कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Wednesday, October 20, 2010
सूरज की रौशनी
सूरज की रौशनी क्या क्या कमाल कर सकती है, ये शायद अब तक हमने पूरी तरह जाना नहीं है। या फिर ये कहे कि हम लोग धीरे धीरे ये जानने की कोशिशों में लगे हुए हैं। बचपन में सोलर कुकर को स्कूल में प्रोजेक्ट के लिए थर्माकॉल से बनाया करती थी। लेकिन, इसका बहुत व्यवहारिक इस्तेमाल कभी नहीं देखा। कई बार सुना कि मल्टीस्टोरी फ्लैटवाली कॉलोनियों में आजकल सोलर पैनल लगने लगे हैं पानी गर्म करने के लिए। व्यवहारिक रूप से इसका भी इस्तेमाल नहीं देखा। कई लोगों के मुंह से ये सुना ज़रूर कि ये बहुत व्यवहारिक और काम को कम करनेवाली ऊर्जा नहीं हैं। शायद हम सूरज की रौशनी से बचने के इतने आदी हो गए हैं कि बस काले शीशों में एसी ऑन करके सूरज को केवल एक विलेन की तरह देखते रहते हैं। लेकिन, ये आग उगलता हमसबों की ज़िंदगी का विलेन कुछ लोगों की ज़िंदगी बढ़ाने के काम में लगा हुआ है। सीएसआईआर (काउन्सिल ऑफ़ साइन्टिफ़िक एण्ड इन्ड्रस्टियल रिसर्च) ने सोलेक्शा ईजाद किया। सोलेक्शा यानी कि सोलर रिक्शा। रिक्शा वही जो हमें अपने घर से बस स्टॉप या फिर पासवाले मार्केट से घर तक लाता हैं। ऊपर नीचे, उबड़-खाबड़ रास्तों के साथ साथ ट्रेफ़िक और लाल हरी बत्तियों के बीच से हमें सही समय पर सही जगह पहुंचाता हैं। रिक्शा वही जिसे चलानेवाले को हम अपने से कमतर समझते हैं और उससे एक एक रुपए के लिए हुज्जत करते हैं। उसी रिक्शे को सीएसआईआर ने सौर ऊर्जा से संचालित करने की पहल की हैं। वो ऐसे रिक्शे बना रहा है जो कि बैट्री से चलते हो और वो बैट्री सूरज से चार्ज होती हो। सीएसआईआर का मक़सद पूरी तरह से रिक्शाचालकों की मेहनत को आधा करना और कमाई को दोगुना करना हैं। इस रिक्शे में पैडल मारने की कोई ज़रूरत नहीं, हालांकि पैडल है ज़रूर। जोकि बैट्री के डिस्चार्ज होने पर काम आते हैं। एक शोध के मुताबिक़ टीबी के मरीज़ों में सबसे ज़्यादा रिक्शाचालक होते हैं। सरकारी अस्पतालों में इसकी दवाई मुफ्त होने पर भी ये उनके लिए फायदेमंद नहीं हैं। क्योंकि इन दवाइयों के साथ जिस तरह के खाने की ज़रूरत हैं वो उन्हें नहीं मिल पाता हैं। ऐसे में अधिकतर ये दवा खोना शुरु तो करते हैं लेकिन, बीच में ही छोड़ देते हैं। पूरे दिन रिक्शा खींचने के लिए उन लोगों का सहारा बनता है तंबाखू। ऐसे में उन्हें बेहतर खाना और माहौल देना संभव नहीं लगता है। तो क्यों न उनकी मेहनत को ही कम कर दिया जाए। यही वजह है कि इन रिक्शों को बनाया गया। ये रिक्शे बिना पैडल मारे चलते हैं। इनमें सवारी के साथ रिक्शा चालक भी धूप और पानी से एक छत के ज़रिए बच जाता हैं। रिक्शे में इन्डीकेटर से लेकर हॉर्न तक सब कुछ हैं। ये है आज के रिक्शे। इसे चलानेवाले एक रिक्शाचालक ने हमें बताया कि वो पहले सामान्य रिक्शों चलाता था। लेकिन, जब से इसे चलाना शुरु कर दिया वो अब उसे नहीं चला पाता है। ये रिक्शा न सिर्फ़ सवारी को शान की सवारी देता हैं बल्कि ये हमारे समाज के उस तबके के बारे में सोचता है जो ज़िंदा भी ये ना नहीं इसकी किसी को फ़िक्र नहीं।
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1 comment:
एक ही समस्या है ये रिक्शे थोडा मेंटेनेस भी मांगते है .शुरूआती दौर में कम पैसो में कर्ज पर ये मुहिय्या कराने चाहिए .एन डी टी वी ने इसकी अच्छी रपट बनायीं थी
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