Tuesday, February 8, 2011

स्त्रीलिंग होने का अर्थ...

दिल्ली में चलनेवाली मैट्रो ट्रेन में महिलाओं के लिए आरक्षित अलग कोच कई पुरुषों को ग़लत लगता है। पुरुषों की दलील है कि महिलाएं तो कंधे से कंधा मिलाकर चलती है। तो फिर क्यों अब वो अलग कोच चाहती है। महिलाओं की बराबरी पुरुषों को कितनी पसंद है और कितनी नापसंद इसका जवाब तो कोई पुरुष ही दे सकता है लेकिन, महिलाओं की हिम्मत को उनकी अकड़ और उनकी परेशानियों को उनकी ढाल माननेवाले पुरुषों के लिए ही एक सर्वे हुआ है। अगर वो चाहे तो इस लेख को पढ़ने के बाद महिलाओं की तकलीफ़ों को समझने और सही मानने की एक नए सिरे से कोशिश शुरु कर सकते हैं...

गैर सरकारी संगठनों की ओर से हुए एक सर्वे के मुताबिक़ भारत में केवल 12 फ़ीसदी महिलाओं को ही माहवारी के दौरान साफ़-सुथरे नैपकिन उपयोग के लिए मिल पाते हैं। ये आंकड़ा चौंकानेवाला है। कम से कम मेरे लिए। शहरों में रहनेवाली और जीने के लिए ज़रूरी चीज़ों को आसानी से पा लेनेवाली मुझ जैसी लड़की के लिए ये आंकड़ा चौंकाने के साथ डराने का भी काम कर रहा है। देश की मात्र 12 फ़ीसदी महिलाएं नैपकिन का इस्तेमाल कर पाती है। संभव है कि ये महिलाएं मुझ जैसी शहरी ही हो। मतलब कि गांव और कस्बों में हर महीने महिलाओं को चार से पाँच दिन बद से बदतर हालात में गुजारने होते होंगे। बेहतरीन क्वालिटी और हाईजीनिक नैपकिन्स के इस्तेमाल के बाद भी कई बार दर्द और परेशानी जब सहन नहीं होती है तब उनकी क्या हालत होगी जो कपड़े या फिर पॉलीथीन का इस्तेमाल करती हैं। इन दिनों में साफ सफाई के साथ शारिरीक तौर पर आराम बेहद ज़रूरी माना जाता है। ऐसे में सर्वे के मुताबिक़ कई महिलाएं इस दौरान राख या रेत का भी प्रयोग करने के लिए मजबूर है और काम उतना ही जितना रोज़ाना होता है। राख या रेत के इस्तेमाल से कई महिलाओं को घाव हो जाते हैं और कई तरह की बीमारियाँ भी हो जाती हैं। गांवों में महिलाओं को इस दौरान अछूत मान लिया जाता है। कोई उन्हें छूता तक नहीं है और न ही उन्हें किसी मंगल कार्य में शामिल होने दिया जाता हैं। माहवारी के दौरान घर के काम या किचन में घुसने की मनाही के पीछे मूल वजह महिला को आराम देना और स्वच्छता को बनाए रखना ही होगी, जो आगे चलकर रूढ़ीवादी सोच में बदल गई। गांवों से इतर शहर में रहनेवालों के लिए तो टीवी पर हर ब्रेक के दौरान आनेवाले सैनेटरी नैपकिन के विज्ञापन को देखकर तो ये आभास होता है कि अब तो ये एक बेहद सामान्य सी बात है कि सभी को इसके बारे में मालूम है और महिलाएं अब इसका इस्तेमाल भी करती हैं। लेकिन, सच तो ये है कि महिला के लिए नैपकिन खरीदना परिवार के अन्य सदस्यों को एक खर्चा लगता है, उसकी मूल ज़रूरत नहीं। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने मिलकर पुराने कपड़ों को जोड़कर नैपकिन बनाने की शुरुआत की है जिसकी क़ीमत 1 रुपए प्रति नैपकिन पड़ेगी। लेकिन, जहाँ महिला को पहनने को कपड़े और खाने के लिए पैसे ना हो वहाँ एक रुपए का नैपकिन भी बहुत बड़ी और मंहगी बात हैं। कई बार मुझे लगता है हम सच में आगे बढ़ रह रहे हैं। देश की महिलाएं पुरुषों से कन्धा मिलाकर चल रही है। बैंकों की सीईओ महिलाओं की मुस्कुराती तस्वीरों को देखकर लगता है कि महिलाएं अब किसी बात में पीछे नहीं। लेकिन, इन्हीं ख़बरों के बीच छुपी ये एक कॉलम की ख़बर सर से पैर तक एक झुरझुरी फैला देती है।

Monday, February 7, 2011

काल्पनिक किरदारों के ज़रिए वास्तविकता दिखाती सिनेमा...

