मेरे दिल्ली के तीसरी मंज़िल पर तपते हुए कमरे में आजकल कुछ नए मेहमान आने लगे हैं। साल 2006 में दिल्ली आने के बाद शहर को समझने और कुछ संभलने के बाद उसके अगले ही साल से मैंने अपने रूम के आगे एक मिट्टी के बर्तन में पानी भरकर रखने लगी थी। कुछ दिनों बाद गर्मियों के दिनों में पानी के साथ ही बाजरा भी डालने लगी। सुबह जब ऑफिस के लिए निकलती तो इस उम्मीद के साथ कि आज शआम को कुछ दाने कम मिलेंगे। लेकिन, हर बार मुझे निराशा हाथ लगती। खैर, पूरे चार साल के बाद कुछ दिन पहले गर्मियों के मौसम को देखते हुए मैंने एक बार फिर उम्मीद के साथ पानी और बाजरा रखना शुरु किया। एक दिन अचानक आवाज़ें सुनाई दी। बाहर आकर देखा तो बाजरे के दानों पर कई अलग-अलग किस्म की चिड़िया झूम रही थी। पानी भी पी रही थी कुछ। सच में इतनी खुशी मुझे शायद ही कभी हुई हो। आजकल तो हालात कुछ ऐसे हैं कि अगर सुबह-सुबह पानी और बाजरा नहीं रखा तो उनका चिल्ला शुरु हो जाता हैं। सच कहूँ तो केवल इन मेहमानों के समय रहते सत्कार करने के चक्कर में मैं समय पर उठ जाती हूँ। खुश भी रहती हूँ कि कोई तो है दोस्त जो मेरे घर नियम बांधकर आते हैं और मुझे अपने मासूम से मतलब के लिए ही सही डांटता भी हैं।
3 comments:
nice story
मेहमाननवाज़ हों तो मेहमान आ ही जाते हैं.
सुकून देता संस्मरण
कितना अच्छा लगता होगा ना
प्रणाम
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