Saturday, May 5, 2012

रिश्ते निभाना सीखते...


कंचन भाभी का फोन आया वो रो रही थी। मम्मी पापा के क्वाटर खाली करने का दुख उन्हें इतना हुआ कि दिल्ली में आए हुए मेरे इन सात साल में पहली बार उन्होंने मुझे फोन किया। पीछे से मीशा रुआसी आवाज़ में बोले जा रही थी मम्मी बस अब मत रो... फिर उसने मुझसे बात की बोली दादी तो छोड़कर चली गई और बाबा को भी साथ में ले गई। फिर उसने अपना सुर बदला और बोली अब ज़रा फूफाजी से बात करवा दो, एक पल को मैं सोचने लगी ये कौन है

? फिर याद आया वो भुवन से बात करना चाह रही है। भुवन था नहीं तो मैंने उससे वादा किया कि कल सुबह मैं बात करवा दूंगी। अगले दिन फोन पर भुवन से बात करवाई। भुवन के चेहरे पर भाव जैसे पल-पल बदल रहे थे। पहले तो इतनी छोटी बच्ची की आवाज़ नहीं समझ पा रहा था फिर फूफाजी बनकर वो अपनी ज़िंदगी में पहली बार किसी से बात कर रहा था। बात खत्म होने पर उसने ऐसे राहत की सांस ली थी जैसे किसी टेलिफोनिक इन्टरव्यू के बाद कोई लेता है। हालांकि भुवन ने अभी असल में ससुरालवाले रिश्तों का मज़ा लिया नहीं है फिर भी जीजाजी, दामादजी, फूफाजी सुनकर और उस पैरामीटर में घुसकर बर्ताव करने में उसे फिलहाल मुश्किल हो रही है। हर बात और हर परिस्थिति में आसानी से ढल जानेवाले भुवन को ऐसा देख मुझे मेरी हालत पर कुछ तसल्ली होती है। शादी के बाद आंटी को माँ और अंकल को पापा बोलने में मेरी ज़बान आज भी धोखा दे जाती है। भाभी संबोधन सुनकर तो मैं कई बार जवाब ही नहीं देती हूँ, मुझे लगता है किसी और से ही बात हो रही है। एक तो प्रणाम करना और सुनना ही मेरे लिए सबसे अजीब है। खासकर जब कोई मुझे करता है, मैं जवाब ही नहीं दे पाती हूँ। अपने घर में तो किसी से बात करो सीधे क्या हाल है, क्या चल रहा है... ना कोई नमस्कार ना कोई प्रणाम। कई बार ऐसा लगता है कि नए रिश्तों में बंध तो गई हूँ लेकिन, उन्हें निभाना नहीं सीखा है। ससुराल में ही कई बार में आराम से बैठी रह जाती हूँ आदर्श बहू की तरह काम कैसे किया जाता है मुझे मालूम ही नहीं चलता है। मामी के क्या फर्ज है, भाभी कैसे बात करती है, बहू को कब क्या करना है... हर मामले में मैं गड़बड़ कर जाती हूँ। शादी के ग्यारह महीने होने जा रहे है अब तक पत्नी बनने के स्टैन्डर्ड नियम क्या है वो ही मैंने पता नहीं किए। मैं बस अपने ही तरीके से हर रिश्ते को निभाए जा रही हूँ। आराम से भुवन के ताऊजी के पास बैठकर बतियाती हूँ और मुझे मामी कहनेवाले बच्चों की गैंग के साथ मस्ती मारती हूँ। शादी करने से दो लोगों का रिश्ता भले ही कुछ ज्यादा न बदलता हो लेकिन, उससे जुड़े इन नए रिश्तों से जुड़ने का मज़ा ही कुछ और है। मैं अपने हर नए रिश्ते को पूरे दिल से जीने की कोशिश कर रही हूँ, बाक़ि भले ही भुवन को पीछे से सब संभालना पड़ जाए...

Saturday, February 25, 2012

लिखे-पढ़े तो बहुत है लेकिन, लिखना-पढ़ना नहीं चाहते....






