मैडम आप प्लीज़ लेडीज़ सीट पर बैठ जाइए। अभी भीड़ बढ़ेगी और महिलाएं आकर हमें उठा देगी। मैं बिना कुछ कहे अनारक्षित सीट से उठकर महिला सीट पर बैठ गई। वो दोनों सज्जन पुरुष मेरे पीछे कि अनारक्षित सीट पर बैठ गए। इसके बाद उनके बीच बातचीत की शुरुआत हुई। मुद्दा बनी वो महिलाएं जोकि बसों में अनारक्षित सीटों पर बैठती हैं। सज्जन पुरुषों को समस्या थी कि आखिर क्यों वो सामान्य सीटों पर बैठती हैं उन्हें सिर्फ़ महिला सीट पर बैठना चाहिए। कैसे वो महिला सीट पर बैठे पुरुषों को यूँ ही उठा देती हैं। सीधे कहे तो सीट पाने के लिए महिलाओं की कुटिलता पर सज्जन विचार कर रहे थे। बसों में होनेवाली ऐसी बातों को सामान्यतः मैं सिर्फ़ सुनती हूँ। जवाब नहीं देती हूँ। पहली वजह कि सामनेवाला मुझे संवेदनहीन लगता है और दूसरी कि अकेली होती हूँ सो डर भी लगता है। खैर, इस बार मैं बोल उठी। पहले तो उन्हें ये समझाया कि महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के होने का अर्थ ये नहीं है कि महिलाएं सामान्य सीटों पर नहीं बैठ सकती हैं। इसका अर्थ ये है कि पुरुष महिला सीट पर तब ही बैठ सकते हैं जब तक कि कोई महिला उन्हें उठने के लिए ना कहें। दूसरा कि ये व्यवस्था इसलिए है कि अधिकांश पुरुषों इस विवेक की कमी होती हैं कि वो किसी महिला को देख सीट छोड़ दें। (हालांकि महिलाओं में भी इस विवेक की कमी देखी गई हैं कि वो किसी वृद्ध या विकलांग को देख सीट छोड़ दें)। महिलाओं की सीट की मांग हरेक पुरुष को तब तक नाज़ायज़ लगती है जब तक कि वो महिला उसकी रिश्तेदार ना हो। नहीं तो सीट न देने के लिए सोने या फिर अगले स्टॉप उतरने के कई बहाने जानते हैं। मेरे उन्हें इतना कहने से ही वो दोनों सज्जन बैचेन हो चुके थे। कुछ जैसा कि हमेशा होता है बात को बस सुन रहे थे। किसी ने न तो मेरा साथ दिया और न ही विरोध किया। कई बार पुरुषों को लगता है कि महिलाओं की सीट खाली करने की मांग ग़लत है जब वो हर काम में बराबरी करती हैं तो इसमें क्यों नहीं। बात सही भी है। लेकिन, ऐसी कई बातें हैं जो कि दोनों में अलग है। महिलाएँ हर महीने माहवारी को झेलती बिना किसी परेशानी के। दर्द और उस परेशानी को झेलते हुए भी वो महीनेभर एक सा काम करती हैं। शायद ही कोई पुरुष किसी महिला को देखकर ये बता सकता हैं कि उसकी माहवारी चल रही हैं। या फिर ऐसे कई शारीरिक अंतर महिलाओं को पुरुषों से एक हाथ नीचे करने की कोशिश करते हैं। फिर भी महिला कभी ये कहकर कि मेरी माहवारी चल रही हैं या फिर मैं गर्भवती हूँ कहकर सीट खाली नहीं करवाती हैं। कई बार तो अगर बस में खड़े होने की ठीक से जगह हो तो उठाती भी नहीं। इसके बाद मैं एकदम चुप हो गई। उन सज्जनों ने भी कुछ नहीं किया। मैंने एफ़एम की आवाज़ बढ़ाई और बस से बाहर देखने लगी।
आखिर में सिर्फ़ एक बात लड़का जब दिनभर ऑफ़िस से काम करके आता हैं तो माँ हर चीज़ उसके हाथ में रखती हैं। वही जब लड़की (बेटी या बहू) काम करके आती हैं तो कानों में सिर्फ़ एक बात सुनाई पड़ती है- चलो अब हाथ मुंह धोकर किचन में आ जाओ...
3 comments:
हमको तो दिल्ली में अनारक्षित सीट को महिला सीट बताकर एक कन्या ने उठा दिया था.. खैर मुद्दा ये नहीं.. वैसे काफी बसों में इतना बैठना हो नहीं पाता.. पर समझ सकता हूँ इस तरह की बाते तो होती ही होगी.. वैसे आज के टाईम में कोई भी संवेदनशील नहीं है ना महिला ना पुरुष.. खुद को संभाल के रख लिया जाये वही बहुत है.. और वैसे भी जब खुद ही सुधर गए तो देश तो सुधरेगा ही..
वैसे पता चल चुका है.. आप मेट्रो से ट्रेन नहीं कर रही है.. :)
"......ये व्यवस्था इसलिए है कि अधिकांश पुरुषों इस विवेक की कमी होती हैं कि वो किसी महिला को देख सीट छोड़ दें।"
सम्मान अर्जित किया जा सकता है परन्तु बलात अधिकार नहीं किया जा सकता. आरक्षण बलात अधिकार ही है फिर सम्मान के साथ इसका कैसा मेल. (इसे जातिगत आरक्षण के साथ न जोड़ें)
"......या फिर ऐसे कई शारीरिक अंतर महिलाओं को पुरुषों से एक हाथ नीचे करने की कोशिश करते हैं।"
इसी की एवज में महिलाओं को पुरुष समाज से वह सम्मान व प्राथमिकता हासिल है जिसका प्रदर्शन न करने पर वे पुरुष को असभ्य, जंगली, उज्जड, बदतमीज.......और जाने क्या - क्या कहती हैं.
"........महिला कभी ये कहकर कि मेरी माहवारी चल रही हैं या फिर मैं गर्भवती हूँ कहकर सीट खाली नहीं करवाती हैं।"
इसके पीछे स्त्रीसुलभ संकोच है न कि सदाशयता. वैसे अगर "प्रगतिशीलता" की यही रफ़्तार रही तो शायद कुछ सालों में इस प्रकार के जुमले भी सुनने को मिलने लगे.
यह सब कुछ कहने के पीछे मेरा इरादा न तो स्त्री समाज के असम्मान का है न ही उनके तिरस्कार का. मैं स्त्री को नीचा दिखाने की पुरुष मानसिकता का भी उतना ही विरोधी हूँ जितना बैंक में घंटे भर से पंक्ति में खड़े लोगों के बगल से आगे बढ़कर "लेडीज" के नाम पर पहले खिड़की में हाथ डालने वाली महिला का.
हमेशा यह बात देखने में छोटी सी लगती थी, इसकी गम्भीरता का अंदाजा आज पहली बार हुआ।
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सिर पर मंडराता अंतरिक्ष युद्ध का खतरा।
परी कथाओं जैसा है इंटरनेट का यह सफर।
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