कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Monday, February 7, 2011
काल्पनिक किरदारों के ज़रिए वास्तविकता दिखाती सिनेमा...
तेरे घर के सामने। देव आनन्द और नूतन की ये फ़िल्म मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है। इस फ़िल्म की कहानी से ज़्यादा दोनों के बीच का प्यार और उस प्यार के लिए उनकी लड़ाई और हिम्मत मुझे ज़्यादा पसंद है। साल 1963 में आई इस फ़िल्म को उस वक़्त आधुनिक ही माना गया होगा। क्योंकि ये तो वो दौर था जहाँ प्रेम विवाह बहुत कम होते थे और उस पर इस तरह से माता-पिता की मर्ज़ी के विरूद्द तो और भी नहीं। सामाजिक ढ़ांचा ज़रूर ऐसी बातों को स्वीकृति देने लगा होगा लेकिन, केवल बातों में। मतलब ये कि युवा ये ज़रूर मानने लगे होंगे कि अपनी मर्ज़ी से किसी से प्रेम और फिर शादी की जा सकती हैं लेकिन, कितने करते होगे और कितने कर पाते होंगे इस पर मुझे शक़ हैं। ये हाल हमेशा से ही रहा हैं। सिनेमा कई बार समाज की वो तस्वीर दिखाती हैं जोकि लोगों की बातों में तो है लेकिन, कर्मों में नहीं। अगर हम आज की ही बात करें। तो कई ऐसे हैं जोकि खुले संबंधों और विचारों की बात तो करते हैं लेकिन, जब करने की बारी आती हैं तो पीछे हट जाते हैं। लव आज कल की मीरा ने प्यार किया, सेक्स किया फिर खुशी से ब्रेक भी। फिर किसी और से प्यार और शादी। लेकिन, दूसरे ही दिन पति से ये बोलकर अलग हो गई कि कुछ ठीक नहीं लग रहा हैं। मीरा आज की ही लड़की हैं लेकिन, ऐसी कितनी लड़कियाँ असल में हैं जोकि ऐसा कुछ कर सकती हैं। हाँ, सोचने या इस तरह की बातों को बोलनेवाली कई मिलेंगी। सिनेमा के ज़रिए हम कई बार वो ज़िंदगी जी लेते हैं जोकि हम जीना तो चाहते हैं लेकिन, हिम्मत नहीं कर पाते हैं। ऐसे कई और उदाहरण हो सकते हैं जहाँ फिल्म के मुख्य किरदारों ने ऐसे विद्रोह किए हैं जोकि हमारे मन में कही ना कही दबे पड़े हैं। वो केवल प्यार के मामले में ही नहीं है और कई मामलों में हैं। रंग दे बंसती देखते ही हमारे रौंगटे खड़े हो जाते हैं और एक जोश भर जाता हैं। लेकिन, जो फ़िल्म में हुआ वो तो छोड़िए हम तो ख़ुद को तक सही नहीं कर पाते हैं। थ्री ईडियट देखकर निकलते वक़्त मेरे दोस्त ने कहा कि यार केवल काबलियत नहीं किस्मत भी थी आमिर के कैरेक्टर की। ये सच भी है मैं काबिल तो हूँ लेकिन, अगर मुझे कोई मौक़ा ही ना दे तो? किस्मत से मौक़ा मिलता है और जो काबिल होता है वो उसे भुना लेता है। सिनेमा हमारे भीतर छुपे उस हारे हुए और ख्यालों में खोए हुए इंसान को खुश करती हैं जो अपने मन से जीना चाहता है लेकिन, जी नहीं पाता हैं। सिनेमा में हरेक पात्र काल्पनिक होता है वो भले ही सच में हो तब भी...
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