Friday, July 30, 2010

चाबी से चलनेवाला गुड्डा

हमारे समाज में प्रतिष्ठा किसी भी दूसरी वस्तु या इंसान से बड़ी है। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है प्रतिष्ठा के नाम पर होनेवाली हत्याएं। हालांकि अब इस पर लगाम लगाने के लिए सरकार क़ानून बनाने के बारे में सोच रही है। इससे इतर समाज का एक तबका इससे निपटने के लिए कमांडो का गठन कर चुका है। नाम है- लव कमांडो। जी हाँ, लव कमांडो के नाम से शुरु हुई इस फोर्स में वकील से लेकर डॉक्टर तक हरेक तबके लोग शामिल है। ये वो लोग है जोकि समाज में हो रही ऐसी हत्याओं को रोकना चाहते हैं। जोकि एक ऐसे समाज कि स्थापना करना चाहते हैं जहाँ कोई जातिगत बंधन ना हो। इस कमांडो ने अब तक कई शादियां करवाई हैं, कइयों की जान बचाई है। इसी मुद्दे पर पिछले हफ्ते मैंने एक रिपोर्ट तैयार की। रिपोर्ट किसी एक कमांडो या फिर केवल ऑनर कीलिंग से कुछ आगे थी। मुद्दा था- एक ऐसा समाज जहाँ एक इंसान आज़ादी से जी सकें। जहां किसी भी बात पर खौफ इतना ना बढ़ जाए कि मरना या मारना ही अंतिम रास्ता रह जाए। दरअसल जब शूटिंग की शुरुआत की थी तो दिमाग में केवल ऑनर कीलिंग के नाम पर हो रही युवाओं की मौत और लव कमांडो जैसी संस्थाएं ही दिमाग में थी। लेकिन, एक दिन शूट के दौरान महिला आयोग के सामने एक ऐसे जोड़े से मुलाक़ात हुई जोकि घरवालों से छुपकर भाग रहा था। उनकी गलती उनका प्यार था। बातों बातों में ही उन्होंने बताया कि वो एक ही जाति के हैं और दोनों के गोत्र भी अलग है। मैं चौंक गई। मुझे लगाकि ये तो समाज के नियमों के एकदम अनूकुल है फिर क्या परेशानी। तो मालूम हुआ कि माँ बाप को बस इस बात पर एतराज़ है कि उन्होंने अपनी मर्ज़ी से शादी क्यों की। मेरा दिमाग चकरा गया। अब तक समाज के नाम पर होनेवाली गुन्डागर्दी का ये एक नया कोण था। कही ये तो नहीं कि समाज के नाम पर लोग केवल अपनी मर्ज़ी को चलाना चाहते हैं। वो अपने बच्चों को अपनी जमा की गई उस पूंजी के बराबर मानते हैं जोकि निर्जीव होती हैं। जिसके पास खुद का दिमाग या उससे बढ़कर एक दिल नहीं होता है। शायद आज ज़रूरत एक जातिविहीन समाज से बढ़कर कुछ ऐसे माता-पिता और बुज़ुर्गों की हैं जोकि युवाओं को इंसान समझकर उन्हें सही गलत समझाए लेकिन, उन पर अपनी समझ ना थोपे। एक बच्चे को पालनेवाला, उसे सिखानेवाला, उसे समझानेवाला हरेक बात का अर्थ और हिदायत देनेवाला एक बड़ा ही होता है। ऐसे में जब बुज़ुर्ग खुद ही एक बच्चे को परिपक्व और समझदार होने में मदद करते हैं तो फिर क्यों उसकी ही सोच को एक दिन वो नकार देते हैं। शायद वो उस बच्चे को हाड़ मांस का न मानते हुए चाबी से चलनेवाला गुड्डा समझ लेते हैं जोकि उतना ही चलेगा जितनी हम चाबी भरेंगे।

अंत में- आज ही टीवी पर एक नई फिल्म आक्रोश का पहला प्रोमो देखा। मुद्दा यही है। प्रोमो एक बेहतर फिल्म के साथ एक बेहतर सामाजिक शोध की उम्मीद जागानेवाला हैं...

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