ये साली ज़िंदगी और सात खून माफ़। दो ऐसी फ़िल्में हैं जिनका मुझे इंतज़ार है। ये साली ज़िंदगी का प्रोमो महीनेभर पहले यू ट्यूब पर देखा था। इरफान खान टीवी के ज़माने से ही मेरे पसंदीदा हैं। चित्रांगदा सिंह की अदाकारी और ख़ूबसूरती में से क्या मुझे ज़्यादा पसंद हैं ये तो मैं भी तय नहीं कर पाती हूँ। दरअसल ये दोनों ही कलाकार ऐसे हैं जिन्हें झक मार ही सही लेकिन पसंद करने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं। प्रोमो देखकर लगता है कि सुधीर मिश्रा के स्टाइल का वॉटर मार्क कही भी धुंधला नहीं हुआ होगा। ये साली ज़िंदगी.... एक ऐसा जुमला जो सभ्य से सभ्य इंसान ने एक बार ही सही अपनी ज़िंदगी में ज़रूर बोला होगा। फ़िल्म भले ही अंडरवर्ल्ड, प्यार, धोखा, सेक्स या ख़ून खराबे से भरी हुई हो लेकिन, ये तीन शब्द हरेक ने कमसेकम एक बार तो महसूस किए ही होगें। हालांकि ऐसी फ़िल्में मेरी पसंदीदा जॉनर्स में से एक में शामिल नहीं हैं फिर भी सुधीर मिश्रा, इरफान खान, चित्रागंदा और सौरभ शुक्ला के लिए इसका इंतज़ार हैं।
वहीं, सात ख़ून माफ़ का प्रोमो जब पहली बार देखा तो लगा कि इसकी कहानी बस लिखने के लिए लिखी गई कहानी हैं। मतलब कि, कुछ अलग बनाना हैं तो कुछ भी अलग भलता ही सही लिख दो। लेकिन, विशाल भारद्वाज की वजह से मन ही मन लग रहा था कि कुछ तो हैं। सो, आज मालूम चलाकि कहानी रस्किन बॉण्ड की है। मेरे कान खड़े हो गए। लगाकि ओह, तो ये बात हैं। विशाल भारद्वाज और शेक्सपियर का कॉम्बिनेशन तो देख लिया अब रस्किन बॉण्ड और विशाल भारद्वाज की जुगल बंदी देखने का मन हो गया। सुसान्नास् सेवन हसबैण्डस् के शीर्षकवाली इस कहानी के बारे में केवल इतना मालूम चला कि बीस साल से पैंसठ साल तक की उम्र के बीच इस महिला की हुई सात शादियों का तानाबाना है इसमें। फ़िल्म में मौजूद कलाकारों से उम्मीद कम और निर्देशन से उम्मीदें ज़्यादा हैं। फ़िल्म देखना हैं लेकिन, पहले कहानी को पढ़ने का मन हैं। फ़िल्म देखकर आज तक जितनी भी कहानियाँ और नाटक पढ़े हैं कभी वो मज़ा नहीं आया जो फ़िल्म देखते समय आया। इस बार कहानी पढ़कर फ़िल्म देखना चाहती हूँ। उम्मीद है, कर पाऊंगी...
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