तेरे घर के सामने। देव आनन्द और नूतन की ये फ़िल्म मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है। इस फ़िल्म की कहानी से ज़्यादा दोनों के बीच का प्यार और उस प्यार के लिए उनकी लड़ाई और हिम्मत मुझे ज़्यादा पसंद है। साल 1963 में आई इस फ़िल्म को उस वक़्त आधुनिक ही माना गया होगा। क्योंकि ये तो वो दौर था जहाँ प्रेम विवाह बहुत कम होते थे और उस पर इस तरह से माता-पिता की मर्ज़ी के विरूद्द तो और भी नहीं। सामाजिक ढ़ांचा ज़रूर ऐसी बातों को स्वीकृति देने लगा होगा लेकिन, केवल बातों में। मतलब ये कि युवा ये ज़रूर मानने लगे होंगे कि अपनी मर्ज़ी से किसी से प्रेम और फिर शादी की जा सकती हैं लेकिन, कितने करते होगे और कितने कर पाते होंगे इस पर मुझे शक़ हैं। ये हाल हमेशा से ही रहा हैं। सिनेमा कई बार समाज की वो तस्वीर दिखाती हैं जोकि लोगों की बातों में तो है लेकिन, कर्मों में नहीं। अगर हम आज की ही बात करें। तो कई ऐसे हैं जोकि खुले संबंधों और विचारों की बात तो करते हैं लेकिन, जब करने की बारी आती हैं तो पीछे हट जाते हैं। लव आज कल की मीरा ने प्यार किया, सेक्स किया फिर खुशी से ब्रेक भी। फिर किसी और से प्यार और शादी। लेकिन, दूसरे ही दिन पति से ये बोलकर अलग हो गई कि कुछ ठीक नहीं लग रहा हैं। मीरा आज की ही लड़की हैं लेकिन, ऐसी कितनी लड़कियाँ असल में हैं जोकि ऐसा कुछ कर सकती हैं। हाँ, सोचने या इस तरह की बातों को बोलनेवाली कई मिलेंगी। सिनेमा के ज़रिए हम कई बार वो ज़िंदगी जी लेते हैं जोकि हम जीना तो चाहते हैं लेकिन, हिम्मत नहीं कर पाते हैं। ऐसे कई और उदाहरण हो सकते हैं जहाँ फिल्म के मुख्य किरदारों ने ऐसे विद्रोह किए हैं जोकि हमारे मन में कही ना कही दबे पड़े हैं। वो केवल प्यार के मामले में ही नहीं है और कई मामलों में हैं। रंग दे बंसती देखते ही हमारे रौंगटे खड़े हो जाते हैं और एक जोश भर जाता हैं। लेकिन, जो फ़िल्म में हुआ वो तो छोड़िए हम तो ख़ुद को तक सही नहीं कर पाते हैं। थ्री ईडियट देखकर निकलते वक़्त मेरे दोस्त ने कहा कि यार केवल काबलियत नहीं किस्मत भी थी आमिर के कैरेक्टर की। ये सच भी है मैं काबिल तो हूँ लेकिन, अगर मुझे कोई मौक़ा ही ना दे तो? किस्मत से मौक़ा मिलता है और जो काबिल होता है वो उसे भुना लेता है। सिनेमा हमारे भीतर छुपे उस हारे हुए और ख्यालों में खोए हुए इंसान को खुश करती हैं जो अपने मन से जीना चाहता है लेकिन, जी नहीं पाता हैं। सिनेमा में हरेक पात्र काल्पनिक होता है वो भले ही सच में हो तब भी...

Wednesday, February 2, 2011

मिसेज तेन्दुलकर

टीवी पर आनेवाले आधे ये ज़्यादा धारावाहिकों में महिलाओं को आग लगाऊं और कुटिल बुद्धि दिखाया जाता था। महिलाओं का दबदबा इतना ज़्यादा कि कुटिल महिला से लड़ने के लिए भी महिला ही सामने आती थी। खैर, इस बीच दौर आया प्रतियोगिताओं का। कही नाचना तो कही गाना। और, अब बारी है रीयलिटी टीवी की। हरेक चैनल ऐसे शो की भरमार है। इसी बीच स्टार ने अपने चैनल का लुक ही महिलाओं के हिसाब से कर दिया। चैनल कितना महिलाओं के प्रति संजीदा और कितना टीआरपी के प्रति इसके बारे में मुझे शक़ है। चैनल पर शुरु हुआ नया रीयलिटी शो- वाइफ़ बिना लाइफ़। इस शो में पत्नी जाती है छुट्टी पर और पति संभालते हैं घर और बच्चों को। पूरे तौर पर व्यवसायिक इस शो के लिए ऐसे भावुक एड तैयार किए गए हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि वाह, इन्हें कितनी फ़्रिक है महिलाओं की। वही इसके पलट सब पर शुरु हुआ नया कार्यक्रम मिसेज तेन्दुलकर मुझे बेहतर लगा। इस कार्यक्रम में एक पति अपनी पत्नी की खुशी और उसके करियर को ख़ुद से ज़्यादा अहमियत देता हैं। सब कुछ छोड़कर वो घर और बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाने की ठानता है। लोगों का ऐसी बातों पर हंसना और आश्चर्य चकित होना सामान्य है। सीरियल को शुरु हुए दो दिन हुए हैं और इसकी शुरुआत मुझे भायी है। वजह कॉन्सेप्ट से ज़्यादा हैट्स ऑफ़ प्रोडक्शन और देवेन भोजानी है। दोनों का कॉम्बीनेशन कमाल है। सब पर ही आनेवाला दूसरा हिट सीरियल तारक मेहता का उल्टा चश्मा मुझे पसंद तो हैं लेकिन, उसमें भारतीय नारी के प्रोजेक्शन से मुझे कभी कभी चिढ़ होती हैं। दया का अपने पति को टप्पू के पापा कहना मुझे हमेशा अखरता है। खैर, इसी पर आनेवाला सजन रे झूठ मत बोलो और एफ़आईआर भी मुझे पसंद है। ये चैनल एक ऐसा चैनल है जो अकेले रहनेवालों के लिए बहुत बड़ा सहारा है। आप आराम से टीवी चलाकर अपने काम कर सकते हैं। ये आपको अहसास करवाता रहता हैं कि कही कोई मेला लगा है। मिसेज तेन्दुलकर पुरुषों की दबानेवाली और महिलाओं की एजी ओजीवाली सोच को बदल पाएगा इस बात पर तो शक़ है। लेकिन, मुझे हंसाने में ये ज़रूर कामयाब होगा...