कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Tuesday, July 20, 2010
मानसिक तनाव
आज ऑफिस से आते वक़्त मैट्रो से बाहर निकलकर जब मैं फुट ओवर ब्रिज पर चढ़ी तो एक अडीब घटना हुई। दरअसल सभी लोग ब्रिज के एक कोने से चलकर जा रहे थे। बाजू की पूरी जगह खाली थी। सभी एक लाइन से एक पीछे एक चले जा रहे थे। मैं भी उनके पीछे चल दी। थोड़ी देर के बाद मुझे लगाकि मैं इनके पीछे क्यों चल रही हूँ... तब अचानक से मुझे लगाकि आज हम सभी भाग रहे हैं। क्यों भाग रहे हैं ये कोई नहीं जानता है। हम सिर को झुकाए एक दूसरे के पीछे बस एक अंधी दौड़ में चल रहे हैं। इस दौड़ में शामिल होकर कई बार हम एक ऐसे तनाव में घिर जाते हैं कि हम जानते ही नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं। मेरे एक पहचान के या फिर ये कहूँ कि मित्र के साथ भी यही हो रहा है। वो पूरी तरह से इस अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं। कभी उनके माता-पिता उन्हें इसमें झोंक देते हैं तो कभी जाने अंजाने उनके दोस्त उन्हें इसमें डाल देते हैं। वो खुद क्या चाहते हैं वो नहीं जानते हैं। इसी दौड़ में वो अपने आपको बहुत पहले ही खत्म कर चुके हैं। और, आज हालात ऐसे है कि वो इस दौड़ में दौड़ते हुए इसने थक गए है कि अपनी इस थकान को निकालने के लिए आसरा खोजते रहते हैं। पहले तो लोग सहारा दे देते थे लेकिन, अब सब किनारा करने लगे हैं। दरअसल जो भी उन्हें सहारा दे रहे थे वो भी तो भाग ही रहे हैं। वो कब तक और कहाँ तक किसी और को सहारा देंगे। सहारों के साथ जीनेवाले और अकेले कुछ न कर पानेवाले इस सज्जन के हालात अब कुछ ऐसे है कि उनका फ्रस्टेशन का स्तर खतरे के निशान को पार कर चुका है और अब ज़रा सी भी बात या फटकार या समझाइश पर ये कुछ ऐसे बौखलाते कि जैसे पागल कुत्ते की दुम पर किसी ने पैर रख दिया हो। ऐसे में बौखलाए, बड़बड़ाते और बदतमीज़ी करते इंसान को कुछ कहने का मन भी नहीं करता...
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1 comment:
सचमुच
हम बेहोशी में ही जीते हैं
प्रणाम
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