कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Wednesday, August 19, 2009
मैट्रो की ट्रैन के बाहर फैली अव्यवस्थाएं...
दिल्ली मैट्रो को लेकर पिछले कुछ समय से कई तरह की बातें चल रही हैं। ख़ासकर सुरक्षा को लेकर हरेक चिंतित दिख रहा हैं। जो चिंता में है, जो इस पर विरोध दर्ज़ करवा रहा हैं वो भी सफ़र करना मैट्रो में ही पसंद करता है। मैं कुछ ज़्यादा चिंतित नहीं हूँ। मेरे पास चिंतित न होने की कोई ख़ास वजह भी नहीं है। अपने ऑफ़िस आने के लिए मैं मैट्रो को प्राथमिकता देती हूँ। लेकिन, ऑफ़िस से जाते वक़्त मैं बस से ही सफ़र करती हूँ। सुबह मुझे मैट्रो स्टेशन तक पहुंचने में बड़ी मुश्किल होती है। मैट्रो फ़ीडर इतनी भरी हुई होती है कि लटकने को जगह न मिले। ऐसी सूरत में मैं सामान्य आरटीवी से यमुना बैंक के बाहर उतरती हूँ और वहाँ से रोज़ाना लगभग एक किलोमीटर पैदल चलकर स्टेशन पहुंचती हूँ। पैदल इसलिए कि, वहाँ खड़े रिक्शा इतनी सी दूरी के दस से पन्द्रह रुपए लेते हैं, जोकि मैं दे नहीं सकती। आते वक़्त मैट्रो स्टेशन तक पहुंचना मेरे लिए आसान है क्योंकि वो मेरे ऑफ़िस के सामने हैं। फिर भी मैं बस से आती हूँ। वजह फिर मैट्रो फ़ीडर। यमुना बैंक पर फ़ीडर के लिए इतनी लंबी लाइन होती हैं कि एक-एक घंटे तक का इंतज़ार करना पड़ जाता हैं। स्टेशन के बाहर खड़े रिक्शा और ऑटोवाले इस तरह से मुंह खोलते हैं कि जिसका कोई पार नहीं। मैट्रो बहुत ही आरामदायक है। मैट्रो ने सफर को आसान बना दिया है। लेकिन, सफर इतना भी आसान नहीं हुआ है कि रूम से निकलते हुए ये विश्वास हो कि मैं आराम से ऑफ़िस पहुंच जाऊंगी। मैट्रो फ़ीडर को लेकर मेरी ये शिकायत हो सकता है कि नाजायज़ हो। लेकिन, मैट्रो स्टेशन पर फैली अव्यवस्था एक गंभीर मुद्दा है। ख़बरनवीसों और मैट्रो के पुरोधाओं को मैट्रो के खंभे में पड़नेवाली दरारों के साथ-साथ इस तरह की अव्यवस्थाओं पर ध्यान देना चाहिए।
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2 comments:
मेट्रो में फिड़र बसों की परेशानी तो है ही.. पर स्टेशन और ट्रेन पर धक्का मुक्की भी बहुत है.. और स्वाइन फ्लु के चक्कर में ये और भी खतरनाक हो गई है..
word वेरिफिकेशन से संबधीत टिप्पणी शायद गल्ती से पोस्ट हो गई है... कृपया उसे delete कर दें धन्यवाद
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