Thursday, February 25, 2010

ताजनगर के लोग- हिम्मत और संयम की मिसाल

गुड़गांव जिले का एक गांव ताजनगर। एक ऐसा गांव जिसके बारे में गुड़गांव शहर में रहनेवाले लोग ही बहुत कम जानते हैं। कुछ दिनों पहले अख़बार में ख़बर पढ़ी कि गांववालों ने वहाँ ख़ुद ही एक रेल्वे स्टेशन बना लिया है। ख़बर कुछ ऐसी थी कि मेरे साप्ताहिक कार्यक्रम के लिए एक दम सटीक लगी। इसके बारे में कुछ शुरुआती जानकारी जुटाई और निकल पड़े हम उसकी कहानी कैमरे के ज़रिए लोगों तक पहुंचाने के लिए। गुड़गांव तक का सफ़र तो आसान था लेकिन इसके बाद शुरु हुई परेशानी। किसी को मालूम ही नहीं कि कहाँ ये गांव। फिर भी जब हम आगे बढ़े तो लोगों के मुंह से इस गांव का नाम सुनकर लगाकि हाँ सही रास्ते पर हैं हम। थोड़े और नज़दीक जाने पर लोगों के मुंह स्टेशन की तारीफ़ें भी सुनने को मिलने लगी। जैसे ही हमारी गाड़ी उस खुले स्टेशन तक पहुंची सामने से एक ट्रेन आती नज़र आई। बस मेरे कैमरामैन भागे उसे कैप्चर करने के लिए। फिर शुरु हुई मेरी ज़िंदगी की एक अनोखी रिपोर्ट की शूट। गांववाले हमारे वहाँ आने से अति उत्साहित थे। एक बुज़ुर्ग हरियाणवी सज्जन ने मेरे बिना पूछे ही सारी कहानी सुनाना शुरु कर दी। टीवीवालों से वो भी थोड़ा बहुत रू-ब-रू हो चुके थे। स्टेशन के उद्घाटन के दिन सासंदजी आएं थे तो कुछ टीवीवाले भी साथ थे। एक के बाद एक कई बुज़ुर्गों ने मुझे वहाँ घेर लिया हरेक के पास एक कहानी थी। उनमें से एक को भी कहीं न जाना था। लेकिन, 30 साल के इंतज़ार और कड़ी मेहनत से बने उनके इस स्टेशन को वो यूँ बैठे निहारते रहते हैं। उन्होंने बताना शुरु किया कि कैसे दिल्ली के इतने क़रीब होने पर भी उन्हें वहाँ तक पहुंचने में कितनी तकलीफ़ होती थी। कैसे एक गांव से दूसरे गांव तक जाने में उन्हें दो से तीन घंटे लग जाते थे। वो कई बार सरकार से एक स्टेशन की गुहार लगा चुके थे। आसपास के गांवों के स्टेशन लगभग दस किलोमीचर की परिधि में ही है यहीं वजह थी कि उनका स्टेशन नहीं बन पा रहा था। सरकार से निराश गांववालों ने एक बार फिर लालू प्रसाद के रेलमंत्री बनने पर उनसे गुहार लगाई और रेलमंत्री ने बस इतना कहा कि बनाओ स्टेशन बस मुनाफ़ा होना चाहिए। इसके बाद गांववालों ने इंजीनियर्स की देखरेख में अपने पैसे और श्रम से स्टेशन बनाना शुरु किया। किसी ने तीन हज़ार दिए तो किसी ने तीन लाख़। इससे भी बढ़कर लोगों ने अपना समय और श्रम इस स्टेशन को दिया। और, पाँच जनवरी दो हज़ार दस याने कि आज़ादी के कुछ त्रैंसठ साल बाद ताजनगर में रूकी पहली ट्रैन। इसके बाद से अब यहाँ कुल सोलह लोकल ट्रैन रूकती हैं। भले ही कुछ सेंकेड के लिए लेकिन रूकती है। यहाँ के लोगों के चेहरे की खुशी आपको भी खुश कर दे। बुज़ुर्गों की झुर्रियों के बीच में खुशी एक दम घुली हुई आप देख सकते हैं। मैं वहाँ दिन भर रही। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक गए फिर वही वापस आए। पूरे समय वो बुज़ुर्गों की टोली हमारे साथ थी। सच इतने सालों के इंतज़ार और मेहनत के बाद अगर आपको वो मिल जाए जिसका इंतज़ार था तो शायद ऐसा ही हाल होता होगा। एक बुज़ुर्ग ने हमें बताया कि गांव के पुरुषों को लगता था कि अगर स्टेशन बन गया तो हमारी बीवियाँ हमसे रूठकर मायके चली जाया करेंगी तो वो यहाँ स्टेशन नहीं चाहते थे। ये सुनकर हम सभी खूब हमें। ताजनगर दिल्ली के इतने पास है फिर भी शहर और शहरी दांव पेंचों से एक दम जुदा है। गांव के लोगों को प्यार और स्नेह देखकर लगा कि सच में आज भी मासूमियत और मेहनत ज़िंदा हैं। मैं के शहरों के आसपास आज भी हम के गांव मज़बूती से खड़े हुए हैं। आखिर में वो कविता जोकि मैंने अपने एंकर में इस्तेमाल की है। ये कविता मेरे पापा (श्री राजा दुबे) ने लिखी है-

हाथ में हाथ और हिम्मत साथ हो तो
कोई पत्थर नहीं जो हिल ना सकें
हौसलें गर बुलंद हो तो
कोई मंज़िल नहीं जो मिल न सकें।

हिम्मतवाले ही आगे बढ़ पाते हैं
कठिन काम को वो आसान बनाते हैं
संकल्पों के धनी कहां रुकते हैं बीच में
वो तो मंज़िल पाकर ही हर्षाते हैं।

2 comments:

Amitraghat said...

"लेख और कविता दोनों शानदार हैं ...."
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com

निर्मला कपिला said...

बहुत बहुत बधाई आलेख और कविता दोनो बहुत अच्छे लगे होली की भी शुभकामनायें