Monday, March 22, 2010

बेचारे पुरुष...

महिलाओं को समाज में समान दर्जा दिलवाने के लिए कई लोग कई तरह से लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं। और, ये बात सच भी है कि इसके लिए उन्हें बहुत लंबा संघर्ष करना पड़ रहा हैं। दिल्ली को यूँ तो महिलाओं के लिए सुरक्षित कतई नहीं माना जा सकता है फिर भी दिल्ली की मैट्रो में हालात कुछ बेहतर हैं। या फिर ऐसा कहे कि पुरुषों को यहाँ मैंने कभी-कभी डरते भी देखा हैं। दरअसल, हर दूसरे दिन मुझे ये महसूस होता है कि मुझे देखकर सीट पर बैठा पुरुष कुछ अनमना-सा होने लगता हैं। इधर-उधर देखने लगता हैं। असल में मैट्रो में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों से साथ ही कुछ सीटें ऐसी होती हैं जिन पर लिखा होता हैं कि ज़रूरतमंद को सीट दे। ये वाक्य ऐसा है कि पढ़कर लगता हैं हो गई ये भी महिलाओं के लिए। ऐसे में सीट पर बैठे पुरुष के आगे जैसे ही महिला आकर खड़ी हुई वो पहले पीछे मुड़कर सीट की ओर देखने लगता हैं। अगर पीछे वो पीला परचा चिपका हो तो अचानक पुरुष को नींद आने लगती है। वो आंखें बंद कर लेता हैं। उस समय वो बिल्ली-सा लगता है जोकि दूध पीकर आँखें बंद कर लेती हैं कि अब उसे कोई नहीं देख सकता। सीट अगर पूरी तरह से अनारक्षित हो तब भी मैट्रो में लगातार हो रहा अनाउन्समेंट कि महिलाओं, विकलांगों और वरिष्ठ नागरिकों को सीट दे उनके मन में छूरी की तरह घुपता रहता हैं। पुरुष भीड़ में खड़ी सामान संभाल रही महिलाओं को देखते हैं और मुंह फेर लेते हैं। लेकिन, मुंह फेरने से कान में जा रही आवाज़ आना बंद नहीं होती हैं। बेचारे पुरुष...

Sunday, March 14, 2010

जो दबता है, उसे दबाना बनता है...

आम जनता को सेवाएं देनेवाली कंपनियों के विज्ञापनों को देखकर आपको एक पल के लिए लगेगा कि ये लोग मुनाफ़े का धंधा नहीं बल्कि पुण्य का काम कर रहे हैं। ऐसे ही कई सेवा कंपनियों के विज्ञापन तो ऐसे होते हैं कि बस एक फोन किया आपकी दुनिया बदल गई। लेकिन, जब यही कंपनियाँ असलियत के धरातल पर उतरती हैं तो किसी दैत्य से कम नज़र नहीं आती हैं। एक लोन लेने के लिए पलकें बिछाए और फोन पर फोन घुमानेवाली कंपनियाँ लोन के लिए अर्ज़ी देने पर ऐसा व्यवहार करती हैं कि जैसे उधार दे रही हो। मैं फिलहाल ऐसे ही अनुभव से गुजर रहा हूँ। बड़ी मुश्किल और मशक्कत के बाद मैंने कम्प्यूटर खरीदा है। उसे खरीदे हुए तीन महीने होनेवाले है इंटरनेट कनेक्शन नहीं लगवा पाया हूँ। किसी के दाम ज़्यादा, तो किसी की स्पीड कम, तो किसी का कवरेज नहीं, तो कोई मेरे रहने-खाने से लेकर सोने तक का हिसाब साथ मांगता है। ऐसे में दम साधकर एक कनेक्शन आखिरकार मैंने ले ही लिया। कनेक्शन लिए हुए चार दिन हो गए है और आज तक एक्टिवेशन के नाम पर कुछ नहीं। फोन कर-करके और लड़-लड़कर ऐसी हालत हो गई है कि अगर आज वो कनेक्ट हो भी जाए तो शायद मेरा इस्तेमाल करने का मन ना हो। ऐसे में जब भी उस कंपनी का ग्राहक सेवा से जुड़ा विज्ञापन देखता हूँ तो मन और बिगड़ जाता हैं। लेकिन, फिर लगता है कि कमी ख़ुद में ही है। एक ग्राहक के रूप में हम अपने अधिकारों के बारे न तो कुछ जानते हैं और ना ही जानना चाहते हैं। ग्राहकों के क्या हक़ है, हम क्या-क्या कर सकते हैं इसकी जानकारी हमें ना के बरारबर हैं। ऐसे में अगर हमारे साथ कंपनी इस तरह का बर्ताव करते है तो इसमें ग़लत क्या है। जो दबा है उसे तो हरेक दबाता ही हैं...