ऐसा सामान्यतः मान लिया जाता है कि जो पढ़ा-लिखा होता है वो ज्यादा सलीकेदार और नियम-क़ानून माननेवाला होता है। हालांकि ऐसा माननेवालों में, मै ख़ुद को शामिल नहीं करती हूँ। पढ़े-लिखे क्या पढ-लिख रहे युवाओं में भी सलीकों का अभाव खलता है। दिल्ली में आज से दो हफ्ते तक चलनेवाला अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला शुरु हो चुका है। पुस्तक मेला एक ऐसा मेला जहां गुब्बारे भले ही ना मिलते हो लेकिन, फिर भी उसमें रोज़ाना पहुंच जाना मुझे बहुत भाता है। दो हफ्ते तक चलनेवाले मेले में भी पढ़े-लिखे पढ़ने-लिखनेवालों की भीड़ आप देख सकते हैं। भारी-भरकम किताबों को झोलाभरकर लोग खरीदते हैं। उम्मीद करती हूँ कि पढ़ते भी होगे। लेकिन, फिर भी सामाजिक तौर पर मुझे पढ़ने- लिखनेवाले लोग कम ही नज़र आते है। या फिर ये कहूँ कि जो पढ़ना और लिखना चाहिए उसे पढ़ते लिखते नज़र नहीं आते है। दिल्ली की धड़कन मैट्रो की ही अगर बात की जाए तो इसमें आपको ऐसे कई लोग दिखाई दे जाएगे जो हाथों में अंग्रेज़ी का अख़बार या उपन्यास थामे सफर करते है। इत्मिनान से बैठना तो अलग सलीके से खड़े होने की जगह भी कई बार नसीब नहीं होती है। ऐसे में भी ये हाथ में अंग्रेज़ी उपन्यास थामे, उसमें नज़रें गड़ाए गड्ड-मड्ड होते रहते हैं। लेकिन, जब मैट्रो स्टेशन से बाहर निकलना हो तो इनमें से कुछ आपको बाहर जानेवाले एएफसी गेट में टोकन को जबरन घुसेड़ते हुए भी दिखाई दे जाएगे। कई बार मुझे पीछे से टोकना पड़ता है- ज़रा पढ़ भी लिजिए साफ-साफ लिखा है केवल कार्ड का प्रयोग करें....। यहां थूकना मना है को तो लोग सालों से वो जगह मानते ही है जहां थूकना है। या फिर जहां पेशाब करना मना लिखा होता है वो लिखाई ही लोग धो डालते हैं....। यही हालत लिखने की आदत के साथ भी है। जहां ज़रूरत हो और जहाँ ज़रूरी हो वहाँ कभी नहीं लिखा मिलेगा। कुछ साल पहले की ही बात है मेरी दोस्त की गाड़ी न्यू मार्केट से ट्रैफिकवाले उठा ले गए। वो जब उसे छुड़ाने पहुंची तो उसने कहा कि वहाँ नो पार्किंग नहीं लिखा था। तो ट्रेफिकवाला तपाक से बोला पार्किंग भी तो नहीं लिखा था....। बात को तोड़ने और मरोड़ने की हद है। अरे, कोई नियम है तो उसे लिखने में क्या समस्या है। यहीं हाल चिठ्ठियों के साथ भी है। लोग अब एक दूसरे को लिखने से कतराते हैं। हम अपनी लिखाई का उपयोग केवल तब तक करते है जब तक हमें उस लिखाई पर अंक मिलते हो। सुन्दर लेखनी और हम बात का विवरण लिखना आम जीवन में लोगों को गैर ज़रूरी महसूस होता है। ऐसा लगता है मानो लिखने का केवल एक ही उद्देश्य है- परीक्षा में अच्छे अंक पाना। बाक़ी तो सब कुछ मौखिक होता जा रहा हैं। हम लिखे-पढ़े तो बहुत है लेकिन, हम लिखना और पढ़ना नहीं चाहते हैं। अगर पुस्तक पढ़ने का शौक है और पुस्तक मेले जा रहे है तो बिना किसी से पूछे साइन बोर्ड और लिखी हुई सूचनाओं को पढ़ते हुए वहां पहुंचने की और घूमने की कोशिश करके देखिएगा..... अच्छा ही लगेगा....

Friday, November 18, 2011

रॉकस्टार के ज़रिए एक सोच की समीक्षा...

