कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Monday, March 7, 2011
मरने का हक़...
इंसान का स्वभाव एक मुश्किल पहेली है। कौन, कब, कैसे, क्या करेगा कोई नहीं कह सकता है। एक भी ऐसा मुद्दा नहीं जिस पर सबकी राय एक सी हो। कुछ लोग अतिवादी होंगे तो कुछ उदारवादी। अरुणा शानबाग के लिए इच्छा मृत्यु सही है या ग़लत इस पर भी लोगों की कई तरह की राय है। हालांकि अपने जीवन पर अरुणा कोई राय व्यक्त करने लायक़ नहीं। अरुणा को सालों से संभाल रहे अस्पताल के कर्मचारी उसे ज़िंदा देखना चाहते हैं, तो दूसरी ओर उसके जीवन को शब्दों में उकेर चुकी लेखक उसे पीड़ा से मुक्ति दिलाना चाहती है। अरुणा की ख़बर सुनकर गुज़ारिश याद आ गई। फ़िल्म में ईथन मैक्सरेगस ख़ुद अपने लिए मृत्यु मांगता है जोकि उसे नहीं दी जाती हैं। अपनी ज़िंदगी शान से जी चुके ईथन को ये महसूस होता है कि कोई नहीं है जो उसके दर्द को समझता हो। ईच्छा मृत्यु एक ऐसा विषय है जिस पर कभी एक राय तो क्या किसी एक व्यक्ति की हमेशा एक राय नहीं हो सकती हैं। इंसान अगर ख़ुद किसी असह्य पीड़ा से गुज़र रहा हो तो वो रोज़ाना यही प्रार्थना करता है कि हे ईश्वर ! मुझे उठा ले। लेकिन, वही अगर उस जगह उसका बच्चा हो तो वो पूरे समय ईश्वर से उसकी सलामती और बेहतरी की दुआ मांगता हैं। एक भी बार उसके मुंह से उसके लिए मौत की बात नहीं निकलती हैं। वैसे भी हमारी ईच्छाएं समय और परिस्थितियों पर सौ फ़ीसदी निर्भर करती हैं। आज हम जिसे चाहते हैं कल उसे नकारते हैं। या आज जो हमें नापसंद है, कल वो ही हमारा चहेता होता हैं। ऐसे में मौत की कामना करना कहाँ तक सही होगा। मेरे चाचा की दो हफ्ते पहले कैंसर से मौत हो गई। भाई-बहनों में सबसे छोटे वो पिछले पाँच साल से पल-पल मर रहे थे। मन ही मन उनकी इस परिस्थिति से दुखी होकर हर कोई उनके स्वस्थ होने की कामना करता था। लेकिन, अंतिम समय में बदतर हो चुकी उनकी हालत को देखकर सभी उनके लिए मौत ही मांग रहे थे। अपने अंत समय तक इंसान के मन में जीने की प्रबल इच्छा होती है। आखिरी सांस तक हम जीना चाहते हैं। लेकिन, कई बार ये जीवन मौत से बदतर हो जाता है। ऐसे में जीने के अधिकार के साथ क्या मरने के अधिकार का भी होना ज़रूरी नहीं है? ये कहा जा सकता है कि इसका ग़लत इस्तेमाल भी हो सकता है लेकिन, फिर बस वही बात कि ऐसी कौन सी चीज़ है जिसका सही और ग़लत दोनों तरीक़ों से इस्तेमाल न हो रहा हो। मेरी एक सहकर्मी की दलील है कि जो लोग इलाज कराने में अक्षम है उन्हें इस बात की छूट होनी चाहिए कि अपने या अपने परिवार के किसी सदस्य के लिए इच्छा मृत्यु मांग सकें। लेकिन, क्या पैसे की कमी किसी की ज़िंदगी तय कर सकती है? क्या इसका मतलब ये हुआ कि पैसा है तो जीओ नहीं तो मर जाओ। इन सबके बीच एक और बात सामने आई। मेरे एक ऐसे ही बिस्तर पर पिछले कई साल से पड़े लड़के के उदाहरण पर मेरी सहकर्मी ने झट से कहा कि- उसके परिवारवाले उसे इसलिए नहीं मार रहे है कि वो परिवार का एकमात्र लड़का हैं। मेरा खून खौल गया। मुझे लगा कि जैसे उस लड़के माता-पिता के प्यार पर मतलब का चांटा पड़ गया हो। वही ये भी हुआ कि बच्चियों की जन्म लेते ही हत्या कर देना भी फिर मर्सी किलिंग के तहत आने लगेगा। क्या मर्सी किलिंग की आड़ में छुपकर लोग हत्याएं भी कर सकते हैं। अरुणा के मामले में ही अरुणा की ये हालत करनेवाला इंसान सात साल जेल में बिताकर कही आराम की ज़िंदगी जी रहा है। अपनी कुछ सेकेंड की हवस को शांत करने के लिए उसने एक पूरी की पूरी ज़िंदगी को बर्बाद कर दिया। गुनाह करनेवाला तो आसानी से छूट गया लेकिन, जिस पर बीती वो आज तक सज़ा भुगत रहा हैं। मर्सी किलिंग एक ऐसा विषय है जिस पर किसी एक या दो या एक दर्जन केस के ज़रिए भी फैसला या एक नियम बनाना असंभव है। क्योंकि हर इंसान के लिए ज़िंदगी और मौत दोनों के प्रति सोच अलग-अलग समय पर अलग-अलग है...
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1 comment:
बहुत सुन्दर लाजवाब रचना| धन्यवाद|
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