के हैं और दोनों के गोत्र भी अलग है। मैं चौंक गई। मुझे लगाकि ये तो समाज के नियमों के एकदम अनूकुल है फिर क्या परेशानी। तो मालूम हुआ कि माँ बाप को बस इस बात पर एतराज़ है कि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से शादी क्यों की। मेरा दिमाग चकरा गया। अब तक समाज के नाम पर होनेवाली गुन्डागर्दी का ये एक नया कोण था। कही ये तो नहीं कि समाज के नाम पर लोग केवल अपनी मर्ज़ी को चलाना चाहते हैं। वो अपने बच्चों को अपनी जमा की गई उस पूंजी के बराबर मानते हैं जोकि निर्जीव होती हैं। जिसके पास खुद का दिमाग या उससे बढ़कर एक दिल नहीं होता है। शायद आज ज़रूरत एक जातिविहीन समाज से बढ़कर कुछ ऐसे माता-पिता और बुज़ुर्गों की हैं जोकि युवाओं को इंसान समझकर उन्हें सही गलत समझाए लेकिन, उन पर अपनी समझ ना थोपे। एक बच्चे को पालनेवाला, उसे सिखानेवाला, उसे समझानेवाला हरेक बात का अर्थ और हिदायत देनेवाला एक बड़ा ही होता है। ऐसे में जब बुज़ुर्ग खुद ही एक बच्चे को परिपक्व और समझदार होने में मदद करते हैं तो फिर क्यों उसकी ही सोच को एक दिन वो नकार देते हैं। शायद वो उस बच्चे को हाड़ मांस का न मानते हुए चाबी से चलनेवाला गुड्डा समझ लेते हैं जोकि उतना ही चलेगा जितनी हम चाबी भरेंगे।

अंत में- आज ही टीवी पर एक नई फिल्म आक्रोश का पहला प्रोमो देखा। मुद्दा यही है। प्रोमो एक बेहतर फिल्म के साथ एक बेहतर सामाजिक शोध की उम्मीद जागानेवाला हैं...

Tuesday, July 20, 2010

मानसिक तनाव

आज ऑफिस से आते वक़्त मैट्रो से बाहर निकलकर जब मैं फुट ओवर ब्रिज पर चढ़ी तो एक अडीब घटना हुई। दरअसल सभी लोग ब्रिज के एक कोने से चलकर जा रहे थे। बाजू की पूरी जगह खाली थी। सभी एक लाइन से एक पीछे एक चले जा रहे थे। मैं भी उनके पीछे चल दी। थोड़ी देर के बाद मुझे लगाकि मैं इनके पीछे क्यों चल रही हूँ... तब अचानक से मुझे लगाकि आज हम सभी भाग रहे हैं। क्यों भाग रहे हैं ये कोई नहीं जानता है। हम सिर को झुकाए एक दूसरे के पीछे बस एक अंधी दौड़ में चल रहे हैं। इस दौड़ में शामिल होकर कई बार हम एक ऐसे तनाव में घिर जाते हैं कि हम जानते ही नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं। मेरे एक पहचान के या फिर ये कहूँ कि मित्र के साथ भी यही हो रहा है। वो पूरी तरह से इस अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं। कभी उनके माता-पिता उन्हें इसमें झोंक देते हैं तो कभी जाने अंजाने उनके दोस्त उन्हें इसमें डाल देते हैं। वो खुद क्या चाहते हैं वो नहीं जानते हैं। इसी दौड़ में वो अपने आपको बहुत पहले ही खत्म कर चुके हैं। और, आज हालात ऐसे है कि वो इस दौड़ में दौड़ते हुए इसने थक गए है कि अपनी इस थकान को निकालने के लिए आसरा खोजते रहते हैं। पहले तो लोग सहारा दे देते थे लेकिन, अब सब किनारा करने लगे हैं। दरअसल जो भी उन्हें सहारा दे रहे थे वो भी तो भाग ही रहे हैं। वो कब तक और कहाँ तक किसी और को सहारा देंगे। सहारों के साथ जीनेवाले और अकेले कुछ न कर पानेवाले इस सज्जन के हालात अब कुछ ऐसे है कि उनका फ्रस्टेशन का स्तर खतरे के निशान को पार कर चुका है और अब ज़रा सी भी बात या फटकार या समझाइश पर ये कुछ ऐसे बौखलाते कि जैसे पागल कुत्ते की दुम पर किसी ने पैर रख दिया हो। ऐसे में बौखलाए, बड़बड़ाते और बदतमीज़ी करते इंसान को कुछ कहने का मन भी नहीं करता...