रॉकस्टार- एक ऐसे लड़के की कहानी जो न प्यार को समझ सका और न अपने अंदर छुपे संगीत के हुनर को। केवल लोकप्रिय हो जाना ही समझ का पैमाना नहीं होता हैं। पूरी फिल्म में कहीं उसे संगीत से प्यार करते नहीं देखा। बिल्कुल वैसे ही जैसे प्यार करते भी नहीं देखा। जनार्दन को हीर बस होना चाहिए... शायद अंतिम सीन में वो महसूस कर पाया कि वो प्यार करता था या फिर ये कहे कि वो प्यार के अहसास को समझ सका। इम्तियाज़ अली की अब तक की निर्देशित चारों फिल्में देखने के बाद ये महसूस हुआ कि सभी फिल्मों के नायक-नायिका बहुत व्यवहारिक हैं। हालांकि जब वी मेट की गीत अंशुमन से प्यार करती थी। लेकिन, अंत में यही हुआ कि वो प्यार नहीं आकर्षण निकला और प्यार को तो एक दम अंतिम समय में समझ पाई। लव आजकल में तो युवाओं की इस सोच पर निर्देशक कम कहानीकार ने ऋषि कपूर के किरदार के ज़रिए खुद ही चोट कर दी थी। प्यार को न समझनेवाले सैफ के किरदार को ये मालूम था कि उसे क्या करना है, कहाँ नौकरी, कहाँ घर... वो केवल प्यार को ही नहीं समझ सका। यही हाल रहा जनार्दन का... हीर उसे होना चाहिए... क्यों होना चाहिए? ये वो अंत तक नहीं समझा सका। फिल्म जिस उम्र से शुरु होती हैं उसे मैं जी चुकी हूँ और जिस उम्र पर खत्म होती है उसे जी रही हूँ। इसलिए ये दावे से कह सकती हूँ कि इन सभी फिल्मों के किरदार बहुत व्यवहारिक है और भावुक नाममात्र को। मुझे मेरे भावुक होने और मेरे भावनात्मक लगाव के बारे में कई प्रकार के ज्ञान मिल चुके हैं लेकिन, इन किरदारों को देखकर लगता हैं कि ये बेवकूफ नहीं हैं और ये पहले से ही जानते हैं कि दरअसल सबकुछ भावनात्मक लगाव ही हैं। ज़िंदगी में उसी भावनात्मक लगाव पर आकर गाड़ी रूक जाती हैं। लेकिन, सिनेमा में इससे आगे बढ़कर जबरन में फिर प्यार में तब्दील हो जाती हैं। यही वजह है कि गीत अंशुमन के सामने आदित्य को किस करती हैं या मीरा हनीमून के पहले दिन अपने पति को छोड़ देती हैं और हीर शादी के दो साल बाद जानार्दन से संबंध बनाती हैं... इन फिल्मों से और इन किरदारों से आप टुकड़ों में प्रभावित हो पाते हैं... कइयों के मन से आवाज़ आती हैं काश मैं भी ऐसा कर पाता/पाती... और, मुझे लगता है कि सच में ये सिनेमा ही है... क्योंकि, असल ज़िंदगी में या तो हम व्यवहारिक है या तो हम भावुक...

Tuesday, November 15, 2011

हम चले नेक रस्ते पे हमसे भूलकर भी कोई भूल हो ना...

