कभी पुलिया पर बैठे किचकिच करते थे... अब कम्प्यूटर पर बैठे ब्लागिंग करते हैं...
Monday, January 10, 2011
इस्तीफ़ा...
ज़िन्दगी के चार दशक परिवार के मुखिया के पद पर बिताकर अंततः उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अपने दो सौ साल पुराने घर में 83 साल तक रहनेवाले उस वृद्ध ने अपनी हरेक ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया। बचपन में ही पिता की मौत के बाद अपनी माँ के साथ मिलकर उन्होंने अपने सात भाई बहनों की पढ़ाई से लेकर शादी तक की ज़िम्मेदारी निभाई। अपने दादाजी को भी सालों तक संभाला। अपनी नौकरी में मिले हेडमास्टर के पद को पूरी ज़िम्मेदारी से निभाया। इन ज़िम्मेदारियों को निभाने में उनकी पत्नी ने उनका पूरा साथ दिया। ये बात अलग है कि मानसिक रूप से उनकी सहभागी उनकी पत्नी जीवनभर शारिरीक रूप से बीमार ही रही। अंतिम समय में भी संयोग कुछ ऐसा बना कि आईसीयू में भर्ती अपनी पत्नी के साथवाले बिस्तर पर आकर लेटने के बाद ही उन्होंने प्राण त्यागे। ये पति-पत्नी का जोड़ा मेरे मन में ऐसा था जो कभी बिछड़ नहीं सकता था। जो कभी मर नहीं सकता था। सच में, मैं हमेशा यही सोचती थी कि आई-दादा को कभी कुछ नहीं होगा। खैर, वो चले गए। अपने पीछे पाँच बेटियों और एक बेटे को उनके भरे-पूरे परिवार के साथ। उन्होंने न सिर्फ़ अपने नाती- नातिनों और पोते-पोतियों को बढ़ते देखा बल्कि उनकी शादियाँ और उनके बच्चों को स्कूल कॉलेज जाते भी देखा। हेडमास्टर की कमाई में पाँच बेटियों की शादी की। अमीर तो नहीं लेकिन, सुयोग्य वर उनके लिए खोजे। पैसे से ज़्यादा प्राथमिकता व्यवहार और स्वभाव को दी। उनके ही एक दामाद को पूरे खानदान ने इसलिए पसंद किया क्योंकि वो इनकम टेक्स में नौकरी करता था। लेकिन, शादी से पहले उसके नौकरी छोड़ देने और एक पीआरओ की नौकरी करने पर भी वो विचलित नहीं हुए। उन्हें दामाद की ईमानदारी दिखी कि उसने नौकरी छोड़ने की बात को छुपाया नहीं। हाँ वो कई बार समाज के आगे झुके भी। कई बार समाज के दबाव में आकर बच्चों की मर्ज़ी के खिलाफ फैसले भी लिए जोकि उनके बच्चों ने माने भी। शायद ऐसे में नई पीढ़ी की मन मर्ज़ी ने उन्हें बहुत दुखी कर दिया। हमेशा मुखिया होने के ताने फैसले करने और उन्हें सुनानेवाले को ये बर्दाश्त नहीं हुआ कि कोई उनके आगे बोले या उनकी बात ना माने। यही वजह है कि अपने अंतिम दिनों में वे बहुत दुखी रहने लगे थे। मन ही मन किसी शोक में घुलने लगे थे। वही जीवनभर बीमार रही उनकी पत्नी शरीर से भले ही कमज़ोर हो लेकिन मन की पक्की निकली। आज सोचती हूँ तो लगता है कि अगर ऐसा ना होता तो इतनी बीमारी के साथ कोई जी ही नहीं सकता हैं। दादा जहाँ मन के विपरीत होनेवाले हरेक परिवर्तन से विचलित और परेशान रहने लगे, वही आई उस हरेक परिवर्तन के साथ खुद को भी बदलती गई। जो जैसा मिला उसमें खुश होती गई। पिछले तीन साल से मैं आई और दादा को आसपास बिस्तर डाले बीमार एक दूसरे को ताकते हुए देख रही थी। हर सांस पर दादा को इस बात की चिन्ता सताती की साथवाले बिस्तर पर पड़ी उनकी पत्नी तो ठीक है ना। कुछ दिनों से उन्होंने आई (उनकी पत्नी) के मरने के लिए दुआएं मांगनी शुरु कर दी। वो नहीं चाहते थे कि वो उन्हें यूँ ही बीमार छोड़ अकेले चले जाए। मैंने उन्हें जब भी देखा एक रिटायर हेडमास्टर की ठसक के साथ देखा। मेरे जीवन के वो एकमात्र इंसान जिन्हें मैंने लंगोट बांधते देखा हैं। हमेशा सफारी में रोज़ माता की टेकरी चलकर जाते। एक दम फीट। किसी तरह की कोई बीमारी नहीं कोई परेशानी नहीं। शायद नई पीढ़ी की मनमर्ज़ी और अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीने की जिद के आगे वो झुक नहीं पाए। अपने छोटे भाई-बहनों से लेकर अपने बच्चों तक किसी के मुंह से जिसने अपने लिए ऊंची आवाज़ नहीं सुनी वो अंदर ही अंदर घुटने लगे थे। दादा के जाने की ख़बर सुनकर मैं भी रोई। जब मालूम चलाकि उनकी अंतिम यात्रा में इतने लोग उमड़े थे कि मोहल्ले में पैर रखने की जगह नहीं थी तो मन ही मन गर्व भी महसूस हुआ। दादा के जाने का दुख तब सबसे ज़्यादा होता है जब मैं आई के बारे में सोचती हूँ। ऑक्सीजन मास्क पहने बिस्तर पर पड़ी दुनिया की सबसे सुन्दर मेरी आई कभी दादा की याद में रोती हैं तो कभी सब कुछ भूलकर दादा के रोटी खाने की चिंता करने लगती है। कभी दादा से गुस्सा हो जाती हैं कि मुझसे मिलने क्यों नहीं आए। अब ऐसा लगता है कि दादा को आना चाहिए और आई को ले जाना चाहिए। मैं हमेशा से ही आई की इस बात की कायल रही हूँ कि उनमें जीवन को जीने की ललक सामान्य से ज़्यादा है। लेकिन, अब लगता है कि आई तो तब तक ही आई थी जब तक दादा थे। मेरे दादा ने अपना जीवन पूरा जिया। एक आत्मसम्मान और ठसक के साथ जिया। लेख का अंत कैसे करूँ मुझे समझ नहीं आ रहा है। बस इतना ही कहूंगी कि मेरे दादा यानी कि नानाजी दयाशंकर रामनारायण शुक्ल ने अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक़ जी और जब लगा कि अब उन्हें नहीं जीना वो चले गए। और, अब मैं बस इतना चाहती हूँ कि मेरी आई यानि कि मेरी नानीजी श्रीमती अन्नपूर्णा दयाशंकर शुक्ला को हम उनके दादा के बिना भी संभाल पाए।
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2 comments:
कभी कभी कुछ चीज़े इतनी निर्मल ओर सरल होती है के उनके जाने के बाद उनकी महत्ता ओर बढ़ी महसूस होती है ....इस जटिल ओर भागादौड़ी भरी दुनिया में ऐसे इंसान कितना सकूं देते है
कुछ लोग अपने आप में एक मिसाल होते हैं और उनके आस-पास के लोग कभी उन्हें भूल नहीं पाते।
इस्तीफा तो एक ना एक दिन सबको देना ही है।
प्रणाम
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