दिल्ली कभी-कभी सुन्दर शहर लगता है। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि अधिकतर यहाँ की अव्यवस्थाएं मुझमें खीज पैदा कर देती हैं। मुझे लगता है कि क्या यार क्या शहर है ज़रा-सी बारिश से थम जाता है। किराए पर चढ़ कमरे ऐसे बने हैं कि मुर्गी के दबड़े ज़्यादा अच्छे होंगे। खैर, जब भी मैं दिल्ली के इस हाल से और खा़सकर अपने ही बेहाल से दुखी हो जाती हूँ चश्मे बद्दूर देख लेती हूँ। फ़िल्म एक क्लासिक है और कहानी से लेकर अभिनय तक सबकुछ बेहतरीन है। लेकिन, उससे भी बेहतरीन है दिल्ली... चौड़ी-चौड़ी खाली सड़कें, किराएदारों के लिए ही सही लेकिन अच्छे फ़्लैट, मिलनसार लोग और हवा में घुला हुआ एक इत्मीनान। किसी का भी ऐसे शहर में रहने के लिए जी मचला जाए। चश्मे बद्दूर साल 1981 में आई थी। संई परांजपे के निर्देशन में बनीं ये एक बेहतरीन कॉमेडी थी। दिल्ली में बेचलर्स की ज़िंदगी बिता रहे तीन दोस्तों के आगे पीछे बुनी हुई ये फ़िल्म आपके मूड को कभी भी फ़्रेश कर सकती है। फ़ारुख शेख, रवि वासवानी, दीप्ति नवल, दीना पाठक, सईद जा़फ़री सभी का अभिनय बेहतरीन। कई बार इस फ़िल्म को देखते हुए मन में आया कि काश ज़िंदगी एक फ़िल्म की ही तरह होती हमेशा हैप्पी एंडिंग। असलियत इतनी सुन्दर नहीं है। यहाँ तो रोज़ाना मकान मालिक से लेकर बस के कन्डक्टर तक, ऑफ़िस से लेकर दुकानदार तक से बकझक होती ही रहती है। यहाँ बने दोस्तों को मैं अंगुलियों पर गिन सकती हूँ और अपने आप बन गए दुश्मनों की तो लिस्ट बन चुकी हैं। ज़िंदगी इतनी भी बुरी नहीं... ये कह कर मैं दिल को बहला लेती हूँ।
फिर भी फ़िल्म और असलियत के इस अंतर को समझने के बाद भी जब भी चश्मे बद्दूर देखती हूँ एक टीस-सी उठती है कि काश मैं होती ओमी, बोजो और सिद्धार्थ में से एक...
7 comments:
सच!चश्मेबद्दूर आज भी याद आती है।बैचलर लाईफ़ का कोई मुकाबला नही,इसका मज़ा ही कुछ और है।
SACH MEIN YE PICTURE BAHOOT HI MAST HAI .... CHOTI VHOTI PROBLEMS MEIN BHI JEENE KA ANDAAZ BATAAHI HAI ... SUNDAR LIKHA HAI AAPNE ...
आपकी लेखन शैली का कायल हूँ. बधाई.
BAHUT HI KHUB.......
4 saal ho gaye par koi ek din bhi ye dilli apna nahi laga kabhi... par jeena isi ka naam hai...
chashmebaddoor movi hai hi esi.
hope u have seen Sai's 'Katha' also.
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