Thursday, March 4, 2010

अति सर्वत्र वर्जयेत

अति किसी बात की ग़लत होती है। ये बात जानते हुए और मानते हुए भी मुझे लगता है कि कई बार मैं अति कर जाती हूँ। नियमों का पालन करने के मामले में कुछ हद से ज़्यादा हूँ। कुछ खाने के बाद अगर डस्टबीन ना मिले तो फेंकनेवाला कचरा हाथों में या बैग में लिए घूमती रहती हूँ। बस में पीछे से चढ़ने और आगे से उतरने की कोशिश करती हूँ। बस स्टॉप पर ही खड़ी रहती हूँ, ये बात अलग है कि बस कभी-कभी ही स्टॉप पर रुकती हैं। ख़ुद तो नियमों का पालन करती हूँ लेकिन, समस्या ये है कि चाहती हूँ कि लोग भी ऐसा ही करें। उनके ऐसा नहीं करने पर मन दुखी हो जाता है। सच में नियमों के पालन की ये अति मुझे बहुत दुख देती है। दिल्ली में विश्व स्तर की मैट्रो चल जाने के बाद उम्मीद थी कि सिविक सेन्स में सुधार आएगा। लेकिन, अफसोस ऐसा कुछ हुआ नहीं। सिविक सेन्स में ये कमी पढ़े-लिखे लोगों में ज़्यादा नज़र आती है। कल ही एक पढ़े-लिखे लड़के को मैट्रो में थूकते देखा। मन तो ऐसा हुआ कि उसके एक थप्पड़ मार दूँ। नहीं तो उसे दो बातें ही सुना दूँ। लेकिन, मैं कुछ नहीं बोल पाई चुपचाप वहाँ यूँ ही खड़ी रही। मैं कई बरा ये समझ नहीं पाती हूँ कि क्या सच मे पढ़ाई लोगों को सभ्य बनाने का माद्दा रखती हैं...

2 comments:

डॉ .अनुराग said...

आपके जीवन में आगे बहुत दुःख है .इस आदत को सुधार लीजिये .हम तो रोज लोगो को ट्रेफिक सेन्स में नोबेल प्राइज़ लेते देखते है ...केवल हिंदुस्तान ही एक ऐसा देश है जहाँ बिना सेन्स के आप पूरी जिंदगी बसर कर सकतेहै

अन्तर सोहिल said...

उससे पूछा होता कि - "क्या अपने घर में भी ऐसे ही थूकते हो"
हमें भी पढे-लिखे, ग्रैज्युएट और डिग्रीधारियों में ज्यादा असभ्यता दिखती है जी
शायद हमारी शिक्षा पद्धति ही ऐसी है कि चरित्र निर्माण और व्यवहारिक ज्ञान की बजाय केवल परिक्षा में अधिकतम अंक लाने पर ही जोर दिया जाता है।

प्रणाम स्वीकार करें