Tuesday, July 28, 2009

बेमेल के बीच होती प्रतियोगिता...

टीवी पर क्या दिखाया जा रहा हैं, क्यों दिखाया जा रहा हैं, जो दिखाया जा रहा है उसका स्तर क्या हैं। इश सब पर लगातार बहस चल रही है। सच का सामना और इस जंगल से मुझे बचाओ इस बहस के केन्द्र बिन्दु है। हालांकि राखी का स्वयंवर भी ख़ासी चर्चा में है लेकिन, अब जल्द ही उसका अंत होनेवाला है और अब दर्शकों को इतंज़ार है शादी के बाद होनेवाली नौंटकी का। इस सब के बीच पुराने फ़ार्मेट पर आगे बढ़ रहे कुछ रीयलीटी शो भी जारी है जैसे कि लिटिल चैम्प। वही कलर्स पर चल रहा इंडियाज़ गॉट टैलेन्ट पुराना कॉन्सेप्ट होने के बाद भी ताज़गी भरा है। वजह है उसके जज और उनकी पसंद की प्रतिभा। पिछले शुक्रवार को इस शो के सेमिफ़ाइनल शुरु हुए। नौ अलग-अलग प्रतिभाओ को एक साथ मंच पर उतारा गया और अब फ़ैसला जनता के हाथ में हैं कि वो किसे फ़ाइनल में पहुंचाती हैं। हालांकि मैं अलग-अलग तरह की प्रतिभाओ के एक साथ प्रतिस्पर्धा के विरुद्ध हूँ। कई साल पहले एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में मेरी कविता को दूसरा पुरस्कार मिला था मैं जब दिल्ली उसे लेने आई तो मैंने निर्णायक मंडल से सिर्फ़ एक सवाल पूछा था कि आपने ये कैसे तय किया कि मेरी कविता प्रथम पुरस्कार वाली कहानी से कमतर थी। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया बस एक बच्ची की बात पर सब मुस्कुरा दिए। आज इंडियाज़ गॉट टैलेन्ट को देखकर मेरे मन में वही सवाल एक बार फिर खड़ा हो गया हैं। आखिर जनता ये कैसे तय करेगी कि एक 15 साल की बच्ची के गाने से बेहतर एक आदिवासी बच्चे का ब्रेक डांस है या फिर राजस्थानी गायकों से बेहतर पैर में स्टील की छड़ डाली सालसा डांसर हैं। यहाँ हरेक प्रतियोगी बेहतरीन है लेकिन, सभी की विधाएं अलग-अलग हैं। कई बार जो दिखने में अच्छा हो वो उतना अच्छा होता नहीं है और कई बार कुछ देखने तो बहुत आकर्षक नहीं होता लेकिन, असल में उस प्रतिभा को विकसित करने में बहुत मेहनत लगती है। कई लोग होंगे जो राजस्थानी लोक संगीत को बचाना चाहेंगे, तो कई लोग ऐसे होंगे जो कि एक 12 साल के आदिवासी बच्चे जिसने नाचने की कही कोई ट्रैनिंग नहीं ला फिर भी हूबहू माइकल जैक्सन की तरह नाचता है, को बचाना चाहते होंगे। हालांकि पहले सेमीफ़ाइनल के नतीज़े अभी आएं नहीं हैं लेकिन, मैं उत्सुक हूँ ये जानने के लिए कैसे जनता ये तय करती हैं कि नाचना बेहतर है या गाना....

Friday, July 24, 2009

जो पैदल चलते हैं उन्हें इज़्ज़त नसीब नहीं...