बचपन से हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर, आँखें बंद करके हम ये प्रार्थना करते आए हैं। घर हो या स्कूल हमेशा हमें सही और सच के रास्ते पर चलने की सीख दी जाती हैं। हमेशा से समझाया जाता है कि कुछ भी हो जाए सही करो। एक से बढ़कर एक ऐसी जीवनियां हमें पढ़ाई गई हैं जिनसे हमें सच के रास्ते पर चलने की सीख मिले। आज शाम को एक साथ ये पूरी पढ़ाई मेरी आँखों के सामने तैर गई। सच बोलो, सच का साथ दो, सच सीखो... लेकिन, सच को तय करने के अधिकार के बारे में कभी कोई जानकारी मुझे तो मेरी पढ़ाई ने नहीं दी। आखिर ये तय कौन कर रहा है कि क्या सच हैं और क्या झूठ। क्या सही है और क्या ग़लत। आज तक मैं इस खेल से अंजान थी लेकिन, आज मैं समझ गई। दरअसल ये मैं तय कर रही हूँ कि क्या सच हैं और सही हैं और क्या ग़लत या फिर झूठ। लेकिन, अपने लिए नहीं। ना बिल्कुल नहीं। मैं ये तय करती हूँ दूसरों के लिए, इस समाज के लिए और मेरे लिए सही और ग़लत तय करता है ये समाज। नेक रास्ते पर हम चले तो... लेकिन, कौन-सा रास्ता नेक हैं ये हमें कोई दूसरा बताएगा। भूल हमसे कोई ना हो। लेकिन, भूल है क्या ये कोई और तय करेगा। स्कूल में, घर में, हमेशा हमें सिखाया जाता हैं कि वो करो जो सही हो, किसी का दिल मत दुखाओ, केवल मौज या मस्ती के लिए किसी की भावनाओं से मत खेलो... लेकिन, एक वक्त ऐसा आ जाता हैं कि हमारी ही भावनाओं से खेला जाता हैं और ये समझाया जाता हैं कि अरे, ये ज़माना बहुत प्रैक्टिकल हैं भावनाओं के लिए यहां कोई जगह नहीं। एक महिला, एक पत्नी के रूप में अपने पति के साथ सूखी रोटी खाने को तैयार रहती हैं। पिता का हरेक परिस्थिति में साथ निभाती हैं। बच्चों के लिए कुछ भी कर जाती हैं। लेकिन, एक सास के रूप में अचानक से भावनाओं को तुच्छ मानकर व्यवहारिक हो जाती हैं। पति के साथ सूखी रोटी खानेवाली पत्नी अपनी बेटी को सलाह दे देती हैं कि लड़के के स्वभाव पर मत जाओ समाज के नियमों और परिवार के पैसों की खनक को समझो। प्यार तो उम्र का तकाज़ा हैं हो जाता हैं। लेकिन, भावनाओं में मत बहो। वो करो जिससे समाज में खड़ी रह सको। आश्चर्य होता है एक माँ को बेटी की शादी बिना किसी सोच समझ के करते देख। और, माँ भी वो जो अपनी माँ को इस बात पर कई बार कोस चुकी हो कि काश मेरी शादी आपने सोच-समझकर की होती... दरअसल एक जिंदा इंसान के दिल की भावनाओं से बढ़कर हैं ये अदृश्य समाज। ये समाज एक ऐसा शेर है जो कभी आता नहीं हैं बस मन को डराता है कि शेर आया, शेर आया... मैंने अपने बचपन में कभी किसी शिक्षा देनेवाले से नहीं पूछा कि आखिर ये सच हैं क्या... बस अपने विवेक और समझ से जिसे सच माना उसे अपनाया। लेकिन, मैं उम्मीद करती हूँ कि आनेवाली पीढ़ी एक बार अपने सिर को उठाकर, आँख से आँख मिलाकर और हाथ को हवा में लहराकर ज़रूर पूछे कि आखिर ये सच और नेकी है क्या...

Friday, October 7, 2011

अपने लिए जीना, जीना नहीं...

कभी कभी आपसे प्यार करनेवाले, आपके साथ अपनी ज़िंदगी को जोड़कर देखनेवाले, आपके साथ बचपन से रहनेवाले। आपको एक ट्राफी की तरह मानते हैं। आपस में इस होड़ में लगे रहते हैं कि कौन जीतेगा इसे। और, इस होड़ में जीते कोई भी हार केवल उस ट्राफी की होती है जिसके लिए ये सारी लड़ाई हैं। ट्राफी कब, कौन बन जाए ये भी आप नहीं कह सकते। कभी आप खुद वो ट्राफी हैं, तो कभी आप उसे पाने की दौड़ में हैं। समय और परिस्थितियां तय करती हैं आपकी जगह। फिलहाल मेरे सामने भी एक ऐसा इंसान मौजूद हैं, जो लोगों के बीच ट्राफी बना हुआ हैं। वो क्या करेगा ये तय तो उसे ही करना हैं लेकिन, अपने लिए नहीं बल्कि किसी एक की खुशी के लिए। यहाँ ये बात समझाने की ज़रूरत नहीं कि फैसला कुछ भी हो उसे दुखी ही रहना हैं। हम हमेशा से ही अपनी ज़िंदगी दूसरों के लिए जीते आए हैं। हम सब ऐसा ही करते हैं। हम दूसरों के लिए जीते हैं और दूसरे उम्मीद करते हैं कि वो हमारे लिए जिए। जब हम दूसरों के लिए करते हैं तो हम उस बात का अहसान मनवाना चाहते हैं और जब दूसरा करता है तो उसे उसका फर्ज़ मानकर हल्का करने की भी पूरी कोशिश करते हैं। ऐसे में हमारे आसपास अगर एक भी अपनी ज़िंदगी अपने लिए जीनेवाला, हिम्मती और सामाजिक रूप से मतलबी मिल जाता है तो हम अपनी नाकामयाबी को छिपाते हुए उसे कोसने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। दरअसल, सामाजिक प्राणी वही तो है जो कि अपनी ज़िंदगी कुंठा में दूसरों के लिए बिता दें। और, दूसरों को समाज के लिए ज़िंदगी बिता देने के बोझ में दबा दें...

