कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Wednesday, January 19, 2011
जेसिका, सबरीना या मैं...
नो वन किल्ड जेसिका देखी। फ़िल्म अच्छी थी लेकिन, देखते वक़्त उत्साह की कमी रही। केस के बारे में सब कुछ मालूम था और फ़िल्म का अंत फ़िल्म शुरु होने के पहले से मालूम था। विद्या बालन, रानी मुकर्जी, मायरा सभी की एक्टिंग बढ़िया रही। रानी मुकर्जी के किरदार से एक पत्रकार होते हुए भी रिलेट नहीं कर पाई। महिला टीवी पत्रकार को जिस ढर्रे पर हमेशा हर फ़िल्म में बताया जाता हैं वैसी शायद पांच प्रतिशत ही होती हैं। मैं उन पांच प्रतिशत में नहीं हूँ, शायद इसलिए भी मज़ा नहीं आया। खैर, फ़िल्म में जो मुझे ख़ास लगा वो था सबरीना का संघर्ष। सबरीना को मैं जेसिका की बहन के रुप में ही जानती हूँ, जैसे कि सब जानते हैं। ऐसे में फ़िल्म में दिखाई दी सबरीना अगर असल से दस फ़ीसदी भी मिलती जुलती है तो सच में उसका संघर्ष दिल दहला देनेवाला है। पूरी फ़िल्म में मुझे यही लगता रहा कि जेसिका या सबरीना की जगह मैं या मेरी दोस्त या बहन भी हो सकती थी या हो सकती हैं। ऐसे में इस समाज में रहना और सच और इंसाफ के लिए लड़ना कितना मुश्किल हैं। सच कहूँ तो मुझे इस फ़िल्म को देखकर डर लगा। जो डर पिछले पाँच साल से इस महानगर में रहते और काम करते हुए नहीं लगा। हर क़दम, हर मोड़ पर आपको शातिर होना ज़रूरी हैं। हार ना मानने से ज़्यादा ज़रूरी वही है। फ़िल्म में भी यही दिखा। सबरीना ने हार नहीं मानी लेकिन, उससे कुछ नहीं हुआ। मीडिया के शातिरपन ने ही अपराधियों को पकड़वाया और इंसाफ दिलवाया। सच कहूँ तो फ़िल्म के अंत में मेरे कई बार आंसू बहे। ये आंसू फ़िल्म की कहानी या कलाकारों की एक्टिंग के लिए न होकर उस डर के थे जो बार-बार मुझे ये सोचने पर मजबूर कर रहे थे कि सबरीना या जेसिका की जगह मैं भी हो सकती थी या हो सकती हूँ। मैं फ़िल्म देखकर भी फ़िल्म की समीक्षा नहीं कर सकती हूँ। क्योंकि फ़िल्म को मैं फ़िल्म के नज़रिए से देख ही नहीं पाई। अंत में बस इतना कि सबरीना वाकई हिम्मती हैं और उन्होंने जो किया सबके बस की बात नहीं।
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