इस महानगर में रहते हुए इस बात का अंदाज़ा हो गया है कि सड़क पर चलनेवालों की कोई क़ीमत नहीं है। यहाँ सड़क पर इज़्ज़त तब तक ही है जब तक कि आप किसी गाड़ी पर सवार है और अगर वो गाड़ी चार पहिए की हुई थी तो शान से आपकी गर्दन ऊंची हो जाएगी इतनी कि आसामान में नज़रें गड़ जाएगी। ये मैं इसलिए नहीं कह रही हूँ क्योंकि मैं पैदल या बस की सवारी करती हूँ। सड़क पर चलते हुए ये मैं रोज़ाना महसूस करती हूँ। मेरे मोहल्ले में यूँ तो एक ही बस स्टॉप है वो भी ऐसा कि अगर चार लोग खड़े हो जाए तो पाँचवे के लिए जगह नहीं। बस स्टॉप लगभग सड़क पर बना हुआ है ऐसे में सवारियाँ वही खड़ी रहती है। बसवाले कही भी बस रोकते है। ऐसे में सड़क पर चल रही हरेक गाड़ी बस के इंतज़ार में खड़ी सवारी पर चिल्लाती रहती है। इतना ही नहीं दूसरी सड़कों पर तो बस स्टॉप भी नहीं है और सड़क किनारे पैदल यात्रियों के लिए कोई रास्ता भी नहीं है। ऐसे में सड़क पार करने में ही पाँच से दस मिनिट तक लग जाते है और सड़क पर गाड़ियाँ दौड़ा रहे लोगों की गालियाँ और खाओ। कई बार तो मेरी सड़क पर ही लड़ाई हो जाती है मैं चिल्ला उठती हूँ कि क्या तुम लोगों के लिए जन्मों तक यही खड़ी रहूँ। सच में इस शहर में पैदल चलनेवालों के लिए कोई जगह नहीं है। सड़क पर भले ही कितना भी जाम लग जाए लेकिन, चलना किसी गाड़ी में ही चाहिए। कुछ भी ये सड़कें केवल गाड़ीवालों के लिए ही तो चौड़ी हो रही हैं। आप लाख़ ये सोचते रहे कि ट्रैफ़िक जाम करने के लिए प्रदूषण रोकने के लिए पब्लिक ट्रान्सपोर्ट का उपयोग करना चाहिए लेकिन, असलियत यही है कि चार क़दम की दूरी भी यहां गाड़ी से ही सम्मानजनक होती है। यहाँ पाँव के सहारे चलनेवालों के लिए न तो इज़्ज़त है और न ही जगह है...

Monday, July 20, 2009

ये जीना भी कोई जीना है लल्लू...

मेरा सप्ताहांत टीवी देखकर ही बीतता है। फ़िलहाल टीवी के ट्रेन्ड के मुताबिक़ ये दिन पूरी तरह से टेलेन्ट शो के लिए समर्पित रहते हैं। ऐसे में मैं पूरे वक़्त यही देखती रहती हूँ। हालांकि ऐसे शो की समीक्षक आए दिन बखिया उखाड़ते रहते हैं, फिर भी मुझे इन्हें देखने में आनंद आता है। कइयों में सचमुच कई प्रतिभाशाली लोग आते हैं लेकिन, चैनल की नौंटकी के चलते ही मन कचवा जाता है। मम्मी के सुपर स्टार में भी यही हाल था। इसमें बच्चों के गाने पर कम और मम्मी के झगड़ों पर ज़्यादा ध्यान जाता था। ऐसा ही हाल है लिटिल चैम्प का है। इस शो में आए बच्चे इतना बढ़िया गाते है कि क्या कहने। उम्र 7 साल और गायकी ऐसी कि रोंगटे खड़े हो जाए। लेकिन, जजों की किचकिच और बच्चों के क्रिएट किए हुए मस्ती के पल देखकर मज़ा ख़त्म होने लगता है। लेकिन, फिर भी इन सारे सीरियलों को देखकर कभी-कभी मुझे ख़ुद पर शर्म आने लगती है। ऐसा लगता है कि इतनी बड़ी हो गई, पढ़ाई-लिखाई भी कर ली। लेकिन, फिर क्या। कुछ तो ऐसा किया ही नहीं मैंने कि कोई मुझे जाने। मुझमें तो ऐसी कोई प्रतिभा नहीं जिसका प्रदर्शन मैं भी कर सकूं। टीवी पर पसरे इस टेलेन्ट को देखकर लगता है कि मेरा ये जीना भी कोई जीना है... नौ साल की बच्ची स्टेज पर ऐसा भरतनाट्यम दिखाती है कि जज शेखर कपूर आंखें फाड़-फाड़कर बस देखते ही रह जाते हैं। या फिर 12 साल के अमरीक को जज कहते है कि ऐसा गाना गाओ कि जान पर बनी हो और बस यही बचने का रास्ता है। अमरीक ऐसा गाता है कि शेखर रो देते हैं और सोनाली अपनी ना को हाँ में बदल देती हैं। ये सब देखकर याद आया कि मैंने भी कभी शास्त्रीय नृत्य और संगीत सीखना शुरु किया था। चार साल सीखकर सब छोड़ दिया पढ़ाई के नाम पर। लेकिन, क्या हुआ पढ़ाई में भी तो मैं कोई तीर नहीं मार पाई। टेलेन्ट के इन शो देखकर अंदर ही अंदर खु़द पर गुस्सा आने लगता हैं। लगता है कि कितनी औसत हूँ मैं। मुझमें तो कोई हुनर ही नहीं है। तारे ज़मीन पर फ़िल्म की याद आ जाती है। लेकिन, उसके अंत में भी दिखाते है कि बच्चा चित्रकला प्रतियोगिता जीत जाता है। लेकिन, मुझे तो वो भी नहीं आती है...

