Friday, November 13, 2009

चोर-चोर कज़िन हो गए

बात बहुत बड़ी नहीं है। फिर भी मज़ेदार है और बदलाव की सूचक है। कल रोज़ाना की तरह 10 बजते ही सब टीवी ट्यून किया। लापतागंज जो देखना था। इतने से ही दिनों ये मेरा पसंदीदा हो गया है। कसी स्क्रीप्ट, बेहतरीन संवाद और बढ़िया एक्टिंग के चलते ये मुझे पसंद हैं। खैर, कल के एपिसोड का छोटा-सा संवाद मेरे दिमाग़ में अभी तक घूम रहा है। सीन कुछ यूँ था कि गांव का रहनेवाला दूसरे से पूछता है कि- भैया आपका हमारी मौसी से रिश्ता क्या है। जवाब में गांववाले का भांजा बोलता है- कि मामाजी आपकी मौसी की मामी की चाची की.... तब ही उसका मामा चुप करवाकर बोलता है कि- हम उनके कज़िन हैं... इसके बात आगे बढ़ जाती हैं। लेकिन, मेरा दिमाग़ वही अटका हुआ है। ये संवाद जताता है कि कैसे गांव में भी शहरी या कहे विदेशी कल्चर को अपनाया जा रहा है। कैसे ममेरा भाई भी कज़िन है और चाचेरा भाई भी कज़िन हैं। कई बार मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि किसी को भाई या बहन बोलने में जो महसूस होता है वो कज़िन बोलने में नहीं। खैर, अब मैं इस चिंता में हूँ कि चोर-चोर मौसेरे भाई अगर कल को चोर-चोर कज़िन हो गए तो किसी को कैसे मालूम चलेगा कि चोर का बाप मामा है या चाचा...

4 comments:

Anshu Mali Rastogi said...

कजिन कहने से क्या हासिल। चोर-चोर को सेकुलर कहिए।

रंजन said...

हा हा हा.. वैसे लापतागंज लाजबाब है..

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

अच्छा लिखा है आपने दीप्ती जी , इसे कविता की लाइनों में बोलू तो;
रिश्ते नाते सब छिन्न-भिन्न हो गए
चोर-चोर यहाँ सब कजिन हो गए
सेकुलरिज्म का नारा भी फाउल निकला
हेडली का दोस्त, महेश भट्ट का राहुल निकला !
यह सब सुन-सुनके हम भी खिन्न हो गए
चोर-चोर यहाँ सब कजिन हो गए

कुश said...

बात तो पते की है..लापतागंज में भी पते की बात ढूंढ ली आपने. कमाल है..