Thursday, March 4, 2010

क्या करें क्या ना करें...

प्यार करना बच्चों का खेल नहीं और उससे भी मुश्किल है उस प्यार को ज़िंदगीभर शादी के रूप में निभाना। आज के इस समाज में प्रेम विवाह में जो तेज़ी आई बदलाव तो दर्शाती है साथ ही युवाओं की फैसले लेने की क्षमता भी बताती है। ये बात अलग है कि पिछले पाँच से छः सालों में हुए ये फैसले आनेवाले कुछ दस सालों में बताएंगें कि फैसले सही थे या ग़लत। प्रेम विवाह के लिए असहमति रखनेवाले माता-पिता बच्चों से पल्ला झाड़ लेते हैं लेकिन, इसे स्वीकृति देनेवाले भी आनेवाली परिस्थितियों में बच्चों का साथ ना निभाने की धमकी साथ दे देते हैं। सारांक्ष ये कि प्रेम विवाह ढ़ेढ़ी खीर हैं। लेकिन, पिछले कुछ दिनों से आसपास के अनुभवों को सुनकर लगता है कि अरेन्ज शादियाँ इनसे भी मुश्किल हैं। मेरी दोस्त की शादी कुछ महीनों बाद है वो प्रेम विवाह कर रही है। उसकी बड़ी बहन की शादी अभी नहीं हुई है वजह ये कि उसके माता-पिता बहन के मुताबिक़ लड़का नहीं खोज पा रहे हैं। मेरे बड़े भाई के लिए लड़की खोजना भी हमारे लिए मुश्किल का काम बनाता जा रहा है। इतनी सारी बातों का ध्यान रखना, हर कसौटी पर लड़का और लड़की को परखना कोई आसान काम नहीं। कल मेरी दोस्त का फोन आया उसे देखने एक लड़का आनेवाला है। वो लड़के से माता-पिता की इजाज़त से फोन पर बात कर चुकी है। लड़का उसे अच्छा और समझदार लगा। इसी बीच उसके पिता उससे मिलने गए और उन्हें वो कुछ ख़ास नहीं लगा। माँ-बाप हमेशा ही बच्चों के लिए बेस्ट खोजते हैं और उन्हें अपने बच्चे सबसे सुन्दर लगते हैं। मेरी दोस्त बीच में फंसा हुआ-सा महसूस करने लगी है। बातों-बातों में ही उसने कहा कि क्या यार ऐसी ही परिस्थिति में पड़ना तो अपनी पसंद से ही ना कर लेती मैं शादी। सच है माता-पिता की उम्मीदों, सामनेवाले इंसान और उसके परिवार की उम्मीदों सभी का बोझ आज उसके कंधों पर हैं। ऐसे में फैसला लेना और उस सही या ग़लत फैसले को ज़िंदगीभर ढोना बहुत ही भयानक होगा। समाज बदल रहा है लेकिन, सिर्फ़ प्रेम विवाह के मामले में नहीं बल्कि अरेन्ज शादियों के मामले में भी। अब माता-पिता अपनी मर्ज़ी चलाते हैं तो लेकिन, बच्चों के कंधों पर पसंद-नापसंद की शर्त पर...

अति सर्वत्र वर्जयेत

अति किसी बात की ग़लत होती है। ये बात जानते हुए और मानते हुए भी मुझे लगता है कि कई बार मैं अति कर जाती हूँ। नियमों का पालन करने के मामले में कुछ हद से ज़्यादा हूँ। कुछ खाने के बाद अगर डस्टबीन ना मिले तो फेंकनेवाला कचरा हाथों में या बैग में लिए घूमती रहती हूँ। बस में पीछे से चढ़ने और आगे से उतरने की कोशिश करती हूँ। बस स्टॉप पर ही खड़ी रहती हूँ, ये बात अलग है कि बस कभी-कभी ही स्टॉप पर रुकती हैं। ख़ुद तो नियमों का पालन करती हूँ लेकिन, समस्या ये है कि चाहती हूँ कि लोग भी ऐसा ही करें। उनके ऐसा नहीं करने पर मन दुखी हो जाता है। सच में नियमों के पालन की ये अति मुझे बहुत दुख देती है। दिल्ली में विश्व स्तर की मैट्रो चल जाने के बाद उम्मीद थी कि सिविक सेन्स में सुधार आएगा। लेकिन, अफसोस ऐसा कुछ हुआ नहीं। सिविक सेन्स में ये कमी पढ़े-लिखे लोगों में ज़्यादा नज़र आती है। कल ही एक पढ़े-लिखे लड़के को मैट्रो में थूकते देखा। मन तो ऐसा हुआ कि उसके एक थप्पड़ मार दूँ। नहीं तो उसे दो बातें ही सुना दूँ। लेकिन, मैं कुछ नहीं बोल पाई चुपचाप वहाँ यूँ ही खड़ी रही। मैं कई बरा ये समझ नहीं पाती हूँ कि क्या सच मे पढ़ाई लोगों को सभ्य बनाने का माद्दा रखती हैं...