Saturday, July 18, 2009

सिक्कों के शौकिन...


आज दिल्ली के राजेन्द्र नगर इलाक़े में रह रहे विशुद्ध दिल्लीवाले परिवार के घर जाना हुआ। मेरे कार्यक्रम के सिलसिले में वहां गई थी। यहाँ रहनेवाले सुमित एक कॉइन कलेक्टर है। उनके पास कई विरले सिक्के और नोट है। सुमित अपने बड़े भाई और दो दोस्तों के साथ मिलकर दिल्ली कॉइन सोसायटी नाम की एक संस्था चला रहे हैं। चार लोगों के साथ शुरु हुई ये सोसायटी अब तीन सौ लोगों का परिवार बन गई है। जब मैं उनके घर अपनी कैमरा यूनिट के साथ पहुंची तो प्यारी-सी तीन साल की द्ध्रति (सुमित की बेटी) ने हमारा स्वागत किया। सुमित एक ग्राफ़िक्स डिजाइनर हैं और एक एमएनसी के लिए काम करते हैं। मैंने पूछा कि महानगर की भाग-दौड़वाली ज़िंदगी में जहाँ इंसान को खु़द को ज़िंदा रखना दुभर लगता है ऐसे में इस शौक को कैसे ज़िंदा रखा है आपने। बेहद ही सरल और शांत स्वभाव के सुमित ने कहा कि बस ज़िंदा रखा है हमने ये हमारी ज़िंदगी का हिस्सा है इसके बिना तो जीवन की ही कल्पना नहीं की जा सकती हैं। सुमित को ये शौक़ उनके बड़े भाई से मिला है। ये दोनों ही भाई बचपन से सिक्के और नोट को इकठ्ठा करने में लगे हुए हैं। इनके साथ जुड़े इनके दो और साथी भी इस शौक को पूरे मन से निभा रहे है। पेशे से वकील और बैंक मैनेजर ये दोनों सज्जन सुमित और उनके भाई ऋषि के साथ मिलकर हर साल सिक्कों की प्रदर्शनी भी लगाते हैं। इनके पास दुनिया के अलग-अलग देशों के, अलग और अनोखे नोट मौजूद है। पाकिस्तान में हज पर जानेवाले यात्रियों के लिए अलग से छपाए गए नोट भी इनके पास है जो कि केवल सऊदी अरेबिया में ही मान्य है। नेपाल नरेश की ओर से जारी नोट, बर्मा से लेकर सूडान तक के नोट और एक मुस्लिम देश में छपे वो नोट भी इनके पास है जिन पर गणेशजी की तस्वीर मौजूद है।

हमारे देश में आज़ादी से पहले चलनेवाले नोट, आज़ादी के बाद छपे नोट, कुछ मिसप्रिंट हो चुके नोट, यूनिक नंबरवाले नोट सब कुछ इनके पास है। ये चारों अपनी व्यस्त ज़िंदगी से अपने इस शौक के लिए वक़्त चुरा ही लेते है। इन सभी का मानना है कि आप अगर चाहे तो अपने शौक को पूरा कर सकते है। अगर आप में से कोई भी सिक्कों को संग्रहित करने का शौक रखते हैं, तो आप इनसे सलाह ने सकते हैं साथ ही इनसे जुड़ भी सकते हैं। बस यहाँ क्लिक कीजिए...

