कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Wednesday, January 12, 2011
माँ से मायका...
आई के बारे में मेरा एक बहुत बड़ा भ्रम आज टूट गया। अपनी 78 साल की लंबी ज़िंदगी में लगातार बीमारियों से लड़नेवाली मेरी आई को देखकर मुझे हमेशा यही अहसास होता था कि उनमें जीवन को जीने की ललक बाकियों से कहीं ज़्यादा हैं। ना जाने कितने ऑपरेशनों से गुज़र चुकी मेरी आई हमेशा खुश रहती। समय पर दवाई खाती, डॉक्टर के पास जाती और अपनी हरेक छोटी से छोटी परेशानी को गंभीरता से लेती। इतना ही नहीं अपनी इन बीमारियों के लिए लोगों को भी गंभीर बनाए रखती। मैंने अपनी इस 27 साल की ज़िंदगी में उनसे ज़्यादा ख़ूबसूरत महिला नहीं देखी। एकदम बेदाग गोरे चेहरे पर कुमकुम की बड़ी-सी लाल बिन्दी और उल्टी गूंथी चोटी। हमेशा कॉटन की साड़ी में लिपटी मेरी आई को देखकर हमेशा मैं यही कहती थी कि जवानी में तो कहर ही बरपाती होगी। मेरी आई हमेशा मुस्कुरा कर रह जाती। मेरी आई मेरे दादा की चिंता भी करती और उन्हें ताने भी सुनाती रहती। मेरे पापा की माने तो उनकी सभी बेटियों ने उनके इस गुण को आत्मसात् किया है। हरेक गलती के लिए तुम्हारे दादा ही ज़िम्मेदार हैं। आई अपने उसूलों की पक्की थी। हद से ज़्यादा प्यार करनेवाली मेरी आई महीने के उन पाँच दिनों में जल्लाद बन जाती थी। किसी को नहीं छोड़ती। ऐसे में तो देवास जाने में ही जान सूख जाती थी मेरी। मेरी मम्मी मेरी आई की फोटो कॉपी है हर मामले में। भयानक रूप से डायिबटीज़ से पीड़ित मेरी आई को हमेशा याद रहता था कि कौन सी मिठाई घर में बची हुई और कहाँ रखी हुई हैं। उनकी एक बात जो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद थी वो थी उनका चीज़ों, लोगों और परिस्थितियों को स्वीकार कर लेना। वो बहुत ही आसानी से ढल जाती थी। समय के साथ चलना वो जानती थी। मुझे लगता था कि यही वो वजह है जो आई को ज़िंदा रखे हुए हैं। लेकिन, मैं ग़लत थी। आई को दादा ने ज़िंदा रखा था। दादा के जाने के चार दिन बाद ही आई भी चली गई। चार दिन भी इसलिए क्योंकि शुरुआती तीन दिनों तक तो वो समझ ही नहीं पाई कि दादा चले गए हैं। आईसीयू में ऑक्सीजन मास्क लगाए पड़ी आई को बस यही लगता कि दादा घर पर हैं। बार बार पूछती कि दादा ने रोटी खाई कि नहीं या वो मुझे देखने आए थे क्या। वो शायद ज़िंदा ही दादा के दम पर थी। वो जीना ही चाहती थी दादा के लिए। दादा अंतिम समय में चाहते थे कि वो आई को मरते देखे। वो नहीं चाहते थे कि आई कष्ट अकेले भुगते। लेकिन, वो ये नहीं जानते थे कि वो ही थे जिनमें आई की जान बसती थी। आई-दादा जीवनभर साथ रहे और आज भी साथ ही हैं। आखिर में बस मम्मी कि एक बात याद आती हैं जो वो हमेशा बोलती रहती थी - माँ से ही मायका है। जिस दिन वो गई मायका गया। आज मुझे भी यही महसूस हो रहा है कि देवास मेरा ननिहाल मेरी आई यानि कि मेरी नानी से ही था...
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