पुलिया से ब्लागिंग तक...
कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Saturday, May 5, 2012
रिश्ते निभाना सीखते...
Saturday, February 25, 2012
लिखे-पढ़े तो बहुत है लेकिन, लिखना-पढ़ना नहीं चाहते....
Friday, November 18, 2011
रॉकस्टार के ज़रिए एक सोच की समीक्षा...
रॉकस्टार- एक ऐसे लड़के की कहानी जो न प्यार को समझ सका और न अपने अंदर छुपे संगीत के हुनर को। केवल लोकप्रिय हो जाना ही समझ का पैमाना नहीं होता हैं। पूरी फिल्म में कहीं उसे संगीत से प्यार करते नहीं देखा। बिल्कुल वैसे ही जैसे प्यार करते भी नहीं देखा। जनार्दन को हीर बस होना चाहिए... शायद अंतिम सीन में वो महसूस कर पाया कि वो प्यार करता था या फिर ये कहे कि वो प्यार के अहसास को समझ सका। इम्तियाज़ अली की अब तक की निर्देशित चारों फिल्में देखने के बाद ये महसूस हुआ कि सभी फिल्मों के नायक-नायिका बहुत व्यवहारिक हैं। हालांकि जब वी मेट की गीत अंशुमन से प्यार करती थी। लेकिन, अंत में यही हुआ कि वो प्यार नहीं आकर्षण निकला और प्यार को तो एक दम अंतिम समय में समझ पाई। लव आजकल में तो युवाओं की इस सोच पर निर्देशक कम कहानीकार ने ऋषि कपूर के किरदार के ज़रिए खुद ही चोट कर दी थी। प्यार को न समझनेवाले सैफ के किरदार को ये मालूम था कि उसे क्या करना है, कहाँ नौकरी, कहाँ घर... वो केवल प्यार को ही नहीं समझ सका। यही हाल रहा जनार्दन का... हीर उसे होना चाहिए... क्यों होना चाहिए? ये वो अंत तक नहीं समझा सका। फिल्म जिस उम्र से शुरु होती हैं उसे मैं जी चुकी हूँ और जिस उम्र पर खत्म होती है उसे जी रही हूँ। इसलिए ये दावे से कह सकती हूँ कि इन सभी फिल्मों के किरदार बहुत व्यवहारिक है और भावुक नाममात्र को। मुझे मेरे भावुक होने और मेरे भावनात्मक लगाव के बारे में कई प्रकार के ज्ञान मिल चुके हैं लेकिन, इन किरदारों को देखकर लगता हैं कि ये बेवकूफ नहीं हैं और ये पहले से ही जानते हैं कि दरअसल सबकुछ भावनात्मक लगाव ही हैं। ज़िंदगी में उसी भावनात्मक लगाव पर आकर गाड़ी रूक जाती हैं। लेकिन, सिनेमा में इससे आगे बढ़कर जबरन में फिर प्यार में तब्दील हो जाती हैं। यही वजह है कि गीत अंशुमन के सामने आदित्य को किस करती हैं या मीरा हनीमून के पहले दिन अपने पति को छोड़ देती हैं और हीर शादी के दो साल बाद जानार्दन से संबंध बनाती हैं... इन फिल्मों से और इन किरदारों से आप टुकड़ों में प्रभावित हो पाते हैं... कइयों के मन से आवाज़ आती हैं काश मैं भी ऐसा कर पाता/पाती... और, मुझे लगता है कि सच में ये सिनेमा ही है... क्योंकि, असल ज़िंदगी में या तो हम व्यवहारिक है या तो हम भावुक...
Tuesday, November 15, 2011
हम चले नेक रस्ते पे हमसे भूलकर भी कोई भूल हो ना...
Friday, October 7, 2011
अपने लिए जीना, जीना नहीं...
Thursday, April 28, 2011
सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है...
अंत में- आईआईटी में छात्रों को इन प्रयोगों के साथ देखकर जितना अच्छा लगा उतना ही दुख हुआ दिल्ली के स्कूली छात्रों को देखकर। एक भी छात्र इन प्रयोगों को देखने के लिए आया हो ऐसा नहीं महसूस हुआ। सभी बस झुण्ड बनाकर इधर-उधरकर हंसी हंगामा करते नज़र आए। कुछेक तो बदतमीज़ी से बात करते भी दिखे। आईआईटी में आकर महसूस हुआ कि सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है।