Wednesday, July 15, 2009

तिल देखा ताड़ देखा...

मध्यप्रदेश मेरा गृह राज्य है। यही वजह है कि प्रदेश के हर शहर, हर रीत, हर इंसान से मैं एक जुड़ाव महसूस करती हूँ। लेकिन, कुछ महीनों पहले ही मध्यप्रदेश पर्यटन निगम की ओर से जारी ये नया विज्ञापन देखा। ये एक बेहतरीन विज्ञापन है। आँखों के ज़रिए पूरे प्रदेश के बारे में बताता ये विज्ञापन एक अलग और कलात्मक सोच का बेहतरीन नमूना है। वैसे तो ये विज्ञापन अब कुछ पुराना हो चुका है और आप में से कइयों ने इसे कभी न कभी टीवी पर देख भी लिया होगा। लेकिन, फिर भी मैं इस विज्ञापन की लिंक यहाँ दे रही हूँ









एक बार इसे ज़रूर देखे...

Monday, July 13, 2009

सच का सामना करते हुए हम लोग...


कल एनडीटीवी इंडिया पर चक्रव्यूह देखा तो मालूम चला कि हम लोग को प्रसारित हुए 25 साल बीत गए है। स्टूटियो में और कॉन्फ़्रैन्सिंग से जुड़े हर शख्स को हम लोग और बुनियाद जैसे सीरियलों की कमी अखर रही थी। हालांकि स्मृति इरानी को छोड़कर कोई भी और कलाकार आज के वक़्त का नहीं था। फिर भी ये बात तो माननी ही पड़ेगी कि इन 25 सालों में हम लोग बहुत कुछ बदल गए हैं। ख़ास करके टेलीविज़न के मामले में। लेकिन, कई लोग इसे बदलाव नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ पतन ही मानते हैं। जोकि मेरे ख्याल से ग़लत हो जाता है। कई जगह मैंने ऐसे लेख पढ़े हैं जिनमें आज के बेहूदें सीरियल्स की दुहाई दी जाती है। लेकिन, क्या सच में ये सभी बेहूदें है। क्योंकि जब शुरु हुआ था तो लोगों की घड़ियों की सूइयां थम जाया करती थी या फिर आज चल रहा बालिका वधू एक बेहतर बचलाव की उम्मीद लेकर आया है। माना कि जब ये सीरियल रबर की तरह खींचने लगते हैं तो वो झिलाऊ बन जाते हैं। लेकिन, आज का वक़्त उतना भी बुरा नहीं है। साराभाई वर्सेस साराभाई या फिर खिचड़ी या फिर बा बहू और बेबी इसके कुछेक उदाहरण हो सकते हैं। पहले हमारे देश के लिए टीवी ही एक अनोखी चीज़ थी और फिर उसमें सिनेमा की तरह एक कहानी को दिखाना और बडा़ आश्चर्य था। ये कुछ ऐसा ही था कि पहले के जो लोग सिनेमा देखने जाते थे उनके लिए हर हफ़्ते एक ही कहानी को धीरे-धीरे बढ़ते देखना कौतूहल का विषय था। लेकिन, समय बदला या फिर कहे कि भागने लगा। अब लोग एक हफ़्ते का इंतज़ार नहीं कर पाते हैं यही वजह है कि हम अब रोज़ाना के सीरियलों पर उतर आए हैं। पहले की तरह आज केवल एक ही चैनल भी नहीं हैं। अब पता नहीं कि लोग एक हफ़्ते तक उस सीरियल के लिए इतंज़ार करे न करे। और, इस सबसे बड़ी बात जो आज के वक़्त में बदली है वो है एकल परिवार जोकि शहरों में आकर बस गए हैं। उन शहरों में जहां न तो शाम को टहलने के लिए पार्क है और नहीं ऐसे पड़ोस जिनके साथ खाना खाकर ओटले पर वक़्त बिताया जा सके। आज तो ऐसी नौकरियाँ भी नहीं जो कि 5 बजे ख़त्म हो जाएं और पूरा परिवार सात बजे तक खाना खाकर साथ बैठा हो। शायद यही वजह है कि आज टीवी दोस्त बनता जा रहा है। अब तो परिवार में कोई सुबह की शिफ़्ट करता है तो कोई रात की। अब पड़ोस जब बात करनेवाला न हो तो इंसान टीवी को ही दोस्त बना लेता है। आज के इस दौर में टीवी पर जब निर्भरता इतनी बढ़ी है तो चैनल भी बढ़े है। ऐसे में एक इसांन एकसे ही सीरियल हर चैनल पर नहीं देख सकता है। औऱ, यही से जन्म होता है अलग-अलग तरह के फ़ार्मेट का। कोई घर की कहानी दिखाता है तो कोई कॉलेज की। कोई अस्पताल में रोमांस दिखाता है तो कोई गांव का भारत। ऐसे में कुछ कामयाब हो जाते है तो कुछ पीछे छूट जाते हैं। रीयलिटी शो भी इसी प्रपंच का हिस्सा है। आज के वक़्त में टीवी के साथ मिलनेवाला रिमोट सबसे घातक है।