Tuesday, July 13, 2010

शहरी गाय

घर में जब भी खाना बनता है एक हिस्सा गाय और एक हिस्सा कुत्ते का ज़रूर निकलता हैं। अगर श्राद्ध का समय है तो कौवे के लिए भी। बचपन से ही घर के सामने टहल रही गाय को आजा-आजा गाय-गाय करके रोका है और डर-डरकर रोटी खिलाई हैं। एक बार ऐसी दौड़ लगाई थी कि पैर का नाखून ही टूट गया था। खैर, ये बातें किसी महानगर की नहीं है बल्कि छोटे शहरों की है। दिल्ली में तो गाय के दर्शन ही दुर्लभ है। और, किसी पालतू के पास तक आप पहुंच भी जाए तो उसका मालिक यूं घूर के देखता हैं जैसे रोटी ना कोई जहर हो आपके हाथ में जो आप गाय को खिला रहे हैं। दिल्ली आने के कुछ ही दिनों बाद मम्मी ने कहा था कि हर सोमवार को मंदिर में दिया लगाना और मंगलवार को गाय को रोटी खिलाना। न तो मैं मंदिर जा पाती थी और न ही मुझे मंगलवार को गाय मिल पाती थी। ऑफिस के आने के बाद गाय को ढ़ूढने में हालत खराब हो जाती थी। मम्मी के कई अजीब और छोटे शहरों की सोचवाले सुझावों के बाद अंततः मैंने ये काम बंद कर दिया। शहर में यूं ही कही कोई गाय किसी कचरे के डब्बे के पास खड़ी मिल जाती है। उसके मुंह में कचरा भरा होता हैं। ऐसे में जहां मेरे जैसे लोग चाहकर भी गाय को रोटी नहीं खिला पाते हैं ऐसे में गाय को कचरा खाते देख दुख होता था। इस सबके बीच मुझे गौ-ग्रास सेवा के बारे में पता चला। ये दिल्ली के कुछ इलाकों में चल रही है। इसमें कुछ साइकलों पर टीन के डब्बे लिए लोग सुबह-सुबह कॉलोनी की गलियों में घूमते हैं। घंटी बजाते हैं और लोग अपनी घर का बासी बचा खाना इन डब्बों में डाल जाते हैं। ये खाना लगभग तीन-चार घंटे तक इकठ्ठा किया जाता हैं इसके बाद इस खाने को दिल्ली की किसी भी गौ शाला में भेज दिया जाता हैं। ऐसा करने के पीछे वजह है गायों का सड़क के किनारे रखे कचरे डब्बों से खाना नहीं खाना। दिल्ली में अधिकतर गौ शाला वाले अपनी गायों को यूं ही सड़क पर छोड़ जाते हैं और कचरा खानेवाली इन्हीं गायों से निकला दूध फिर लोग पीते हैं। ऐसे में इस दूध की पौष्टिकता का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं। ऐसे में इस सेवा के ज़रिए दिल्ली के कुछ मुठ्ठीभर इलाकों में ही सही लेकिन, कुछ जगह तो कम से कम गायों को कुछ ढ़ंग का खाना नसीब हो रहा हैं।

Monday, May 3, 2010

आखिर हम हैं कैसे...

