कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Monday, July 13, 2009
सच का सामना करते हुए हम लोग...
कल एनडीटीवी इंडिया पर चक्रव्यूह देखा तो मालूम चला कि हम लोग को प्रसारित हुए 25 साल बीत गए है। स्टूटियो में और कॉन्फ़्रैन्सिंग से जुड़े हर शख्स को हम लोग और बुनियाद जैसे सीरियलों की कमी अखर रही थी। हालांकि स्मृति इरानी को छोड़कर कोई भी और कलाकार आज के वक़्त का नहीं था। फिर भी ये बात तो माननी ही पड़ेगी कि इन 25 सालों में हम लोग बहुत कुछ बदल गए हैं। ख़ास करके टेलीविज़न के मामले में। लेकिन, कई लोग इसे बदलाव नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ पतन ही मानते हैं। जोकि मेरे ख्याल से ग़लत हो जाता है। कई जगह मैंने ऐसे लेख पढ़े हैं जिनमें आज के बेहूदें सीरियल्स की दुहाई दी जाती है। लेकिन, क्या सच में ये सभी बेहूदें है। क्योंकि जब शुरु हुआ था तो लोगों की घड़ियों की सूइयां थम जाया करती थी या फिर आज चल रहा बालिका वधू एक बेहतर बचलाव की उम्मीद लेकर आया है। माना कि जब ये सीरियल रबर की तरह खींचने लगते हैं तो वो झिलाऊ बन जाते हैं। लेकिन, आज का वक़्त उतना भी बुरा नहीं है। साराभाई वर्सेस साराभाई या फिर खिचड़ी या फिर बा बहू और बेबी इसके कुछेक उदाहरण हो सकते हैं। पहले हमारे देश के लिए टीवी ही एक अनोखी चीज़ थी और फिर उसमें सिनेमा की तरह एक कहानी को दिखाना और बडा़ आश्चर्य था। ये कुछ ऐसा ही था कि पहले के जो लोग सिनेमा देखने जाते थे उनके लिए हर हफ़्ते एक ही कहानी को धीरे-धीरे बढ़ते देखना कौतूहल का विषय था। लेकिन, समय बदला या फिर कहे कि भागने लगा। अब लोग एक हफ़्ते का इंतज़ार नहीं कर पाते हैं यही वजह है कि हम अब रोज़ाना के सीरियलों पर उतर आए हैं। पहले की तरह आज केवल एक ही चैनल भी नहीं हैं। अब पता नहीं कि लोग एक हफ़्ते तक उस सीरियल के लिए इतंज़ार करे न करे। और, इस सबसे बड़ी बात जो आज के वक़्त में बदली है वो है एकल परिवार जोकि शहरों में आकर बस गए हैं। उन शहरों में जहां न तो शाम को टहलने के लिए पार्क है और नहीं ऐसे पड़ोस जिनके साथ खाना खाकर ओटले पर वक़्त बिताया जा सके। आज तो ऐसी नौकरियाँ भी नहीं जो कि 5 बजे ख़त्म हो जाएं और पूरा परिवार सात बजे तक खाना खाकर साथ बैठा हो। शायद यही वजह है कि आज टीवी दोस्त बनता जा रहा है। अब तो परिवार में कोई सुबह की शिफ़्ट करता है तो कोई रात की। अब पड़ोस जब बात करनेवाला न हो तो इंसान टीवी को ही दोस्त बना लेता है। आज के इस दौर में टीवी पर जब निर्भरता इतनी बढ़ी है तो चैनल भी बढ़े है। ऐसे में एक इसांन एकसे ही सीरियल हर चैनल पर नहीं देख सकता है। औऱ, यही से जन्म होता है अलग-अलग तरह के फ़ार्मेट का। कोई घर की कहानी दिखाता है तो कोई कॉलेज की। कोई अस्पताल में रोमांस दिखाता है तो कोई गांव का भारत। ऐसे में कुछ कामयाब हो जाते है तो कुछ पीछे छूट जाते हैं। रीयलिटी शो भी इसी प्रपंच का हिस्सा है। आज के वक़्त में टीवी के साथ मिलनेवाला रिमोट सबसे घातक है।
दर्शक अगर चैनल पर किसी इंसान के जीवन का बहुत ही निजी सच देखकर रुकता है तो चैनलवाले सच का सामना भी करवा सकते हैं। वैसे, इन सच्चाइयों का सामना भी हम जैसे ही कुछ लोग करते है। आखिर एक मोटी रकम मिलती है ऐसा करने के एवज में...
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4 comments:
आज की स्थिति का सटीक विश्लेषण करता हुआ आलेख पसन्द आया।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
अच्छा विश्लेषण
बहुत अच्छा लिखा। हम लोग और बुनियाद के दौर को अब भी याद किया जाता है तो उसकी सहज और सरल कहानी को लेकर।
वैसे मैं आजकल के ज्यादातर नब्बे प्रतिशत कार्यक्रमों को बकवास ही मानता हूँ।
Samkalin vishleshan..sundar likha apne.
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