दर्शक अगर चैनल पर किसी इंसान के जीवन का बहुत ही निजी सच देखकर रुकता है तो चैनलवाले सच का सामना भी करवा सकते हैं। वैसे, इन सच्चाइयों का सामना भी हम जैसे ही कुछ लोग करते है। आखिर एक मोटी रकम मिलती है ऐसा करने के एवज में...

Wednesday, July 8, 2009

ग्लोबल विलेज का ग्लोबल शोक...

अख़बारों में ख़बरों के साथ-साथ निजी सुख-दुख की ख़बरें छपना एक बहुत ही सामान्य बात हैं। जन्मदिन की बधाई और मृत्यु के दुख में सभी को शामिल करने ये परम्परा अख़बारों तक ही सीमित लगती थी। लेकिन, फिर टीवी पर कुछ ऐसे मार्निंग शो शुरु हुए जिनमें कि जन्मदिन की बधाइयां दी जाने लगी। इसी तरह अख़बारों में शादी के लिए दिए जानेवाले विज्ञापनों को टक्कर दी मैट्रीमोनियल साइट्स ने जिसे अब टक्कर दे रहा है टीवी विवाह से जुड़े शो दिखाकर। लेकिन, आज नेट पर तफ़री करते हुए कुछ बेहद ही रोचक और नई चीज़ पर नज़र पड़ गई। भास्कर की वेब साइट पर पहली बार मैंने शोक समाचार देखे। मैंने आज से पहले कभी किसी साइट पर ऐसे समाचार नहीं देखे थे। मुझे ये अनोखे लगे। आखिर अख़बार तो किसी एक क्षेत्र विशेष में ही सर्कुलेट होता है। हाँ अगर अख़बार बहुत मशहूर हो तो एक दिन बाद भी कई शहरों में पहुंचता हैं और लोग उसे पढ़ते हैं। लेकिन, फिर भी वो ग्लोबल इंटरनेट पर चस्पा होकर ही बन पाता है। ऐसे में आप विश्व के किसी भी कोने में बैठकर अपने शहर की ख़बरों पर क्लिक करके उन्हें पढ़ सकते हैं। और, ऐसे में शोक को भी ग्लोबल कर देना एक नई पहल है। अब आप बर्घिंग्म में बैठकर भी ये जान सकते हैं कि भोपाल में किस के घर किसकी मृत्यु हो गई हैं। ग्लोबल विलेज का ग्लोबल शोक...