हम रोज़ाना कुछ न कुछ नया सीखते हैं। घर में रहते हुए भी और घर से निकलकर भी। ख़ासकर अगर हम अकेले किसी सफ़र पर हो। ऐसे समय में हम इतने अकेले होते हैं कि चुपचाप दूसरों को देखते रहते हैं और उनकी हरक़तों को पढ़ते रहते हैं। आज भी ऐसा ही हुआ। मैट्रो के सफ़र के दौरान दो बार मुझे ऐसे बुज़ुर्ग दिखे जो टीनएजर बच्चों को बातें सिखाने की कोशिश कर रहे थे। बुज़ुर्ग पूरे मन से बच्चों को नसीहतें दे रहे थे कि पहले उतरनेवालों को जगह दो, मैट्रो में मस्ती मत करो और भी बहुत कुछ। वही दूसरी ओर वो युवा उनकी बातें अनमने ढंग से इधर उधर करके सुन रहे थे। बुज़ुर्ग के जाते ही वो पीछे से बोलते हैं क्या यार बकवास करते रहते हैं। दरअसल में हम जब बड़े हो रहे होते हैं तो हमें बड़ों की नसीहतें बहुत भारी और झिलाऊ लगती हैं। हम पहले तो उन्हें सुनना नहीं चाहते और सुन भी लेते हैं तो उसे मानने से कतराते हैं। वही जब हम बड़े हो जाते हैं तो अपनी ही इस बात को भूलकर सलाहें देना शुरु कर देते हैं। मैं न तो टीनएजर हूँ और नहीं इतनी बड़ी कि मेरे कोई बहुत बड़े अनुभव हो। मैं कही बीच में लटकी हुई हूँ। युवाओं की उस चीढ़ को भी समझती हूँ और बुज़ुर्गों की उस सलाह के मायने को भी। लेकिन, फिर भी मैं तब से यही सोच रही हूँ कि आखिर हम हैं कैसे...

Tuesday, April 27, 2010

रूम पर आए नए मेहमान...


मेरे दिल्ली के तीसरी मंज़िल पर तपते हुए कमरे में आजकल कुछ नए मेहमान आने लगे हैं। साल 2006 में दिल्ली आने के बाद शहर को समझने और कुछ संभलने के बाद उसके अगले ही साल से मैंने अपने रूम के आगे एक मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर रखने लगी थी। कुछ दिनों बाद गर्मियों के दिनों में पानी के साथ ही बाजरा भी डालने लगी। सुबह जब ऑफिस के लिए निकलती तो इस उम्मीद के साथ कि आज शआम को कुछ दाने कम मिलेंगे। लेकिन, हर बार मुझे निराशा हाथ लगती। खैर, पूरे चार साल के बाद कुछ दिन पहले गर्मियों के मौसम को देखते हुए मैंने एक बार फिर उम्मीद के साथ पानी और बाजरा रखना शुरु किया। एक दिन अचानक आवाज़ें सुनाई दी। बाहर आकर देखा तो बाजरे के दानों पर कई अलग-अलग किस्म की चिड़िया झूम रही थी। पानी भी पी रही थी कुछ। सच में इतनी खुशी मुझे शायद ही कभी हुई हो। आजकल तो हालात कुछ ऐसे हैं कि अगर सुबह-सुबह पानी और बाजरा नहीं रखा तो उनका चिल्ला शुरु हो जाता हैं। सच कहूँ तो केवल इन मेहमानों के समय रहते सत्कार करने के चक्कर में मैं समय पर उठ जाती हूँ। खुश भी रहती हूँ कि कोई तो है दोस्त जो मेरे घर नियम बांधकर आते हैं और मुझे अपने मासूम से मतलब के लिए ही सही डांटता भी हैं।

Tuesday, April 13, 2010

उम्मीद की गठरी...

पंकज रामेन्दू

उम्मीद की गठरी को जब से उठाया,
तब से मैंने ये पाया कि मैं कायर हो गया
गठरी को सिर पर उठाये में
जिंदगी की पटरी पर फिसलता हूं संभलता हूं
लेकिन बोझ से झुकी हुई मेरी पीठ
अक्सर मेरा मुंह धरती की ओर मोड़ देती है
मैं आसमानी रंग नहीं देख पाता हूं
इस गठरी में सबकी अपनी-अपनी पोटली है..
जिसके बीच मेरे ख्वाबों की पोटली ऐसी है
जैसे रेहड़ी पर बिकते हुए सस्ते कपड़े
जिनमें अपने पसंद का कपड़ा निकालने में कई बार उम्र गुज़र जाती है.
फिर भी मैं लगा हुआ हूं,
डरते हुए, सहमते ,हुए
शायद मुझे वो कपड़ा मिलेगाजो मेरे पसंद को होगा
मरे नाप का होगा