Wednesday, March 3, 2010

नशे की दुनिया

भुवन
ऑफ़िस आते जाते रोज़ाना ही एक न एक नशेड़ी सड़क पर औंधे मुंह गिरा पड़ा नज़र आ जाता हैं। हम तरक्की कर रहे हैं। पहले बस में धक्के खाते थे और अब झट से मैट्रो से उड़कर ऑफ़िस पहुंच जाते हैं। लेकिन, सड़क से आसमान तक पहुंच जाने के बाद भी क्या आम आदमी की हालत में कुछ सुधार आया है। मेरा ऑफ़िस जहांगीरपुरी के पास है और इस इलाक़े में मज़दूरों की संख्या शायद सबसे ज़्यादा है। दिनभर मंडी में बदन तोड़ मेहनत करने पर शाम को मिलता है इन्हें कुछ दस या बीस रुपए। ऐसे में ये लोग इस बीस रुपए का खाना नहीं खाते बल्कि दस रुपए की बचत करते हुए नशा कर लेते हैं। खाना खाते ही कुछ देर में पच जाएगा लेकिन नशा घंटों तक बेसुध रखेगा। तब न भूख लगेगी न प्यास। भूख इंसान से जो कराएं वो कम। रोज़ाना सड़कों के किनारे और कभी-कभी बीच में पड़े इन लोगों को देख चार साल पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं। कॉलेज में डॉक्यूमेन्ट्री बनाना कोर्स का हिस्सा थी। ऐसे में मैंने स्टेशनों और गंदी बस्तियों में रहनेवाले नशेड़ी बच्चों को अपना विषय बनाया था। पहले दिन जब अपना कैमरा उठाए में पुराने भोपाल के एक एनजीओ शेल्टर होम में गया तो वहाँ का नज़ारा मेरे लिए बिल्कुल अलग था। फटे पुराने और गंदे कपड़ों में छोटे-छोट बच्चे इधर-उधर खेल रहे थे। कुछ गाना गा रहे थे कुछ पढ़ रहे थे, तो कुछ बस यूँ ही शून्य को निहार रहे थे। वहाँ काम करनेवालों ने बताया हम यूँ ही रोज़ाना यहाँ आते हैं और सुबह से शाम तक बैठे रहते हैं। जैसे ही बच्चे आते हैं हम उनकी मदद के लिए तैयार हो जाते हैं। कुछ एक बच्चे तो ऐसे होते है जो इतना भयंकर नशा करते हैं कि उन्हें संभालना ही सबसे बड़ी चुनौती होती हैं। उन्होंने बताया कि पहले वो बस्तियों में जाकर ऐसे बच्चों को यहाँ लाते थे लेकिन, इनके माँ-बाप ही इन्हें ऐसे रखना चाहते हैं ऐसे में वो इन्हें लाने नहीं देते थे। ये जानकर बहुत दुख हुआ और हैरानी भी की माँ-बाप ख़ुद ही बच्चों को नर्क में डाल देते हैं। अगर वो पाल नहीं पाते हैं तो वो उन्हें पैदा ही क्यों करते हैं। खैर, ऐसे बच्चों को कैमरे क़ैद किया और कइयों से बात की। इस गंदगी और नशे की दुनिया में लिप्त इन बच्चों में ज़िंदा बचपना देख लगाकि कितना क्रूर भी हो सकता है भाग्य। इसके बाद में अपना कैमरे लिए पहुंच गया स्टेशन के आसपास पड़े कूड़े के ढ़ेरों पर। हाथों में सूलोशन से भीगे कपड़े थामे देखा एक सुन्दर भविष्य के विकृत होते स्वरुप को। आगे बढ़ता गया और देखता गया कि कैसे इंसान की ज़िंदगी किसी गंदी नाली में पड़े कीड़े से भी बदतर हो सकती है। आज जब देश की राजधानी में पड़े इन नशेड़ियों को देखता हूँ तो लगता है कि इनका बचपन भी कुछ ऐसे ही बीता होगा। अपने ज़िंदा माँ बाप की इन नाजायज़ औलादों का कोख में ही मर जाना शायद बेहतर होता हैं। इन लोगों के लिए ये दुनिया ख़ूबसूरत नहीं बल्कि सज़ा है।