कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Sunday, March 14, 2010
जो दबता है, उसे दबाना बनता है...
आम जनता को सेवाएं देनेवाली कंपनियों के विज्ञापनों को देखकर आपको एक पल के लिए लगेगा कि ये लोग मुनाफ़े का धंधा नहीं बल्कि पुण्य का काम कर रहे हैं। ऐसे ही कई सेवा कंपनियों के विज्ञापन तो ऐसे होते हैं कि बस एक फोन किया आपकी दुनिया बदल गई। लेकिन, जब यही कंपनियाँ असलियत के धरातल पर उतरती हैं तो किसी दैत्य से कम नज़र नहीं आती हैं। एक लोन लेने के लिए पलकें बिछाए और फोन पर फोन घुमानेवाली कंपनियाँ लोन के लिए अर्ज़ी देने पर ऐसा व्यवहार करती हैं कि जैसे उधार दे रही हो। मैं फिलहाल ऐसे ही अनुभव से गुजर रहा हूँ। बड़ी मुश्किल और मशक्कत के बाद मैंने कम्प्यूटर खरीदा है। उसे खरीदे हुए तीन महीने होनेवाले है इंटरनेट कनेक्शन नहीं लगवा पाया हूँ। किसी के दाम ज़्यादा, तो किसी की स्पीड कम, तो किसी का कवरेज नहीं, तो कोई मेरे रहने-खाने से लेकर सोने तक का हिसाब साथ मांगता है। ऐसे में दम साधकर एक कनेक्शन आखिरकार मैंने ले ही लिया। कनेक्शन लिए हुए चार दिन हो गए है और आज तक एक्टिवेशन के नाम पर कुछ नहीं। फोन कर-करके और लड़-लड़कर ऐसी हालत हो गई है कि अगर आज वो कनेक्ट हो भी जाए तो शायद मेरा इस्तेमाल करने का मन ना हो। ऐसे में जब भी उस कंपनी का ग्राहक सेवा से जुड़ा विज्ञापन देखता हूँ तो मन और बिगड़ जाता हैं। लेकिन, फिर लगता है कि कमी ख़ुद में ही है। एक ग्राहक के रूप में हम अपने अधिकारों के बारे न तो कुछ जानते हैं और ना ही जानना चाहते हैं। ग्राहकों के क्या हक़ है, हम क्या-क्या कर सकते हैं इसकी जानकारी हमें ना के बरारबर हैं। ऐसे में अगर हमारे साथ कंपनी इस तरह का बर्ताव करते है तो इसमें ग़लत क्या है। जो दबा है उसे तो हरेक दबाता ही हैं...
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2 comments:
मेल करो भाई.तीन दिन पहले ऐसे अनुभव से मैंने सीखा है ......मेरा तो उन्होंने एक बिल भी भेज दिया ..
दूर से जिसे खुदा जाना था..
छू कर देखा तो इन्सान नजर आया...
-इनसे जब तक न मिलें तभी तक छबि बरकरार रहती है.
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