Thursday, April 28, 2011

सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है...

शुरुआत से ही विज्ञान की छात्र होने के बावजूद कभी भी इंजीनियर बनने के बारे में नहीं सोचा। विज्ञान और गणित दोनों ही ऐसे विषय रहे हैं जोकि मुझे नबंर ज़्यादा पाने के लिए आसान लगे हैं। इसमें आपको अपनी कोई ख़ास क्रिएटिविट नहीं दिखानी होती है। लेकिन, जिस चीज़ से इंसान भागता है वो उसके सामने कभी न कभी आ ही जाती है। मेरा भी यही हाल है। आज जो काम कर रही हूँ उसका पूरा सत्व ही क्रिएटिविट में झुपा हुआ है। खैर, पिछले शनिवार को ये समझ में आया कि विशुद्घ विज्ञान या गणित किस हद तक क्रिएटिव हो सकते हैं। आईआईआईटी दिल्ली में लगे ओपन हाउस में पहुंचकर मालूम चला कि कैसे समीकरण ज़िंदगी में घुल मिलकर कुछ अनोखा बना सकते हैं। सबसे पहले ही सामना हुआ एक ऐसी साइकल से जोकि खुद ब खुद टायरों में हवा भर सकती है। सोच सचमुच अच्छी थी क्योंकि साइकल में हवा कम होने पर उसे पंचरवाले तक लेकर जाना बड़ा कड़ा काम है। लेकिन, छात्रों की इस सोच को परिपक्व होने में वक़्त लगेगा। आगे बढ़े तो कुछ छात्र एक अजीबों गरीब बैक पैक के साथ मिले। पास जाने पर मालूम चलाकि ये मज़दूरों को ज्यादा भार आसानी से उठा लेने के लिए तैयार किया गया है। विशुद्ध वैज्ञानिक नियमों के ज़रिए सबसे बड़ी समस्या का निदान। ये प्रयोग मुझे अच्छा लगा हालांकि जिस देश में हाड़ तोड़ मज़दूरी करनेवालों को जहां ठीक से खाना नहीं मिलता उन्हें ये बैक पैक कहां नसीब। कुछ मॉडल ऐसे भी थे जिन्हें छात्रों ने बनाया तो था कि बेहतरीन सोच के साथ लेकिन वो उसे समझा नहीं पा रहे थे। कुछ-कुछ ऐसा ही था एक जूट का गिटार। जोकि छात्रों के मुताबिक़ इको फ्रेन्डली और सस्ता था लेकिन, छात्र ये नहीं बताया कि कैसे वो इसे एम्लिफाय कर सकता है। कुछ छात्राओं ने कपड़े सुखाने की मशीन बनाई थी तो कुछ ने एक समान प्लटों को धोने की। कुछेक सार्वजनिक स्थलों से कचरा हटाने में जुटे थे। सभी छात्रों की सोच तो काबिल-ए-तारीफ़ लगी लेकिन, साथ में ये भी ये भी लगाकि ये सोच दुनियादारी से बहुत दूर है। जब असल में इन्हें उपयोग में लाने की बात होगी तो हो सकता है कि कई रुकावटें आएं। कुछ भी हो लेकिन ये सोचकर एक सूकून मिला कि देश का ये भविष्य समाज के लिए सोच रहा है।

अंत में- आईआईटी में छात्रों को इन प्रयोगों के साथ देखकर जितना अच्छा लगा उतना ही दुख हुआ दिल्ली के स्कूली छात्रों को देखकर। एक भी छात्र इन प्रयोगों को देखने के लिए आया हो ऐसा नहीं महसूस हुआ। सभी बस झुण्ड बनाकर इधर-उधरकर हंसी हंगामा करते नज़र आए। कुछेक तो बदतमीज़ी से बात करते भी दिखे। आईआईटी में आकर महसूस हुआ कि सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है।

Friday, April 22, 2011

सफ़र से मिलती सीख...

बांटने से डर बढ़ता है। आप अगर जानबूझकर किसी वस्तु या व्यक्ति से दूर रहेंगे तो आपकी उसके बारे में राय आभासी होगी। ऐसे वक़्त में अगर उसके बारे में एक भी नकारात्मक ख़बर आ गई तो बस। ये बात मुझे महसूस हुई गुरुवार को। जब रात साढ़े दस बजे मैं ग्रीन पार्क मेट्रो स्टेशन पहुंची। मेट्रो से सुरक्षित सार्वजनिक परिवहन का साधन शायद ही कोई हो। इस बात को जानते हुए भी मैं थोड़ी बेचैन सी थी। मुझे आजकल ट्रेन के लेडीज़ कोच में महिलाओं के साथ सफ़र करने की ऐसी आदत हो गई है कि सामान्य कोच में पुरुषों के साथ यात्रा करने में घबराहट होती है। ऐसे में रात के साढ़े दस बजे तो लेडीज़ कोच के मायने को ही पुरुष यात्री नकार देते है। खैर, मेट्रो आई और लेडीज़ कोच में एक भी पुरुष यात्री नहीं था। दरअसल पूरा कोच खाखी रंग में पुता हुआ सा लग रहा था। पूरे कोच में सीआईएसएफ़ की महिला सिपाही बैठी हुई थी। हर स्टेशन से चार-पांच का इजाफ़ा भी हो रहा था। सभी अपनी-अपनी ड्यूटी ख़त्म करके आ रही थी। बस उनकी खाखी वर्दी के डर से ही किसी की हिम्मत नहीं हुई लेडीज़ कोच में घुसने की। ग्रीन पार्क से राजीव चौक का सफर मैंने सूकून से काटा। मेरे मन को खाखी वर्दी पहनी महिलाओं को देखकर बहुत आराम मिला। अंजान डर से थोड़ी सी राहत। इसके बाद राजीव चौक पहुंचते ही मन फिर डूबने लगा। दिन की आखिर मेट्रो को पकड़ने के लिए मुझे चालीस मिनिट तक वही रुके रहना पड़ा। पूरे समय यही तनाव कि लेडीज़ कोच में पुरुष ना बैठे हो। अंजान पुरुषों के साथ सफ़र ना करने का हश्र ऐसा होगा कभी सोचा नहीं था। एक समय था जब मैं बस और मेट्रो में उनके साथ कंधे से कंधा टकराकर सफ़र करती थी। आगेवाले डिब्बे की तरफ टहल रहे लड़कों को देखकर मेरा बीपी बढ़ रहा था। मुझे अचानक से लगने लगा कि इस तरह का बंटवारा भले ही सहुलियत देता हो लेकिन, ये मन में कई भय भी छोड़ देता है। अचानक से ही साथ में बैठा अंजान पुरुष वहशी लगने लगता है। एक आरामदायक सफर तनाव भरा हो जाता है। स्टेशन पर बिताए चालीस मिनिट और उसके बाद ट्रेन में गुज़ारे 20 मिनिट पूरे तनाव में गुज़रे। हालांकि इस दौरान न तो किसी पुरुष ने मुझे घूरा और न ही बदतमीज़ी की। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि इस तनाव से ही मैं इतनी कमज़ोर हो रही हूँ कि अगर किसी ने कोई बदतमीज़ी की भी तो मैं शायद अपना बचाव न कर सकूं। समाज ऐसा होना चाहिए जहां सभी एक साथ आरामदायक और दोस्ताना तरीक़े से रह सके। यूं अलग-अलग कोच में बांट देने से एक दूसरे के प्रति सम्मान कम और डर ज़्यादा बस जाता है। हमें एक दूसरे के साथ रहकर एक दूसरे का सम्मान करना आना चाहिए। ना कि जिस चीज़ से डर लगे उससे यूं दूर भागना चाहिए।